मंगलवार, 10 सितंबर 2019

गोदड खवड पच्चीसी

ll गोदड खवड पच्चीसी  l

ll कथा ll

*(छंद प्रकार:- दोहरो)*

दाबी तै बाबी दिधा, गोदड कीधी गल्ल
जित्यो कैसन जंगही, सामा छता सबल्ल *(१)*

अर्थ:-
हे गोदड खवड, तुने बाबीयो को दबा दिया है और उनको हास्य के पात्र रख दिया है, शत्रुसेना सबल होने पर भी तुं युद्ध कैसे जिता ?

*(छंद प्रकार:- पद्धरी)*

लहिकै सुफौज हामद नवाब, आवत धांधलपुर करन ताब
विक्रम सवंत इकअष्टपांच, ता परै षष्ट कुल अंक जांच *(२)*

अर्थ:-
हामद नवाब चंगी फौज लेकर धांधलपुर पर अपने नेजा फरकाने आए थे, विक्रम संवत की इकअष्टपांच (१८५) और उसके उपर षष्ट(६) बराबर १८५६ की साल।

खग गगन लगै करनै विहार, रहिया नाहर भगिया सिहार
हांकल धांधलपुर हेर हेर, करजो बैरी पर जोध कैर *(३)*

अर्थ:-
आकाशमे गीध उडने लगे, सिंह मैदानमे रहे और सियार भागने लगे, धांधलपुर के घर घरमे हांक हुई, सबको एक ही बात कही गई के "हे वीरो, बैरियो पर कहर बरसा देना।"

मखवान वंस झाला प्रसाख, काठी सुपंथमै खवड दाख
सो ब्रक्ख बडो पर छोटि डाल, और डाल मही कछु पर्ण हाल *(४)*

अर्थ:-
मखवान वंश मै झाला प्रशाखा और झाला प्रशाखामे काठी पंथिय खवड वंश ऐसा है जैसा बडे वृक्षमे छोटीसी डाल और युद्ध की स्थितीमे तो उस डाल के कुछ पर्ण ही हाजिर रह पाए थे।

हाजर हताह सो लरन काज, ललकार पुरन कुळ रखन लाज
बाबी बैरी सै बाजवाह, जुड्या जोधारा जुद्ध माह *(५)*

अर्थ:-
जो हाजिर थे वह लडने के लिए, ललकार की पादपूर्ती करने के लिए, बाबीयोसे भिडने के लिए युद्धमे जुड गए।

हा आमसामनै पडी हांक, तरवार वार बजि ताक ताक
धड धांकधांक हामद धडक्क, पड थांक थांक लाग्यो थडक्क *(६)*

अर्थ:-
आमसामने हांक हुई, तरवारो का नाद सुनाई देने लगा, हामद नवाब की धडकने बढ गई, धरती थडक उथडक होने लगी।

जूनागढ पति री जित जंग, बाधा बिचार करता बरंग
जय पराजय खवड त्याग जाल, आखो अफीम रो गटक प्याल *(७)*

अर्थ:-
'जूनागढ ही युद्ध जितेगा' ऐसा विचार सर्व मस्तिष्क कर रहे थे, लेकिन ऐसी स्थिती मे विजय या पराजय की चिंता छोड कंठ को कसुंबल रंगसे तरबतर कर के गोदड खवड युद्धमे आ रहा है।

फिर चडी जुद्ध करियाह वार, अरि अंग अंग गिय आरपार
पागल करिया प्रेतह पिशाच, मंडाय गियो हर करन नाच *(८)*

अर्थ:-
गोदड खवड युद्धमे उतरा, दुश्मनो के अंग अंगसे शस्त्र आरपार हो गए, प्रेत और पिशाच मौजमे आ गए, शिव तांडव नृत्य करने लगा।

खनमै निहार गोदड खवड्ड, बाबी भगिया पदि बड्ड बड्ड
चारन सुकाव्य पाया सुपाव्य, मरदामरद्द द्रस मनोभाव्य *(९)*

अर्थ:-
क्षणभरमे गोदड खवड को देख बाबी के बडे बडे होदेदार भागने लगे, चारणो ने वीरकाव्यो को पिरसना शुरू कर दिया, वह द्रश्य मर्दो के काज मनमोहक था।

हुय गी अछ री लंबी कतार, वरमाळ हत्थ गहि वार वार
बाबी अगम्य हा हा हरेक, जोधार गम्य गोदड हि हेक *(१०)*

अर्थ:-
अप्सराओकी लंबी कतार लग गई, वह वरमाळ हाथ लेकर योद्धाओ पर वारी जा रही है, बाबी सारे उनकोे अगम्य है और फक्त एक गोदड खवड ही प्रिय है।

पर गोदड मरतो जी नथीह, पाछी स्वर्गारी थी पथीह
हामद गुमान पर ठोक हल्ल, गिरनारी केरी कही गल्ल *(११)*

अर्थ:-
लेकिन गोदड की मृत्यु हे नही रही है, अप्सरा स्वर्ग की और वापिस लौट चली, हामद नवाब के अभिमान पर हल का प्रहार लगा, गिरनार का नृपती हास्यपात्र बना।

वावड करिया काठी विजैह, सरस
तर सरप्प घा देह देह
उपचार करिकै थकिया हकीम, धरती सुकाहती धीम धीम *(१२)*

अर्थ:-
काठी विजयके समाचार फैलाए गए, शस्त्रो रूपी सर्प के घाव देह पर लगे हुए है, उपचार कर करके हाकिम थक चुके है और रक्तरंजित धरती धीरे धीरे सुख रही है।

सो विजय अत्ति दैवत्त पत्त, सूरज ससीह सूधी जगत्त
मै नाम सह रहिसै सुमाम, दरसै मयूख कुळ बडो दाम *(१३)*

