रविवार, 30 जुलाई 2017

महाराणा_सांगा -

#महाराणा_सांगा -  सनातन की रक्षा करने वाला हिन्दू राजपूत क्षत्रिय

महाराणा सांगा - मंझला कद , मोटा चेहरा, बड़ी आंखे, लंबे हाथ, ओर गेंहुआ रंग था । दिल के इतने मजबूत थे, की इनके जोड़ का वीर शायद आज तक पैदा ना हुए हो ।

27 वर्ष की अवस्था मे राणा सांगा गद्दी पर बैठे, ओर 20 वर्ष शाशन करने के बाद उनका देहांत हो गया । राणा सांगा के काल मे मेवाड़ की स्तिथि शिखर पर पहुंच गई थी, उनकी सेना में 1 लाख सैनिक ओर 500 हाथी थे । 7 बड़े राजा 9 राव ओर 108 रावत उनके अधीन थे । जोधपुर ओर आमेर के राजा उनका बड़ा सम्मान करते थे । बाबर के आक्रमण का सामना करने से पहले भी  उन्होंने 18 बार बड़ी बड़ी लड़ाइयां मालवा के मुसलमान सुल्तानों से लड़ी थी ।

राणा सांगा अपने समय के पराक्रमी राजा थे, उनके समय मे उनके जैसा पराक्रमी ओर वीर राजा पूरे भारत मे नही था । भारत का कोई ऐसा राजा नही था, जो उस समय राणा सांगा कर सामने सिर उठाने का साहस करता ।

100 मैदानों के विजेता ने दिल्ली के पतन के बाद  हिन्दू राज स्थापित करने के लिए गुजरात ओर दिल्ली को भी पराजित किया । अगर राणा सांगा बाबर के विरुद्ध सफल हो जाता, तो पूरा भारत उसके कब्जे में होता, ओर आज इस्लाम का नामोनिशान यहां नही होता ।

राणा सांगा को केवल बाहर से ही नही, अंदर से भी बहुत विरोध झेलना पड़ा था, कई जातीया हमेशा विरोध ही करती रही थी, राणा सांगा के ही काल मे मीणो का विद्रोह हो गया था । एक ओर विदेशी आक्रमण तो दूसरी ओर  घर मे फुट, कोई सफल हो तो कैसे हो ?? बाद में आज कुछ लोग राजपूतो पर लांछन लगाते है, इतिहास को पढ़कर देखना चाहिए, तुमने राजपूतो का साथ दिया कब ??

इब्राहिम लौदी से युद्ध के बाद एक हाथ कट जाने पर , ओर पांव में तीर लग जाने पर, राणा सांगा ने दरबारियों से आग्रह किया, की सिहांसन पर किसी योग्य व्यक्तियों को बिठा दे । उनकी घोषणा कुछ इस प्रकार थी ।

" जिस प्रकार टूटी मूर्ति प्रतिष्ठा पूजने योग्य नही रहती, उसी प्रकार मेरी आँख , भुजा ओर पांव निकम्मे हो गए है । इसलिए में सिंहासन पर ना बैठकर जमीन पर ही बैठूंगा । इस स्थान पर जिसे उचित समझे बिठावे । "

इस विनती भाव से दरबारी बहुत प्रभावित हुए   सब बोले " रण क्षेत्र में अंग भंग होने से  राजा का गौरव बढ़ता है, ना कि घटता " सबने मिलकर उन्हें गद्दी पर बिठा दिया ।।

यह राणा सांगा की योग्यता व नीति की पराकाष्ठा थी ।

पृथ्वीराज चौहान के पतन के बाद हिन्दुओ पर लगातार अत्याचार हो रहे थे, सारा भारत ही इस्लाम की गर्त में जाता नजर आ रहा था । मंदिरो को तोड़कर मस्जिद बनाया जा रहा था,  बड़ी बड़ी जागीरे देकर लोगो का धर्म परिवर्तन किया जा रहा था । हिन्दू इस आशंका से ग्रसित हो गए कि इसी गति से ही यह सब होता रहा तो सारा का सारा देश इस्लामिक हो जाएगा ।

