दुनिया रखे तुझो मान, तुझो नालो शकूरखान बचपन में सरकारी स्कूलों में पढ़ाई कर दौरान स्कूली सांस्कृतिक कार्यक्रमों में एक प्रसिद्ध स्थानीय लोकगीत हम बच्चों द्वारा बहुत चाव से गाया जाता था और ग्रामीण लोगों द्वारा इस लोकगीत को बड़े चाव से सुना जाता था, स्थानीय मंगनीयार कलाकारों के द्वारा भी इस सिंधी मारवाड़ी मिश्रित लोकगीत को महफिलोंमे भी गाया जाता था क्योंकि इस लोकगीत में थर के बहादुर और स्थानीय सिंधी नोहडी जाति के राबिनहुड शकूरिये का दिलेरी और साहसिक कारनामों का वर्णन किया गया है।तब यह लोकगीत इस एरिया के साम्प्रदायिक सौहार्द और हिन्दू मुस्लिम समुदाय के भाईचारा के प्रतीक बने इस लोकगीत को सुनने, सुनाने का शौक था, सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी इस बहादुर नोहडी के साहसिक कार्यो के इस विरूद गायकी को सम्मान से देखा जाता था, तब शायद शकूरिया मुसलमान था यह महत्वपूर्ण नहीं था, उसकी जाति क्या थी, यह महत्वपूर्ण नही था, महत्वपूर्ण था हमारा भाईचारा, महत्वपूर्ण थी शकूरखान की बहादुरी, साहस और सामाजिक सौहार्द, गाने वाले मंगनीयार मुसलमान थे, शकूरखान मुसलमान था, सुनने वाले हिन्दू और मुसलमान दोनों थे, गीत का नायक और गायक मुसलमान थे तो श्रोता दोनों समाजों से थे, गीत बनाने के लिए प्रेरित करने वाले और मुसलमान गायक को ऊंट इनायत करने वाले गिरधरिग जादम(यादव का स्थानीय उच्चारण) भाटी ब्ईया थे, शकूरखान की पैरवी करने वाले और उसको आश्रय देने वाले और उसकी मुकाबले में जान बचाने के बदले लाखों रूपए की कीमत अदा करने का आफर देने वाले इन्दरीग भी भाटी थे, तब शायद धर्म की रिवायतें,मेहमान की रक्षा और उसको आश्रय देना,उसकी जाति और धर्म की परवाह किये बगैर उसकी बहादुरी रूपी धर्म की प्रशंसा में गीत गुलांना (वो भी एक मुस्लिम) इस माडधरा के सपूतों की रीति नीति थे। क्योंकि तब लोकगीत साम्प्रदायिक नहीं थे वैसे माड में अभी भी नहीं है, तब गायक और नायक गैर साम्प्रदायिक थे, सुनना और सुनाना और महफिले साम्प्रदायिक नहीं थी, सब मारवाड़ी थे, गीत और प्रीत मारवाड़ी थी, गायक और नायक मरूवाडि थे, गिरधरिग और शकूरखान मारू के जाईंदै थे,देश बंटा था, पर दिल नहीं बंटा था, जीसा उस पार यानि थारपारकर में जाकर आतिथ्य वो भी एक मुस्लिम नोहडी नायक द्वारा तब, जब देश बदल गये, सीमा रेखा खींच दी गई थी, पर ना जिसा का और शकूरखान का दिल बदला था, इमाम सोलंकी साथ बदला था, जरूर ससुराल बदला था, मेरा ननीहाल बदला था, शकूरखान का हमारा रिश्ता नहीं बदला था, पर शकूरा नही बदला, कई राजपूत सोढा बेटियों के शादी में हर वक्त आतिथय और आश्रय के लिए अपने जान बाजी लगाने वाले शकूरिया की मुकाबले में बसिया की पावन भोम पर मुकाबले में मार दे, हम भाटी उतर भड किवाड़ भाटी सहन कर लेते हैं, कैसे पाप को ओढ लेते, , कैसे संभव था?, उसकी एक बानगी एक स्थानीय लोकगीत के माध्यम से पेश की जा रही ह मैं इस लोकगीत को काफी समय सुन रहा था, आज लगा कि इसको शेयर करू और अतीत के सुनहरे साम्प्रदायिक सौहार्द के प्रतीक एक बहादुर नायक को याद करूं।।।।।
*कोई नही कहेगा कि जेसलमेर का किला कुंवारा है यहः अद्बुद्ध रचना रोंगटे खड़ा करने वाली राजभा गढवी की जुबानी सुनिये ओर शेयर कीजिये*
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बधाई ! बधाई ! तुर्क सेना हार कर जा रही है | गढ़ का घेरा उठाया जा रहा है |" प्रधान बीकमसीं(विक्रमसिंह) ने प्रसन्नतापूर्वक जाकर यह सूचना रावल मूलराज को दे दी |