अर्थ:-
वह विजय गाथाओमे वृद्धी करने वाला था, यावच्चचंद्रदिवाकरौ था, कवि मयूख ईस विजय को खवड कुळ को ईश्वरका दिया बडा ईनाम कहते है।

*ll प्रशस्ति ll*

*(छंद प्रकार:- छप्पय)*

बाबी फौजा बडी, चडी हठ कडी सुचंगी
राज रणांगण रंग, कंग सा सर्व कुरंगी
बैरी सत्थे बत्थ, लथोबथ भारथ लरिकै
अर्क कियो नव अत्थ, हत्थ राखी धर हरिकै
बिग्रह मयूख होयो बिकट, भिड्या धांधलनगर भड
कायर अनेक तजि टेक पर, खस्यो ना गोदड खवड *(१४)*

अर्थ:-
बाबीयोकी बडी और चंगी फौज हठ लेकर आई, उनके साथ अश्वस्वार अन्य कई राज्य मिले, बैरीयोसे बथ भिरी, युद्ध लथोबथ हुआ, सूर्य अस्त नही हुआ, दुसरी धरको हरना लेकिन अपनी धरती नही देने के निचार से यह विग्रह हुआ, धांधलनगरमे भड भिडे, कायरो ने टेक त्यागी लेकिन गोदड खवड अचळ रहा।

बाबी रा बच्चाह, दाह दीधा जग डंका
कथे गत्थ कविराज, सौर्यमै हौत न संका
भोम डुलावी भीड, रुलावी नार अरंदी
हाक बुलावी हठी, सूम सम करी न संधी
विधवा मयूख नारी वधी, परी वधी मयदान पड
ऐसो बरंगमै अति अकड, खदडे अरि गोदड खवड *(१५)*

अर्थ:-
बाबी वंशको दाहकर तुने डंका बजा दिया। कविराज तेरी गाथा बना रहा है उसे तेरी शूरवीरता पर कोई शंका नही, तुने भूमी डुलादी, शत्रुकी स्त्री रुलादी, हठसे हाक बुलादी लेकिन संधी नही की, विधवा नारी और परी दोनो की संख्या बढ गई, है गोदड खवड तुने क्रोधमे आकर शत्रुओको खदेड दिए।

धांधलनगर मै धक्क, हक्कबक हौत तरक्का
चल काठी करि चक्क, हक्क हौवै धर हरका
गोरस करन गरक्क, थक्कसै पुगैहि थल्लम्
मक्कवान धर मध्य, दक्ख जूनागढ दल्लम्
हल्ला विराट विकराल हुय, जामी जड राखी जकड
बाबी मयूख हार्या बुरा, खुंखारा गोदड खवड *(१६)*

अर्थ:-
धांधरपुरमे धाक पडी, तुर्क हक्काबक्का हो गए, काठीयोने धरा को चल करदी, धरा पर अपना हक बनाए रखा, बाबी ग्रास को खाने के लिए थके हुए मयदान पर पहुचे, मखवानो की मध्य घरा पर दक्षिणसे दल आया, विकराल और विराट युद्ध मचने पर काठीयोने अपनी धरती जकड रखी, बाबीयो को गोदड खवडसे बुरी तरह पराजय मिली।

नत्थे धांधलनेर, तै बुरौ बैर हारकै
नेर हेर गिरनार, पैर वच छुपै नारकै
तीखा लग्गे तार, मिठो लिय मारमारकै
भिटे तुटे भेंकार, भूप सो भोम भारकै
भेचक्क भयंकर दर भई, बाबी पासा ग्या बिगड
ततही मयूख अरि तगडिया, खेखटिया गोदड खवड *(१७)*

अर्थ:-
धांधलपुरसे बेरी बुरे हारके भागे, निज घर गिरनारमे बेगमो के पास छुप गए, हार के तीखे तार उन्हे मिले, मिठी मौज मार पडने की वजहसे चली गई है, खवडो से भिडने पर वह तुट चुके है और भूमी पर भार बनके रह गए है, खवडकी धरा पर बाबीयोके पासे बिगड गए, गोदड खवडने दुश्मनो को खेखटिया भगा दिया।

राणावत रावत्त, अत्ति बळसू आथडियो
राणावत रावत्त, पत्त रख पांव न पडियो
राणावत रावत्त, सत्त मै हुयो सत्थ ही
राणावत रावत्त, हरी नव करी हत्थ ही
दुसमन मयूख आवत दरै, भौम हरन काजै भिरै
मखवान हान कीधी महा, गोदड सत्रारा सिरै *(१८)*

अर्थ:-
है राणा खवडके पुत्र, तु पुरे जोर से दुश्मनो से लडा लेकिन उनके पांव न पडा  तुं सत्य के साथ रहा तुने किसी की धरती नही छिनी फक्त अपनी धरा की रक्षा की, है मखवान जाती के गोदड खवड तेरे दर पर शत्रुओके आने पर तुने उसे बहोत बडी हीनी दी।

सिंहण जणिजै सिंह, कदी जणिजै नव कुक्कर
सिंहण जणिजै सिंह, दिजै जगनै नव डुक्कर
सिंहण जणिजै सिंह, मारिकै खाय महाभड
सिंहण जणिजै सिंह, सत्र रो बनै सत्र कड
नाहर मयूख हा खाय नव, खेतर रो को दिवस खड
ताके समान , खास खास गोदड खवड *(१९)*