ऐसे समय मे हिन्दुओ के उगते राजपूत सूरज ने  गुजरात के सुल्तानों ओर दिल्ली के बादशाहो पर आक्रमण कर हिन्दू विजय का डंका बजा दिया । पूरे भारत के हिन्दू यह जानकर खुश होते, आशा भरी निगाहों से देखते, की मेवाड़ की  दुर्गम घाटी में इस धरती का ही एक लाल है, जो हिन्दू शाशन स्थपित करना चाहता है ।

130 साल से चले आ रहे मालवा में इस्लामिक  शाशन को महाराणा सांगा ने ही उखाड़ के फेंका था । गुजरात का जफर खा, जो पूरे गुजरात पर इस्लाम का कहर ढा रहा था, उसे भी राणा सांगा ने ही जड़ से उखाड़ फेंका था । अहमद नगर के युद्ध मे तो राणा सांगा ओर राजपूत दुर्ग का फाटक तोड़कर मुसलमानो के दुर्ग में घुस गए थे । वहां से सारा धन लुटा ओर चितौड़ आ गए ।

     राणा सांगा इब्राहिम लौदी और बाबर

यह बिल्कुल गलत बात है कि बाबर को राणा सांगा ने बुलाया था । इब्राहिम लोदी को तो राणा सांगा खुद दो बार युद्ध मे पराजित कर चुके थे, ओर दिल्ली से इसलिए उसे उखाड़ नही पाए, उसके पीछे कारण उनके सेनिको द्वारा आम हिन्दू जनता को बंदी बनाकर अत्याचार की धमकी देना था ।

बाबर की औकात नही थी, की वो राणा सांगा से लड़ पाए ! लेकिन इब्राहिम लौदी कि हर के बाद अनेक पठान सरदार राणा सांगा से आ मिले थे । खानवा का युद्ध बाबर की ओर से जिहाद के नाम पर लड़ा गया, इस्लाम के नाम पर लड़ा गया, मुसलमान के नाम पर लड़ा गया ।

इसका परिणाम क्या होना था ? राणा सांगा ने मुसलमानो पर भरोसा कर लिया, अपने ही सैनिक राणा सांगा की सेना पर वार करने लगे । राणा सांगा का नेतृत्व पहली वार हार गया, वो करें तो क्या करें, जिस सेना को वह साथ लड़ने लाया था, इस्लाम के नाम पर उसी ने उस पर आक्रमण कर दिया ! मुसलमानो ने अपनी जात दिखा दी ।

इन युद्ध की हार का राणा सांगा को ऐसा सदमा पहुंचा उसके बाद वो कभी उठ ही नही पाए, इसी शोक में 1 वर्ष के पश्चात वो स्वर्ग सिधार गए ।