"घेरा क्यों उठाया जा रहा है ?" रावल ने विस्मयपूर्वक कहा |
कल के धावे ने शाही सेना को हताश कर दिया है | मलिक,केशर और सिराजुद्दीन जैसे योग्य सेनापति तो कल ही मारे गए | अब कपूर मरहठा और कमालद्दीन में बनती नहीं है | कल के धावे में शाही सेना का जितना नाश हुआ उतना शायद पिछले एक वर्ष के सब धावों में नहीं हुआ होगा | अब उनकी संख्या भी कम हो गयी है,जिससे उनको भय हो गया है कि कहीं तलहटी में पड़ी फ़ौज पर ही आकर आक्रमण न करदे | प्रधान बीकमसीं ने कहा |
" तलहटी में कुल कितनी फ़ौज होगी |"
"लगभग पच्चीस हजार |"
"फिर भी उनको भय है |"
रावल मूलराज ने एक गहरी नि:श्वास छोड़ी और उनका मुंह उतर गया | उसने छोटे भाई रतनसीं की और देखा,वह भी उदास हो गया था | बीकमसीं और दुसरे दरबारी बड़े असमंजस में पड़े | जहाँ चेहरे पर प्रसन्नता छा जानी चाहिए थी वहां उदासी क्यों ? वर्षों के प्रयत्न के उपरांत विजय मिली थी | हजारों राजपूतों ने अपने प्राण गंवाए थे तब जाकर कहीं शाही सेना हताश होकर लौट जाने को विवश हुई थी | बीकमसीं ने समझा शायद मेरे आशय को रावलजी ठीक से समझे नहीं है इसलिए उसने फिर कहा -
" कितनी कठिनाई से अपने को जीत मिली है | अब तो लौटती हुई फ़ौज पर दिल्ली तक धावे करने का अवसर मिल गया है | हारी हुई फ़ौज में लड़ने का साहस नहीं होता, इसलिए खूब लूट का माल मिल सकता है |"
रावल मूलराज ने बीकमसीं की बात पर कोई ध्यान नहीं दिया और वह और भी उदास होकर बैठ गया | सारे दरबार में सन्नाटा छा गया | रावलजी के इस व्यवहार को रतनसीं के अलावा और कोई नहीं समझ रहा था | बहुत देर से छा रही नि:स्तब्धता को भंग करते हुए अंत में एक और गहरी नि:श्वास छोड़ कर रावल मूलराज ने कहा -
" बड़े रावलजी (रावल जैतसीं) के समय से हमने जो प्रयत्न करना शुरू किया था वह आज जाकर विफल हुआ | शेखजादा को मारा और लुटा, सुल्तान फिरोज का इतना बिगाड़ किया,उसके इलाके को तबाह किया और हजारों राजपूतों को मरवाया पर परिणाम जाकर कुछ नहीं निकला | शाही फ़ौज आई वैसे ही जा रही है | अब सुल्तान फिरोज की फ़ौज ही हार कर जा रही है तब दूसरा तो और कौन है जो हमारे उदेश्य को पूरा कर सके |"
"इस प्रकार शाही फ़ौज का हार कर जाना बहत बुरा है क्योंकि इस आक्रमण में सुल्तान को जन-धन की इतनी अधिक हानि उठानी पड़ी है कि वह भविष्य में यहाँ आक्रमण करने की स्वप्न में भी नहीं सोचेगा |" रतनसीं ने रावल मूलराज की बात का समर्थन करते आगे कहा |
"शाही-फ़ौज के हताश होकर लौटने का एक कारण अपना किला भी है | यह इतना सुदृढ़ और अजेय है कि शत्रु इसे देखते ही निराश हो जाते है | वास्तव में अति बलवान वीर व दुर्ग दोनों ही कुंवारे (अविवाहित) ही रहते है | मेरे तो एक बात ध्यान में आती है ,- क्यों नहीं किले की एक दीवार तुड़वा दी जाये जिससे हताश होकर जा रही शत्रु सेना धावा करने के लिए ठहर जाय |"रावल मूलराज ने प्रश्नभरी मुद्रा से सबकी और देखते हुए कहा |
"मुझे तो एक दूसरा उपाय सुझा है,यदि आज्ञा हो तो कहूँ |" रतनसीं ने अपने बड़े भाई की और देखते हुए कहा |
"हाँ-हाँ जरुर कहो |"
"कमालद्दीन आपका पगड़ी बदल भाई है | उसको किसी के साथ कहलाया जाय कि हम गढ़ के किंवाड़ खोलने को तैयार है,तुम धावा करो | वह आपका आग्रह अवश्य मान लेगा | उसको आपकी प्रतिज्ञा भी बतला दी जाय और विश्वास भी दिलाया जाय कि किसी भी प्रकार का धोखा नहीं है |"
"वह नहीं माना तो |"