अर्थ:-
है सिंहण, तुह्जे जन्म देना हो तो सिंह को देना, कदी डुक्कर या कुक्करको जन्म मत देना, तुह्जे जन्म देना हो तो सिंह को देना, जो शिकार कर खा सकती हो और शत्रु का शत्रु बन सकता हो, कवि मयूख कहता है की सिंह कभी घास नही खाता उसे उसके सारे गुण गोदड खवडमे दिख रहे है।

हरखत अति हरपाल, निहालत बिग्रह नभपै
हरखत अति हरपाल, सूत दरसावत सभपै
हरखत अति हरपाल, खवड देखी खुंखारा
हरखत अति हरपाल, अहो बाबीह बिचारा
हरखत मयूख हरपाल रो, आतमाह ऐसोहजी
देखिकै राम दसरथ दिए, जसी भाव जैसोहजी *(२०)*

अर्थ:-
हरपालदेव का हर्ष बढ रहा है, वह विग्रह को नभ पर देख रहा है, अपने पुत्र को वह ईंद्रकी सभा पर दर्शा रहा है, अपने खुंखार पुत्र और बिचारे बाबीयो को देख हरपालदेवको ऐसा हर्ष हो रहा है जैसा यशमयी हर्ष राम को देख कर दशरथ को होता है।

वोकर कर्नल वखत, आविया सब इलापत
करनै काज करार, तजन काठियावाड तत
पडदो आडो पाड, बिठो अंदर वोकर बड
झूंक झूंक सब गिया, परापर भूप पडापड
तद खाग काढ फाडी दिधौ, पडदो करियो पार भड
अणनम मयूख काठी इजत , खौवत ना गोदड खवड *(२१)*

अर्थ:-
कर्नल वोकर के समय सब भूप जब करार काज ईकठ्ठे होकर अपना राज देने के लिए आए तब वोकर अपने तक पहुचने के लिए बिचमे पडदा रख के बैठा हुआ था, वोकर के मान को ध्यानमे रखते हुए सब भूप उस पडसे से झूक कर उस पार गए और जब गोदड खवडकी बारी आई तब उसने अपने शस्त्रसे पडदे को फाड कर उस पार जाना पसंद किया, है गोदड खवड, तुने काठियो की इज्जत रखली उसे खोया नही।

करियो जिरण कोट, समय री खोट कुसत्थी
करियो जिरण कोट, नास रो इलाज नत्थी
करियो जिरण कोट, होवणो रेसे होई
करियो जिरण कोट, सरब धांधलपुर सोई
हो ठसक ठाठ पत ठाकुरा, बीच कोट रो थान बड
जीरण मयूख दैवे कुजस, खडो कियो नव गढ खवड *(२२)*

अर्थ:-
धांधलपुर का गढ जिर्ण हो चुका है, उसका दोषी समय है, नाश का कोई इलाज नही है, होना हे वह होके रहता है, उसमे धांधलपुरभी आ जाता है, है ठाकुरो, ठसक और ठाठमाठमे गढका महत्वका स्थान है, जिर्ण गढ कुळको लजा सकता है ईसलिए गोदड खवडने धांधलपुरमे नया गढ खडा किया।

सोना री कर सांग, सोहती भीम गदा जिम
सोना री कर सांग, सोहती मर्दकू असिम
सोना री कर सांग, इंद सत्थे ज्यौ ससतर
सोना री कर सांग, सटाकै फुटै बैरि सर
धारी कर सांग सुवर्ण री, सोहती रती तव हती
खत्रिय मयूख गोदड खवड, नरापार ही निकरती *(२३)*

अर्थ:-
गोदड खवड के हाखमे सोने की सांग, जैसे भीम के हाथमे गदा, सोनेकी सांग मर्दको सोहती है, जैसे इंद्र के हाथमे शस्त्र जिसके एक वार से बैरीयोके सर फूट सकते है, है गोदड खवड, तेरे हाथमे सोने की सांग अति किंमती लग रही है, कवि मयूखके अनुमानसे वह पुरूषदेह को आरपार करने वाली रही होगी।

*(छंद प्रकार:- दोहरो)*

खासी कीधी खवडरी, किरत विरत कवियाह
ठाठमाठ तज ठाकुरा, गोदड जुद्ध गियाह *(२४)*

अर्थ:-
कवि मयूखने गोदड खवडकी किर्ती वृद्धीमे अपना योगदान दिया है क्युकी गोदड खवडने ठाठमाठ त्याग कर युद्ध किया, विरत्वका बखांन करना ही चाहिए।

पूनम दिवस प्रभातमै, कीधी कब कबताह
बरस बीससतचत्रहुं, मयूख महिनो माह *(२५)*

अर्थ:-
विक्रमसंवतके २०७४ के माह महिनेमे पूनम के दिवस प्रभातमे कवि मयूखने यह रचना की।

रविवार, 2 जून 2019

तीनो तुक मिलाई हे साव साँची पाई हे ......!

राजस्थानी कविता हे ....
तीनो तुक मिलाई हे साव साँची पाई हे ......!
१ ; नाता की लुगाई खोटी,गाँव की उगाई खोटी,
आटे साटे सगाई खोटी . तीनो तुक मिलाई हे .......!
२ ; घर जंवाई रियोड़ो खोटो,दारु घणो पियोड़ो खोटो,
गहनो उधारो लियोड़ो खोटो. तीनो तुक मिलाई हे....!
३ ; मारण वालो पाडो खोटो, बिना पाळ को नाडो खोटो,
उललयिड़ो गाडो खोटो , तीनो तुक मिलाई हे....!
४ ; लेणों घणो लियोड़ो खोटो, कड्वो बोल कियोड़ो खोटो,
जाव घणो पियोड़ो खोटो,तीनो तुक मिलाई हे.........!
५ ; खान में सेली खोटो, गुरु माराज के चेली खोटी,
खेत माइने गेली खोटी, तीनो तुक मिलाई हे.....!
६ ; माड़ो करियोड़ो भोरो खोटो,बिगड़ीयोड़ो छोरो खोटो,
पागल ने आयोड़ो लोरो खोटो ,तीनो तुक मिलाई हे साव साँची पाई हे !