शनिवार, 29 जुलाई 2017

शकूरखान

दुनिया रखे तुझो मान, तुझो नालो शकूरखान बचपन में सरकारी स्कूलों में पढ़ाई कर दौरान स्कूली सांस्कृतिक कार्यक्रमों में एक प्रसिद्ध स्थानीय लोकगीत हम बच्चों द्वारा बहुत चाव से गाया जाता था और ग्रामीण लोगों द्वारा इस लोकगीत को बड़े चाव से सुना जाता था, स्थानीय मंगनीयार कलाकारों के द्वारा भी इस सिंधी मारवाड़ी मिश्रित लोकगीत को महफिलोंमे भी गाया जाता था क्योंकि इस लोकगीत में थर के बहादुर और स्थानीय सिंधी नोहडी जाति के राबिनहुड शकूरिये का दिलेरी और साहसिक कारनामों का वर्णन किया गया है।तब यह लोकगीत इस एरिया के साम्प्रदायिक सौहार्द और हिन्दू मुस्लिम समुदाय के भाईचारा के प्रतीक बने इस लोकगीत को सुनने, सुनाने का शौक था, सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी इस बहादुर नोहडी के साहसिक कार्यो के इस विरूद गायकी को सम्मान से देखा जाता था, तब शायद शकूरिया मुसलमान था यह महत्वपूर्ण नहीं था, उसकी जाति क्या थी, यह महत्वपूर्ण नही था, महत्वपूर्ण था हमारा भाईचारा, महत्वपूर्ण थी शकूरखान की बहादुरी, साहस और सामाजिक सौहार्द, गाने वाले मंगनीयार मुसलमान थे, शकूरखान मुसलमान था, सुनने वाले हिन्दू और मुसलमान दोनों थे, गीत का नायक और गायक मुसलमान थे तो श्रोता दोनों समाजों से थे, गीत बनाने के लिए प्रेरित करने वाले और मुसलमान गायक को ऊंट इनायत करने वाले गिरधरिग जादम(यादव का स्थानीय उच्चारण) भाटी ब्ईया थे, शकूरखान की पैरवी करने वाले और उसको आश्रय देने वाले और उसकी मुकाबले में जान बचाने के बदले लाखों रूपए की कीमत अदा करने का आफर देने वाले इन्दरीग भी भाटी थे, तब शायद धर्म की रिवायतें,मेहमान की रक्षा और उसको आश्रय देना,उसकी जाति और धर्म की परवाह किये बगैर उसकी बहादुरी रूपी धर्म की प्रशंसा में गीत गुलांना (वो भी एक मुस्लिम) इस माडधरा के सपूतों की रीति नीति थे। क्योंकि तब लोकगीत साम्प्रदायिक नहीं थे वैसे माड में अभी भी नहीं है, तब गायक और नायक गैर साम्प्रदायिक थे, सुनना और सुनाना और महफिले साम्प्रदायिक नहीं थी, सब मारवाड़ी थे, गीत और प्रीत मारवाड़ी थी, गायक और नायक मरूवाडि थे, गिरधरिग और शकूरखान मारू के जाईंदै थे,देश बंटा था, पर दिल नहीं बंटा था, जीसा उस पार यानि थारपारकर में जाकर आतिथ्य वो भी एक मुस्लिम नोहडी नायक द्वारा तब, जब देश बदल गये, सीमा रेखा खींच दी गई थी, पर ना जिसा का और शकूरखान का दिल बदला था, इमाम सोलंकी साथ बदला था, जरूर ससुराल बदला था, मेरा ननीहाल बदला था, शकूरखान का हमारा रिश्ता नहीं बदला था, पर शकूरा नही बदला, कई राजपूत सोढा बेटियों के शादी में हर वक्त आतिथय और आश्रय के लिए अपने जान बाजी लगाने वाले शकूरिया की मुकाबले में बसिया की पावन भोम पर मुकाबले में मार दे, हम भाटी उतर भड किवाड़ भाटी सहन कर लेते हैं, कैसे पाप को ओढ लेते, , कैसे संभव था?, उसकी एक बानगी एक स्थानीय लोकगीत के माध्यम से पेश की जा रही ह मैं इस लोकगीत को काफी समय सुन रहा था, आज लगा कि इसको शेयर करू और अतीत के सुनहरे साम्प्रदायिक सौहार्द के प्रतीक एक बहादुर नायक को याद करूं।।।।।

*कोई नही कहेगा कि जेसलमेर का किला कुंवारा है यहः अद्बुद्ध रचना रोंगटे खड़ा करने वाली राजभा गढवी की जुबानी सुनिये ओर शेयर कीजिये*