रविवार, 14 अप्रैल 2019

बेशकीमती बोट

प्रिय साथियों!
सादर अभिवादन।
            दिनांक 29 अप्रेल2019 को लोकतंत्र का महापर्व है। आपसे अपील है कि इस दिन मतदान अवश्य ही करें साथ ही आपके पडोसियों,परिजनों,परिचितों,परिवारवालों व सगा- संबंधियो को भी मतदान हेतु प्रेरित करें।पांच वर्ष पश्चात आने वाले इस मताधिकार का प्रयोग  विवेक के साथ,सोच समझकर करें ताकि किसी गलत आदमी का चयन रोका जा सके।
आज जिस तरह भाई-भतीजावाद व जातिवाद के नाम पर समाज की सामूहिकता के भाव व समरसता को चोट पहुंचाई जा रही है, उससे लोकतांत्रिक व्यवस्था को चोट पहुंचने की संभावनाएं बढ़ती जा रही है।
आज आम आदमी के समक्ष यह यक्ष प्रश्न खड़ा दिखाई देता है कि ऐसे में किसको अपना प्रतिनिधि चुने?
मैंने आपकी इसी  शंका व संशय के समाधान हेतु कतिपय दोहे लिखे हैं ।जो शायद आपका कुछ मार्ग प्रसस्त कर सकें। सादर अवलोकनार्थ पेश है--
       बेशकीमती बोट
दिल मे चिंता देश री,
मन मे हिंद मठोठ।
भारत री सोचे भली, बिणनै दीजो बोट।।

कुटल़ाई जी में करे,
खल़ जिणरै दिल खोट।
नह दीजो बी निलज नै,
बहुत कीमती बोट।।

कुटल़ा कपटी कूडछा,
ठाला अनपढ ठोठ।
घर भरवाल़ा क्रतघणी,
भूल न दीजो बोट।।

बुध हीणा,गत बायरा,
पाप कमाणा पोट।
विस कटूता री विसतरै,
कदैन दैणा बोट।।

दशा बिगाडै दैश री,
कर हिंसा विस्फोट।
मोहन कहै दीजो मति,
बां मिनखां नै बोट।।

आयां घर आदर करै, सहविध करै सपोट।
मोहन कहै बि मिनख नै,
बेसक दीजो बोट।।

जात -पांत नह जोवणी,
नह बिकणो ले नोट।
भासा रै खातिर भिड़ै,
बिणनै दैणां बोट।।

सर्वधर्म सदभावना, सबजन लेय परोट।
हिल़मिल़ चालै हेत सू,
बी ने दीजो बोट।।

करड़ाई अड़चन करै,
सागै रखणो सोट।
निरभय,निडर,निसंक व्है,
बे हिचक दो बोट।।

पांच बरस बित्यां पछै, आयो परब अबोट।
चित उजवल़ नह चूकणो,
बढ चढ दीजो बोट।।

इण अवसर दारू अमल,
हिलणो नीं धर होठ।
जगां जगां नी जीमणो,
देख चीकणां रोट।।

प्रात काल न्हायां पछै,
हरि सुमरण कर होठ।
देणो बटण दबाय कर,
अवस आंपणो बोट।।

कल़ै कराणा कुटंब में,
कूड़ तणा रच कोट।
दुसटां नै नह देवणो,
बिलकुल अपणो बोट।।

अतंस तणी अवाज सुण,
सुध हृदय मन मोट।
विध विध सोच विचार ने,
बेसक दीजो बोट।।

रचियता
मोहन सिह रतनू,से.नि
आर.पी.एस ,जोधपुर

सोमवार, 8 अप्रैल 2019

जै  ना खायो  चूरमा....

*राजस्थान का भोजन

जै  ना खायो  चूरमा,किया बनसी सूरमा
जै  ना  खायो नुक्ती,किया मिलसी मुक्ति
जै  ना खायो  थूली,दुनिया बीने ही भूली
जै ना खाई लापसी,आत्मा किया धापसी
जै  ना  खायो  सीरो,बण  के  रेग्यो  जीरो
जै ना खायो सोगरो,दास  बणग्यो रोग रो
जै  ना खाई  राबड़ी,सकल  होगी छाबड़ी
जै   ना  खाई  कड्डी,कमजोर होयगी हड्डी
जै ना खायो मिर्ची बडा, विचार  रेवे कड़ा
जै  ना  खायो दाल बाटी, जिंदगी है माटी
जै ना खायो खांकरा, कर्मा में है  कांकरा
जै  ना  खायो पीटलो, है बो सेउं फीटलो
जै ना खाया केर, कोनी बिकी कोई  खैर
जै ना खाई गंवार फली,नसा बिकी गली
जै  ना  खायो  घेवर,ठंडा  पड़ग्या  तेवर
जै ना खाई फीणी, केंकी  जिंदगी जीणी

शनिवार, 6 अप्रैल 2019

ओ देस कठीनैं जार्यो है  !

ओ देस कठी'नैं जार्'यो है  !
                   ___________________________
           रचना  : मानसिंह शेखावत 'मऊ'
ओ देस कठी'नै जार्'यो है !
नहीं भेद रामजी पार्'यो है !!
          बोलण-चालण का सू'र नहीं !
          तन ऊपर ढंग का पू'र नहीं !!
          आ होठां सूं रंगरेजां सी !
          आ बोली सूं अंगरेजां सी !!
पण आँख्यां काजळ सार्'यो है !
ओ देस कठी'नैं जार्'यो है !!
          हाथां सुहाग की चूड़ी ना !
           पग मैं बाजै बिछूड़ी ना !!
           काळी नागणं सा बाळ कठै ?
           माथै सिंदूरी टाळ कठै ??
तन गाबाँ बारैं आर्'यो है !
ओ देस कठी'नैं जार्'यो है !!
           आ धक्का-मुक्की गाड्यां की !
           आ खिंची लूगड़ी लाड्यां की !!
           अै लड़ै लुगायाँ टूँट्यां पर !
           अै सरम टाँक दी खूँट्याँ पर !!
घरधणी घूँघटो सार्'यो है !
ओ देस कठी'नैं जार्'यो है !!
           बा सीता की सी लाज कठै !
            बो रामराज सो राज कठै !!
            पन्ना धायण सो त्याग कठै !
            बा तानसेन सी राग कठै !!
ओ फिलमी गाणां गार्'यो है !
ओ देस कठी'नैं जार्'यो है !!
             अै दूंचै पूत जणीतां नैं !
             आ बाड़ चाटगी खेताँ नैं !!
             असमत लुट'री थाणै मैं !
              झै'र दवाई खाणै मैं !!
ओ हात,हात नैं खार्'यो है !
ओ देस कठी'नैं जार'यो है !!
               छोरा-छोर्'याँ को मिट्यो भेद !
                रद्दी कै सागै बिक्यो वेद !!
                डिसको को रोग चल्यो भारी !
                डिसको राजा अर दरबारी !!
आँख्यां पर जाळो छार्'यो है !
ओ देस कठी'नैं जार्'यो है !!
                 के हाल कहूँ गुरु-चेलै का !
                 लक्खण आँ मैं नहीं धेलै का !!
                 ऐ साथ मरै अर साथ जिवै !
                  बोतल अर बीड़ी साथ पिवै !!
खेताँ मैं तीतर मार्'यो है !
ओ देस कठी'नैं जार्'यो है !!
                   धोळै दोपारां डाको है !
                   ओ लूंठाई को हाको है !!
                   झूंठै कोलां को खाको है !
                    फाट्यै गा'बै मैं टाँको है !!
ओ मिनखपणै नैं खार्'यो है !
ओ देस कठी'नैं जार्'यो है !!
रचनाकार : मानसिंह शेखावत 'मऊ'

गुरुवार, 21 फ़रवरी 2019

आ राजस्थानी भासा हैँ

आ राजस्थानी भासा हैँ

सक्तिदान कविया
इणरो इतिहास अनूठो है , इण मांय मुलक री आसा है ।
चहुं कूंटां चावी नै ठावी , आ राजस्थानी भासा हैँ ।।

1 .
जद ही भारत मेँ सताजोग , आफत री आंधी आई ही ।
बगतर री कङियां बङकी ही , जद सिँधू राग सुणाई ही ।
गङगङिया तोपा रा गोळा , भाला री अणियां भळकी ही ।
जोधां रा धारा जुङता ही खालां रातम्बर खलकी ही ।
रङबङता माथा रणखेतां , अङवङता घोङा ऊललता ।
सिर कटियां सूरा समहर मेँ ढालां तरवारा लै ढलता ।
रण बंका भिङ आरांण रचै , तिङ पैखे भांण तमासा है ।
उण बखत हुवै ललकार उठै , वा राजस्थानी भासा है ।।
2.
इणमेँ सतियां रा सिलालेख , इणमेँ संतां री वाणी है ।
इणमेँ पाबु रा परवाङा , इण मेँ रजवट रो पांणी हैँ ।
इणमेँ जांभै री जुगत जोय , पीपै री दया प्रकासी हैँ ।
दीठो समदर सी रामदेव , दादू सत नाम उपासी हैँ ।
इणमेँ मे तेजै रा वचन तौर , इणमेँ हमीर रो हठ पेखो ।
आवङ करणी मालण दे रा , इणमेँ परचा परगट देखो ।
जद तांई संत सूरमा अर , साहित्यकारां री सांसा है ।
करसां रै हिवङै री किलोळ , आ राजस्थानी भासा है ।।
3.
करमां री इण बोली मेँ ही , भगवान खीचङो खायो है ।
मीरा मेङतणी इण मेँ ही गिरधर गौपाल रिझायो है ।
इण मेँ पिब सूं मांण हेत , राणी ऊमा दे रूठी ही ।
पदमणियां इणमेँ पाठ पढयो , जद जौहर ज्वाला ऊठी ही ।
इणमेँ हाङी ललकार करी , जद आंतङियां परनाळी ही ।
मुरधर री बागडोर इण मेँ ही दुरगादास संभाली ही ।
इणमेँ प्रताप रो प्रण गुंज्यो , जद भेट करी भामासा है ।
सतवादी घणां सपूतां री , आ राजस्थानी भासा हैँ ।।
4.
इणमेँ ही गायो हालरियो , इणमेँ चंडी री चरजावां ।
इणमेँ ऊजमणै गीत गाळ , गुण हरजस परभात्यां गावां ।
इणमेँ आडी ओखांणा , ओलगां भिणत वातां इणमेँ ।
जूनो इतिहास जोवणो व्है , तो अणगिणती ख्यातां इणमेँ ।
इणमेँ ही ईसरदास अलू , भगती रा दीप संजोया हैँ ।
कवि दुरसा बांकीदास करण , सुरजमल मोती पोया है ।
इणमेँ ही पीथल रची वेलि , रचियोङा केइक रासा है ।
डिँगळ गीतां री डकरेलण ,
आ राजस्थानी भासा हैँ ।।
5.
इणमेँ ही हेङाऊ जलाल , नांगोदर लाखो गाईजै ।
सोढो खीँवरो उगेरै जद , चंवरी मेँ धण परणाईजै ।
काछी करियो नै तोडङली राईको रिङमल रागां मेँ ।
हंजतो मोरूङो हाडो नै सूवटियो हरियै बागां मेँ ।
इणमेँ ही जसमां ओङण नै मूमल रो रुप सरावै है ।
कुरजां पणिहारी काछबियो , बरसाळो रस बरसावै है ।
गावै इणमेँ ही गोरबंद , मनहरणा बारैमासा है ।
रागां रीझाळू रंग भीनी , आ राजस्थानी भासा हैँ ।।
6.
इणमेँ ही सपना आया है , इणमेँ ही ओळू आई है ।
इणमेँ ही आयल अरणी नै , झेडर बाळोचण गाई है ।
इणमेँ ही धुंसो बाज्यो है , रण तोरण वंदण रीत हुई ।
इणमेँ ही वाघै भारमली , ढोलै मरवण री प्रीत हुई ।
इणमेँ ही वाजै वायरियो , इणमेँ ही काग करूकै है ।
इणमेँ ही हिचकी आवै है ,
इणमेँ ही आँख फरूकै है ।
इणमे ही जीवण मरण जोय , अंतस रा आसा वासा है ।
मोत्यां सूं मूंघी घणमीठी , आ राजस्थानी भासा हैँ ।।