#कोई_नही_कहेगा_कि_जेसलमेंर_का_किला_कुंवारा_है_राजभा_गढवी_की_जुबानी_यहः_अद्बुद्ध_रचना_शेयर_कीजिये
बधाई ! बधाई ! तुर्क सेना हार कर जा रही है | गढ़ का घेरा उठाया जा रहा है |" प्रधान बीकमसीं(विक्रमसिंह) ने प्रसन्नतापूर्वक जाकर यह सूचना रावल मूलराज को दे दी |
"घेरा क्यों उठाया जा रहा है ?" रावल ने विस्मयपूर्वक कहा |
कल के धावे ने शाही सेना को हताश कर दिया है | मलिक,केशर और सिराजुद्दीन जैसे योग्य सेनापति तो कल ही मारे गए | अब कपूर मरहठा और कमालद्दीन में बनती नहीं है | कल के धावे में शाही सेना का जितना नाश हुआ उतना शायद पिछले एक वर्ष के सब धावों में नहीं हुआ होगा | अब उनकी संख्या भी कम हो गयी है,जिससे उनको भय हो गया है कि कहीं तलहटी में पड़ी फ़ौज पर ही आकर आक्रमण न करदे | प्रधान बीकमसीं ने कहा |
" तलहटी में कुल कितनी फ़ौज होगी |"
"लगभग पच्चीस हजार |"
"फिर भी उनको भय है |"
रावल मूलराज ने एक गहरी नि:श्वास छोड़ी और उनका मुंह उतर गया | उसने छोटे भाई रतनसीं की और देखा,वह भी उदास हो गया था | बीकमसीं और दुसरे दरबारी बड़े असमंजस में पड़े | जहाँ चेहरे पर प्रसन्नता छा जानी चाहिए थी वहां उदासी क्यों ? वर्षों के प्रयत्न के उपरांत विजय मिली थी | हजारों राजपूतों ने अपने प्राण गंवाए थे तब जाकर कहीं शाही सेना हताश होकर लौट जाने को विवश हुई थी | बीकमसीं ने समझा शायद मेरे आशय को रावलजी ठीक से समझे नहीं है इसलिए उसने फिर कहा -
" कितनी कठिनाई से अपने को जीत मिली है | अब तो लौटती हुई फ़ौज पर दिल्ली तक धावे करने का अवसर मिल गया है | हारी हुई फ़ौज में लड़ने का साहस नहीं होता, इसलिए खूब लूट का माल मिल सकता है |"
रावल मूलराज ने बीकमसीं की बात पर कोई ध्यान नहीं दिया और वह और भी उदास होकर बैठ गया | सारे दरबार में सन्नाटा छा गया | रावलजी के इस व्यवहार को रतनसीं के अलावा और कोई नहीं समझ रहा था | बहुत देर से छा रही नि:स्तब्धता को भंग करते हुए अंत में एक और गहरी नि:श्वास छोड़ कर रावल मूलराज ने कहा -
" बड़े रावलजी (रावल जैतसीं) के समय से हमने जो प्रयत्न करना शुरू किया था वह आज जाकर विफल हुआ | शेखजादा को मारा और लुटा, सुल्तान फिरोज का इतना बिगाड़ किया,उसके इलाके को तबाह किया और हजारों राजपूतों को मरवाया पर परिणाम जाकर कुछ नहीं निकला | शाही फ़ौज आई वैसे ही जा रही है | अब सुल्तान फिरोज की फ़ौज ही हार कर जा रही है तब दूसरा तो और कौन है जो हमारे उदेश्य को पूरा कर सके |"