शुक्रवार, 15 फ़रवरी 2019

राजस्थान का भोजन

राजस्थान का भोजन

जै  ना खायो  चूरमा,किया बनसी सूरमा
जै  ना  खायो नुक्ती,किया मिलसी मुक्ति
जै  ना खायो  थूली,दुनिया बीने ही भूली
जै ना खाई लापसी,आत्मा किया धापसी
जै  ना  खायो  सीरो,बण  के  रेग्यो  जीरो
जै ना खायो सोगरो,दास  बणग्यो रोग रो
जै  ना खाई  राबड़ी,सकल  होगी छाबड़ी
जै   ना  खाई  कड्डी,कमजोर होयगी हड्डी
जै ना खायो मिर्ची बडा, विचार  रेवे कड़ा
जै  ना  खायो दाल बाटी, जिंदगी है माटी
जै ना खायो खांकरा, कर्मा में है  कांकरा
जै  ना  खायो पीटलो, है बो सेउं फीटलो
जै ना खाया केर, कोनी बिकी कोई  खैर
जै ना खाई गंवार फली,नसा बिकी गली
जै  ना  खायो  घेवर,ठंडा  पड़ग्या  तेवर
जै ना खाई फीणी, केंकी  जिंदगी जीणी

रविवार, 20 जनवरी 2019

रामगढ़ सेठान :शेखावाटी शान

राजस्थानी भाषा के जाने-माने जनकवि चिंतक विचारक और लेखक आदरणीय श्रीमान आईदान सिंह जी भाटी जो साहित्य जगत में आई जी के नाम से प्रसिद्ध है उनके पोस्ट शेयर कर रहा हूं बहुत ज्ञानवर्धक पोस्ट