"इस प्रकार शाही फ़ौज का हार कर जाना बहत बुरा है क्योंकि इस आक्रमण में सुल्तान को जन-धन की इतनी अधिक हानि उठानी पड़ी है कि वह भविष्य में यहाँ आक्रमण करने की स्वप्न में भी नहीं सोचेगा |" रतनसीं ने रावल मूलराज की बात का समर्थन करते आगे कहा |
"शाही-फ़ौज के हताश होकर लौटने का एक कारण अपना किला भी है | यह इतना सुदृढ़ और अजेय है कि शत्रु इसे देखते ही निराश हो जाते है | वास्तव में अति बलवान वीर व दुर्ग दोनों ही कुंवारे (अविवाहित) ही रहते है | मेरे तो एक बात ध्यान में आती है ,- क्यों नहीं किले की एक दीवार तुड़वा दी जाये जिससे हताश होकर जा रही शत्रु सेना धावा करने के लिए ठहर जाय |"रावल मूलराज ने प्रश्नभरी मुद्रा से सबकी और देखते हुए कहा |
"मुझे तो एक दूसरा उपाय सुझा है,यदि आज्ञा हो तो कहूँ |" रतनसीं ने अपने बड़े भाई की और देखते हुए कहा |
"हाँ-हाँ जरुर कहो |"
"कमालद्दीन आपका पगड़ी बदल भाई है | उसको किसी के साथ कहलाया जाय कि हम गढ़ के किंवाड़ खोलने को तैयार है,तुम धावा करो | वह आपका आग्रह अवश्य मान लेगा | उसको आपकी प्रतिज्ञा भी बतला दी जाय और विश्वास भी दिलाया जाय कि किसी भी प्रकार का धोखा नहीं है |"
"वह नहीं माना तो |"
" जरुर मान जायेगा | एक तो आपका मित्र है इसलिए आप पर विश्वास कर लेगा और दूसरा हारकर लौटने में उसको कौनसी लाज नहीं आ रही है | वह सुल्तान के पास किस मुंह से जायेगा | इसलिए विजय का लोभ भी उसे रोक देगा |"
" उसे विश्वास कैसे दिलाया जाय कि धोखा नहीं होगा |"
"किले पर लगे हुए झांगर यंत्रों और किंवाड़ों को पहले से तौड़ दिया जाय |"
रावल मूलराज के,रतनसिंह की बताई हुई युक्ति जंच गयी | उसके मुंह पर प्रसन्नता दौड़ती हुई दिखाई दी |

उसी क्षण जैसलमेर दुर्ग पर लगे हुए झांगर यंत्रों के तोड़ने की ध्वनि लोगों ने सुनी | लोगों ने देखा कि किले के किंवाड़ खोल दिए गए थे और दुसरे ही क्षण उन्होंने देखा कि वे तोड़े जा रहे थे | फिर उन्होंने देखा एक घुड़सवार जैसलमेर दुर्ग से निकला और तलहटी में पड़ाव डाले हुए पड़ी,शाही फ़ौज की और जाने लगा | वह दूत-वेश में नि:शस्त्र था | उसके बाएँ हाथ में घोड़े की लगाम और दाएं हाथ में एक पत्र था | लोग इन सब घटनाओं को देख कर आश्चर्य चकित हो रहे थे | झांगर यंत्रों का और किंवाड़ो को तोड़ा जाना और असमय में दूत का शत्रु सेना की ओर जाना विस्मयोत्पादक घटनाएँ थी जिनको समझने का प्रयास सब कर रहे थे पर समझ कोई नहीं रहा था |
कमालदीन ने दूत के हाथ से पत्र लिया | वह अपने डेरे में गया ओर उसे पढने लगा -
" भाई कमालदीन को भाटी मूलराज की जुहार मालूम हो | अप्रंच यहाँ के समाचार भले है | राज के सदा भलें चाहियें | आगे समाचार मालूम हो -
जैसलमेर का इतना बड़ा ओर दृढ किला होने पर भी अभी तक कुंवारा ही बना हुआ है | मेरे पुरखा बड़े बलवान ओर बहादुर थे पर उन्होंने भी किले का कौमार्य नहीं उतारा | जब तक ये किला कुंवारा रहेगा तब तक भाटियों की गौरवगाथा अमर नहीं बनेगी ओर हमारी संतानों को गौरव का ज्ञान नहीं होगा | इसलिए मैं लम्बे समय से सुल्तान फिरोजशाह से शत्रुता करता आ रहा हूँ | उसी शत्रुता के कारण उन्होंने बड़ी फ़ौज जैसलमेर भेजी है पर मुझे बड़ा दुःख हो रहा है कि वह फ़ौज आज हार कर जा रही है | इस फ़ौज के चले के उपरांत मुझे तो भारत में और कोई इतना बलवान दिखाई नहीं पड़ता जो जैसलमेर दुर्ग पर धावा करके इसमें जौहर और शाका करवाए | जब तक पांच राजपूतानियों की जौहर की भस्म और पांच केसरिया वस्त्रधारी राजपूतों का रक्त इसमें नहीं लगेगा तब तक यह किला कुंवारा ही रहेगा |
तुम मेरे पगड़ी बदल भाई और मित्र हो | यह समय है अपने छोटे भाई की प्रतिज्ञा रखने और उसे सहायता पहुँचाने का | इसलिए मेरा निवेदन है कि तुम अपनी फ़ौज को लौटाओ मत और कल सवेरे ही किले पर आक्रमण कर दो ताकि हमें जौहर और शाका करके स्वर्गधाम पहुँचने का अमूल्य अवसर मिले और किले का भी विवाह हो जाये |
मैं तुम्हे वचन देता हूँ कि यहाँ किसी प्रकार का धोखा नहीं होगा | हमने किले के झांगर यंत्र और दरवाजे तुड़वा दिए है सो तुम अपना दूत भेज कर मालूम कर सकते हो |"