रामगढ़ सेठान :शेखावाटी शान
--दयाराम महरिया, सीकर की कलम से लिखी पोस्ट -

रामगढ़ सेठान की स्थापना के पीछे एक अन्तर्कथा है ।सीकर ठिकाने के शासक रावराजा देवीसिंह थे ।
् देवी सिंह का ससुराल चूरू था । उनकी रानी को भाभी ने ताना मारते हुए कहा की चूरू सीकर से सुंदर शहर है । इस पर रानी ने देवी सिंह को कहा कि चूरू से सुंदर शहर बसाने पर ही वह अन्न ग्रहण करेगी । रूठी रानी को मनाने के लिए देवी सिंह ने उस समय के चूरु के प्रसिद्ध सेठ(श्रेष्ठ) चतुर्भुज पोद्दार के बही खाते जबरदस्ती मंगवा लिए जब चतुर्भुज उनको लेने के लिए राव राजा के पास आया तो राव राजा ने उसके सामने शर्त रखी की चूरू से सुंदर शहर बसाओ तभी आपके बही खाते वापस लौटाऊंगा । चतुर्भुज ने वादा किया और रानी को मनाया कि शीघ्र ही चूरू से सुंदर शहर बसा दिया जाएगा । राव राजा को दिए आश्वासन को पूरा करने के लिए चतुर्भुज पोद्दार ने 1790 ईस्वी में सीकर ठिकाने की उत्तरी सीमा पर स्थित नासा नामक ग्राम में रामगढ़ बसाया ।चतुर्भुज ने राजस्थानी कि इस कहावत 'गांव बसायो बाणियों ,पार पडे़ जद जाणियों ' को असत्य सिद्ध कर दिया । उस समय दूसरे शहरों से संपन्न सेठ वहां आकर बसे ।फतेहपुर के बंसल वहां आकर बसे जिनका रुई का व्यवसाय होने के कारण रुईया कहलाये । वहां के सेठ ईस्ट इंडिया कम्पनी के साथ व्यवसाय करने लगे ।1860 ई. के आसपास रामगढ़ के पोद्दारों की प्रथम पंजीकृत कम्पनी 'ताराचंद- घनश्याम ' 'थी ।उसी कम्पनी के साथ पिलानी की शिवनारायण बिड़ला (घनश्याम दास बिड़ला के दादा )ने नाममात्र की हिस्सेदारी के साथ प्रथम बार स्वतंत्र व्यापार में प्रवेश किया ।घनश्यामदास बिड़ला की जीवनी 'मरुभूमि का वह मेघ' में कंपनी का नाम 'चेनीराम जेसराज 'लिखा है ।वे बंबई में अफीम का व्यवसाय चीन के साथ करते थे । ध्यातव्य है कि शिवनारायण के पिता शोभाराम तो पूर्णमल गनेडी़वाले सेठों की गद्दी पर अजमेर में 7 रुपये महीने पर नौकरी करते थे ।चतुर्भुज बंसल गोत्र का अग्रवाल महाजन था । उनके पूर्वज शासन में पोतदार (खजांची )थे ।अतः वे पोद्दार कहलाए ।प्राचीन भारतीय समाज में  वर्ण व्यवस्था जन्म से नहीं थी ।वर्ण का निर्धारण जन्म से नहीं बल्कि कर्म से होता था। वैदिक युग में वैवस्वत मनु के पुत्र नाभानिर्दिष्ट की कथा प्रसिद्ध है । जिन्होंने अपने पिता के क्षत्रिय वर्ण को छोड़ कर वैश्य वर्ण का वरण कर लिया था ।  अग्रवाल, महेश्वरी आदि गोत्र के महाजन पहले क्षत्रिय थे परंतु उनके पूर्वज क्षेत्रीय कर्म छोड़कर वैश्य कर्म करने लगे ।अतःवैश्य कहलाए । वह अपने क्षेत्रीय अतीत को याद रखते हुए अपनी व्यवसाय पीठ को आज भी गद्दी कहते हैं। शेखावाटी में बसने से पहले उनकापंजाब क्षेत्र में व्यवसाय था । पंजाब प्रारंभ से ही क्षेत्र सिंचित क्षेत्र होने के कारण संपन्न था वहां व्यापार वाणिज्य  खूब फला फूला । वहां के व्यापारियों के अफ़गानिस्तान ,चीन ,फारसआदि से व्यापारिक रिश्ते थे ।वह 'बलदां खेती' घोड़ा राज 'का जमाना था ।काबुल के व्यापारी घोड़े ,पिंडखजूर आदि लेकर के आते थे ।रवींद्रनाथ टैगोर की सुप्रसिद्ध कहानी 'काबुलीवाला' कहानी का कथानक भी यही है। काबुल के घोड़े बड़े प्रसिद्ध होते थे । कहा भी है  -केकाण(घोड़े) काबुल भला । महाराणा प्रताप का घोडा़ चेटक (अर्थ-सेवक) भी काबुल का ही था ।कालांतर में उत्तर की ओर से विदेशी हमले होने लगे तो उन्होंने किसानों की आबादी से घिरे दुर्गम, शांत व असुन्दर स्थानों को अपने बसने  के लिए चुना । इसी क्रम में शेखावाटी में आबाद हुए  ।मरुभूमि का मतलब मृतभूमि होता है परंतु यहां के वीरों -दानवीरों ने इसे अमृतभूमि बना दिया ।कन्हैयालाल सेठिया ने इसीलिए लिखा -आ तो सुरगां ने सरमावै, इण पर देव रमण ने आवै ,धरती धोरां री -----।उन्होंने यहां स्थापत्य कला में बेजोड़ हवेलियां बनाई जो सुरक्षा की दृष्टि से मजबूत होने के साथ-साथ रहने के लिए भी काफी अच्छी थी । रामगढ़ सेठान की हवेलियां भी  बडी़ चित्त -आकर्षक हैं । 1835 के रामगढ़ की एक झलक लेफ्टिनेंट बोइलू की डायरी में मिलती है ।जिसने मरू प्रदेश की उस वर्ष यात्रा की उसने रामगढ़ को एक समृद्ध सीमा स्थित कस्बे के रूप में जो स्वच्छता के साथ साथ घेरे के अंदर स्थित है और साहूकारों से भरा हुआ बताया है जिनकी कमाई पर अब तक किसी को न बक्शने वाली कैंची नहीं पड़ी है। सीकर ठिकाने के सीनियर अफसर कैप्टन वेब जो 1934 से 38 तक सीकर ठिकाने का सीनियर अफसर रहा ,ने 'सीकर की कहानी 'नामक अंग्रेजी में पुस्तक में अपने प्रवास के दौरान सीकर ठिकाने के संस्मरण लिखें हैं ।उसमें कैप्टन वेब ने रामगढ़ के सेठों को सोने का अंडा देने वाली मुर्गी बताया है है ।इसी कारण राज दरबार में भी उन्हें पूरा सम्मान मिलता था तथा विशेष कुर्सी रामगढ़ के क्षेत्रों को उपलब्ध करवाई जाती थी ।