कमालदीन ने पत्र को दूसरी बार पढ़ा | उसके चेहरे पर प्रसन्नता छा गयी | धीरे धीरे वह गंभीर और उदासी के रूप में बदल गयी | एक घड़ी तक वह अपने स्थान पर बैठा सोचता रहा | कई प्रकार के संकल्प-विकल्प उसके मष्तिष्क में उठे | अंत में उसने दूत से पूछा -
"किले में कितने सैनिक है ?"
"पच्चीस हजार |"
"पच्चीस हजार ! तब तो रावलजी से जाकर कहना मैं मजबूर हूँ | मेरे साथी लड़ने को तैयार नहीं |"
"संख्या के विषय में मुझे मालुम नहीं | आप अपना दूत मेरे साथ भेज कर मालूम करवा सकते है |" दूत ने बात बदल कर कहा |
एक दूत घुड़सवार के साथ किले की और चल पड़ा | थोड़ी देर पश्चात ऊँटों और बैलगाड़ियों पर लड़ा हुआ सामान उतारा जाने लगा | उखड़ा हुआ पड़ाव फिर कायम होने लगा | शाही फ़ौज के उखड़े पैर फिर जमने लगे |

दशमी की रात्री का चंद्रमा अस्त हुआ | अंधकार अपने टिम-टिम टिमाते हुए तारा रूपी दांतों को निकालकर हँस पड़ा | उसकी हंसी को चुनौती देते हुए एक प्रकाश पुंज जैसलमेर के दुर्ग में दिखाई पड़ा | गढ़ के कंगूरे और उसमे लगे हुए एक एक पत्थर तक दूर से दिखाई पड़ने लगे | एक प्रचंड अग्नि की ज्वाला ऊपर उठी जिसके जिसके साथ हजारों ललनाओं का रक्त आकाश में चढ़ गया | समस्त आकाश रक्त-रंजित शून्याकार में बदल गया | उन ललनाओं का यश भी आकाश की भांति फ़ैल कर विस्मृत और चिरस्थाई हो गया |

सूर्योदय होते ही तीन हजार केसरिया वस्त्रधारी राजपूतों ने कमालदीन की पच्चीस हजार सेना पर आक्रमण कर दिया | घड़ी भर घोर घमासान युद्ध हुआ | जैसलमेर दुर्ग की भूमि और दीवारें रक्त से सन गई | जल की प्यासी भूमि ने रक्तपान करके अपनी तृष्णा को शांत किया | अब शाका भी पूरा हुआ |

आज कोई नहीं कह सकता कि जैसलमेर का दुर्ग कुंवारा है,कोई नहीं कह सकता कि भाटियों ने कोई जौहर शाका नहीं किया,कोई नहीं कह सकता कि वहां की जलहीन भूमि बलिदानहीन है और कोई नहीं कह सकता कि उस पवित्र भूमि की अति पावन रज के स्पर्श से अपवित्र भी पवित्र नहीं हो जाते | जैसलमेर का दुर्ग आज भी स्वाभिमान से अपना मस्तक ऊपर किये हुए सन्देश कह रहा है |यदि किसी में सामर्थ्य हो तो सुन लो और समझ लो वहां जाकर |

अब्दुल कलाम रा मरसिया ....

डॉक्टर अब्दुल कलाम के देहावसान के दिन उनको शब्द पुष्प द्वारा दी गई श्रद्धांजलि आज पुनः प्रेषित है

अब्दुल कलाम रा मरसिया ....

अब्दुल तोड़ी आज दीवारां इण देह री
पूरी कर परवाज. पद परमहंस पावियो

अब्दुल पूगौ आप  अमरापुर रे आँगणे
शोक घणौ संताप नयण नीर मावै नहीं

अब्दुल पूरी आस कथनी करणी एक कर
खुदाबन्द वो खास भगत बड़ौ भगवान रो

अब्दुल तूं आधार भांण भळकतौ भारती
अगनी रौ अवतार साधक सांचो सूरमो

अब्दुल नहीं अनाम. इतिहासां रहसी अमर
कीरत वाळा काम कायम करगौ कोड सूं

अब्दुल वाळी आंण अवरां ने आंणी नहीं
जीवत जुगां प्रमाण भूलै किण विध भारती

रतनसिहं चाँपावत कृत

पचपीर

पचपीर 
    
   

आज से लगभग 30 वर्ष पहले राजस्थान के हर  शहर , नगर ,कस्बे ,गांव व हर ढाणी मे इन पचपीरो की पूजा होती थी ।  राजस्थान की हर जाति का हर व्यक्ति इन पचपीरो की पूजा करता था । लेकीन आज दुसरी जातिया तो पूज रही है , पर बहुत ही दूर्भाग्य की बात , राजपूत पचपीरो को पूजना बन्द करते जा रहे है ।
हर मंगल अवसर पर इन पचपीरो का गीत गाया जाता था । ये गांव को , परीवार
को हर संकट से बचाते है ।
अगर कभी अपने दादोसा , दादीसा ,नानोसा ,नानीसा या किसी गांव के बुजर्ग के पास बैठने का मौका मिले तो  इनके चमत्कार या किस्से पुछना हुकम ।

कौन  है ये  पचपीर  ❓❓❓❓❓
पाबू ,हडबू ,रामदेव ,मांगलियां मेहा ।
पांचो पीर पधारज्यो , गोगीजी जेहा ।।
अर्थात -
हे पाबू जी ,हे हडबू जी , हे रामदेव जी , हे मेहा जी  , हे गोगा जी आप जिस भी स्थिति मे हो हमारे यहा पधारो सा ।
1- पाबूजी - राठौड राजपूत सरदार थे । इनका मुख्य स्थान कोलू ( फलौदी ) मे है ।
2- हडबू जी - आप सांखला राजपूत सरदार थे ।इनका मुख्य स्थान बैहंगटी  (  फलौदी ) के पास है ।
3- रामदेवजी - आप तंवर राजपूत सरदार थे । रूणिचा ( पोकरण) मे इनका मुख्य स्थान है ।
4- मेहाजी - ये सिसोदिया राजपूत सरदार थे ।इनका मुख्य स्थान बापिणी   मे है ।
5- गोगाजी - ये चौहान राजपूत सरदार थे । इनका मुख्य स्थान गोगा मेडी ( हनुमानगढ)  मे है ।
ये पचपीरो का एक छोटा सा परीचय था । क्या देखा परिचय मे ? पांचो पीर  क्षत्रिय ।जिनको हमने पुजना छोड दिया । जो हमारी कदम कदम पर रक्षा करते है । राजपूत पांच बडे बडे तीर्थो पर जाकर आ जाओ या साल मे एक बार इन पचपीरो को धोक दो बराबर है ।
पचपीरो के किसका भोग लगता है ❓
कोई सवामणी नही , कोई सेंसरघट नही , कोई 56 भोग नही ,बर्फी ,लडडू,चुरमा ,पुआ - पुडी -------------- कुछ नही ।  सिर्फ 10 रूपये का खर्चा पांच बांटी और एक मुठठी बांकले । इनही का भोग लगता है और इस भोग से वो खुश है सा ।   
पचपीरो को कब पूजा जाता है ❓❓
पचपीरो की पूजा ज्येष्ठ (जेठ ) माह के शुक्ल पक्ष के पहले ब्रहस्पतिवार या शुक्रवार को पचपीरो को पूजा जाता है ।
पचपीरो की पूजा कैसे होती है ❓❓