    मेरे मित्र जनकवि रामेश्वर बगड़िया ने मुझे कहा कि रामगढ़ को गर्भ  को देखने चलें ।अतः 7 जनवरी, 2019 को हम दोनों रामगढ़ सेठान गए  ।रामगढ़ में पुरातन वस्तुओं के संग्रहालय कई व्यक्तियों ने बना रखे हैं ।उनके माध्यम से वह अपना व्यवसाय करते हैं ।देश -विदेश के पर्यटक उन्हें देखने व खरीदने आते हैं ।ऐसे ही एक संग्रहालय व फैक्ट्री के मालिक श्री मनोज जौहरी हैं । हम उनकी फैक्ट्री में गए ।उन्होंने हमें फैक्ट्री व उनके संग्रहालय में पुरातन वस्तुएं दिखाई ।पुरातन शैली में नवनिर्मित  वस्तुएं भी देखी ।उसके बाद वे हमें रामगढ़ की हवेलियां दिखाने  ले गए ।श्री मनोज ने हमें बताया की हर वैश्य सेठ नहीं कहलाता है ।सेठ एक पदवी है जो विभिन्न जनहितार्थ एवं संस्थाओं के निर्माण करने के बाद ब्रहमपुरी करके पंडितों द्वारा दी जाती है ।वे हैं , हवेली, बैठक, नोहरा ,बगीचा ,बगीची, कुआ ,बावड़ी ,तालाब प्याऊ ,पाठशाला आदि का बनवाना आवश्यक था । उन हवेलियों एवं सेठों से जुड़ी कई दंत कथाएं हैं ।एक हवेली के बारे में हमें श्री मनोज ने बताया कि यह मस्जिद वाली हवेली कहलाती है । इसके अंदर मजार बनी हुई है ।हम उसे देखने के लिए गए। हवेली में एक कमरे के नीचे सीढ़ियां उतर रही थी। श्री मनोज ने कहा ,इसी के नीचे मजार है ।श्री रामेश्वर  बगड़िया, हम दोनों के मना करने पर भी उसमें टॉर्च लेकर उतर गए । उन्होंने कहा यह कोई मजार नहीं है बल्कि एक छोटा कमरा है ।दरअसल वह तहखाना  था । लोगों को भ्रमित करने के लिए शायद सेठ ही ऐसा प्रचार कर देते थे ।दूसरी हवेली में हमने रंग महल देखा बहुत ही सुंदर चित -आकर्षक चित्र उस रंग महल में बने हुए थे जो आज भी मुंह बोल रहे थे ।हवेली में बादल महल,हवामहल ,पोल़ी,रसोई आदि बने हुए थे । उन्हें देख कर लगा कि 'खंडहर कह रहे हैं,इमारत कभी बुलंद थी '।वह हवेलियां आज इतनी विरान हैं कि वहां चमगादड़ भी नहीं  रहते हैं ।उनसे जुड़ी हुई कई दंत कथाएं आज भी क्षेत्रीय बुजुर्गों की जुबान पर हैं । प्राचीन समय में रामगढ़ छोटी काशी के नाम से ख्यात था ।वहां अनेक पाठशालाएं थी ।मैंने लिखा -
    हवेली पहेली चित्र, लघु काशी पहचान ।
     रामगढ़ सेठान विगत, शेखावाटी शान ।।
  इसी तरह से वहां के सेठों के बारे में भी अनेक दंत कथाएं हैं। हमें बताया गया की एक सेठ ने सर्दियों में सियार बोलते हुए सुने तो मुनीम से पूछा सियार क्यों बोल रहे हैं तो मुनीम ने कहा यह सर्दी में ठिठुर रहें हैं ,इसलिए बोल रहे हैं ।सेठ ने दूसरे ही दिन सियारों के लिए रजाइयों की व्यवस्था कर दी ।  रूस के सुप्रसिद्ध लेखक रसूल हमजातोव ने अपनी मातृभूमि 'मेरा दागिस्तान ' पर एक पुस्तक  लिखी है ।मुझे शेखावाटी के गर्भ को देखकर' मेरा दागिस्तान'का वर्णन याद आ गया । उन्होंने भारत के बारे में लिखा है कि वहां की पुरातन संस्कृति, उसके दर्शन में मुझे किसी रहस्यमय कंठ की ध्वनि सुनाई देती है ।रामगढ़ की उन वीरान  हवेलियों में हमें भी रहस्यमय  कंठ ध्वनियाँ सुनाई दे रही थी ।
शेखावाटी के बारे में राजस्थानी के कवि सुमेरसिंह शेखावत ने लिखा है --
शेखाजी की शेखावाटी, डीघा डुंगर बाल़ू माटी ।
बुध री भूर बाणियां बांटी,जण में जाट जंगलां जांटी ।।
अर्थात बुद्धि शेखावाटी के हिस्से में आई उसे तो बणियों ने ही आपस में बांट लिया । किसी का भी शासन हो सेठों ने अपनी तराजू के बल पर तख्त से सांठगांठ रखी । मुगल काल में शेखावाटी मे बनाए सेठों के कुएं के ऊपर उन्होंने मीनारें बना दी ताकि मुस्लिम शासक मस्जिद की मीनारों की तरह ही उन्हें भी पवित्र मानते हुए पानी  को प्रदूषित नहीं करें ।व्यापारिक दक्षता उनमें बहुत अच्छी रही इसलिए राजस्थानी में एक कहावत है 'बिणज करेला वाणिया और करेला रीस'।गीता में कहा है -'कृषिगौरक्षदाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्' ।
   यहां के धन्ना सेठ धोरों से हिलोरों तक गये  परंतु मातृभूमि के प्रति भाव हिलोरें हमेशा उनके ह्रदय में उमड़ती रही ।कहा है जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर होती हैं उन्होंने अपनी जन्मभूमि को स्वर्ग माना । हर साल वे जन्म भूमि की तीर्थ यात्रा पर  आते । उनकी भावनाओं को दर्शाने वाला एक गीत है 
'देश ने चालो जी ढोला मन भटके, काकड़ी मतीरा खास्यां खूब डटके ।'
वे दिन चले गए, वे लोग चले गये परन्तु रेत पर सुकेत बना अमिट हस्ताक्षर छोड़ गये ।आज सातवीं -आठवीं पीढ़ी सेठों की अपनी मातृभूमि को भूलते जा रही है। हवेलियां तो आज भी 'पधारो म्हारे देश' का आह्वान कर रही हैं ।इसी को वर्णित करते हुए एक कवि ने लिखा है ।
सेठ बस कोलकाता ,मुंबई डिब्रूगढ़ आसाम ।
जाकर  ठाड़े बैठ्या, काटे उम्र तमाम ।।
कुण सूं मुजरो करे  हवेलियां ,बरसां मिले न राम ।
बाटड़ली जोवे आवण री,गोखे बैठी शाम ।