हर गांव मे पचपीरो का खेजडा होता है ।खेजडे के नीचे या अलग से चबुतरे के ऊपर इनका थान होता है । चबुतरे पर पांच पत्थर होते है । ये पांचो पत्थर प्रतीक होते है ये रामदेवजी ,पाबूजी ,हडबूजी ,मेहाजी और गोगाजी । इन पांचो पीरो को पवित्र जल से स्नान करवाया जाता है  ।रोली से तिलक करते है ।वस्त्र के रूप मे मोली चढाते है । फिर बांटी और बाकले चढाये जाते है ।न कोई ढोंग , न कोई पाखण्ड , न कोई खर्चा । 
मेरे समाज बन्धुओ  ,मेरा कर बध निवेदन है सा । की अगर हम हमारे समाज का भला चाहते है तो इन पचपीरो को वापिस पूजना प्रारम्भ करे सा ।अपनी संतानो को पचपीरो के बारे मे अधिक से अधिक बताये ।राजपूतो के लिए यह त्यौहार ही नही है ,महा त्यौहार है ।
ओर अधिक जानकारी अपने दादोसा ,दादीसा ,नानोसा ,नानीसा या किसी बुजुर्ग  से ले ।
इन बुद्धिजिवियो और पूंजीपत्तियो की चाल देखो , कोई भी कलेण्डर उठाकर देख लो । राजपूत के अलावा कोई छोटे से छोटा संत है उसकी जयन्ति के बारे मे कलेण्डर मे उल्लेख  है । राजस्थान का बच्चा बच्चा जिन पचपीरो को पूजता था उनका नाम तक कलेण्डर , अखबार मे नही देते है ।क्योकि ये पांचो पीर क्षत्रिय है ।कैसे भी इन पांचो ठाकूरो को जनता भूल जाय । क्योकी इन पण्डो का तो महाभारत काल बाद एक ही काम रह गया , अपने आप को सर्वश्रेष्ठ साबित करना और क्षत्रियो को गया गुजरा साबित करना ।हजारो वर्षो तक इसी काम मे लगे हुए है ।हम पडे पडे उनकी चालो को देख रहे और वो अपनी चालो मे सफल होते जा रहे है । लेकिन हम पडे पडे कब तक देखते रहेगे हुकम , अब हमारी बर्बादी का अन्तिम समय आ गया है सा । अब तो हमको हमारे क्षात्र धर्म , संस्क्रति और इतिहास को बचाना ही पडेगा । अन्यथा पछताने के अलावा हमारे पास कुछ भी नही रहेगा सा ।
मुझे झंनकार पुस्तक की दो पंक्तिया याद आ रही है -----
अब भी क्षत्रिय तुम उठते नही ,आखिर उठ कर करोगे क्या?।
वीरो का जिना जिते नही ,बकरो की मौत मरोगे क्या ?

जय क्षात्र धर्म ।
जय पाबूजी की ।
जय हडबू जी की ।
जय मेहा जी की ।
जय रामदेव जी की ।
जय गोगा जी की ।
⛳जय पचपीरो की ⛳