" जरुर मान जायेगा | एक तो आपका मित्र है इसलिए आप पर विश्वास कर लेगा और दूसरा हारकर लौटने में उसको कौनसी लाज नहीं आ रही है | वह सुल्तान के पास किस मुंह से जायेगा | इसलिए विजय का लोभ भी उसे रोक देगा |"
" उसे विश्वास कैसे दिलाया जाय कि धोखा नहीं होगा |"
"किले पर लगे हुए झांगर यंत्रों और किंवाड़ों को पहले से तौड़ दिया जाय |"
रावल मूलराज के,रतनसिंह की बताई हुई युक्ति जंच गयी | उसके मुंह पर प्रसन्नता दौड़ती हुई दिखाई दी |
उसी क्षण जैसलमेर दुर्ग पर लगे हुए झांगर यंत्रों के तोड़ने की ध्वनि लोगों ने सुनी | लोगों ने देखा कि किले के किंवाड़ खोल दिए गए थे और दुसरे ही क्षण उन्होंने देखा कि वे तोड़े जा रहे थे | फिर उन्होंने देखा एक घुड़सवार जैसलमेर दुर्ग से निकला और तलहटी में पड़ाव डाले हुए पड़ी,शाही फ़ौज की और जाने लगा | वह दूत-वेश में नि:शस्त्र था | उसके बाएँ हाथ में घोड़े की लगाम और दाएं हाथ में एक पत्र था | लोग इन सब घटनाओं को देख कर आश्चर्य चकित हो रहे थे | झांगर यंत्रों का और किंवाड़ो को तोड़ा जाना और असमय में दूत का शत्रु सेना की ओर जाना विस्मयोत्पादक घटनाएँ थी जिनको समझने का प्रयास सब कर रहे थे पर समझ कोई नहीं रहा था |
कमालदीन ने दूत के हाथ से पत्र लिया | वह अपने डेरे में गया ओर उसे पढने लगा -
" भाई कमालदीन को भाटी मूलराज की जुहार मालूम हो | अप्रंच यहाँ के समाचार भले है | राज के सदा भलें चाहियें | आगे समाचार मालूम हो -
जैसलमेर का इतना बड़ा ओर दृढ किला होने पर भी अभी तक कुंवारा ही बना हुआ है | मेरे पुरखा बड़े बलवान ओर बहादुर थे पर उन्होंने भी किले का कौमार्य नहीं उतारा | जब तक ये किला कुंवारा रहेगा तब तक भाटियों की गौरवगाथा अमर नहीं बनेगी ओर हमारी संतानों को गौरव का ज्ञान नहीं होगा | इसलिए मैं लम्बे समय से सुल्तान फिरोजशाह से शत्रुता करता आ रहा हूँ | उसी शत्रुता के कारण उन्होंने बड़ी फ़ौज जैसलमेर भेजी है पर मुझे बड़ा दुःख हो रहा है कि वह फ़ौज आज हार कर जा रही है | इस फ़ौज के चले के उपरांत मुझे तो भारत में और कोई इतना बलवान दिखाई नहीं पड़ता जो जैसलमेर दुर्ग पर धावा करके इसमें जौहर और शाका करवाए | जब तक पांच राजपूतानियों की जौहर की भस्म और पांच केसरिया वस्त्रधारी राजपूतों का रक्त इसमें नहीं लगेगा तब तक यह किला कुंवारा ही रहेगा |
तुम मेरे पगड़ी बदल भाई और मित्र हो | यह समय है अपने छोटे भाई की प्रतिज्ञा रखने और उसे सहायता पहुँचाने का | इसलिए मेरा निवेदन है कि तुम अपनी फ़ौज को लौटाओ मत और कल सवेरे ही किले पर आक्रमण कर दो ताकि हमें जौहर और शाका करके स्वर्गधाम पहुँचने का अमूल्य अवसर मिले और किले का भी विवाह हो जाये |
मैं तुम्हे वचन देता हूँ कि यहाँ किसी प्रकार का धोखा नहीं होगा | हमने किले के झांगर यंत्र और दरवाजे तुड़वा दिए है सो तुम अपना दूत भेज कर मालूम कर सकते हो |"
कमालदीन ने पत्र को दूसरी बार पढ़ा | उसके चेहरे पर प्रसन्नता छा गयी | धीरे धीरे वह गंभीर और उदासी के रूप में बदल गयी | एक घड़ी तक वह अपने स्थान पर बैठा सोचता रहा | कई प्रकार के संकल्प-विकल्प उसके मष्तिष्क में उठे | अंत में उसने दूत से पूछा -
"किले में कितने सैनिक है ?"
"पच्चीस हजार |"
"पच्चीस हजार ! तब तो रावलजी से जाकर कहना मैं मजबूर हूँ | मेरे साथी लड़ने को तैयार नहीं |"
"संख्या के विषय में मुझे मालुम नहीं | आप अपना दूत मेरे साथ भेज कर मालूम करवा सकते है |" दूत ने बात बदल कर कहा |
एक दूत घुड़सवार के साथ किले की और चल पड़ा | थोड़ी देर पश्चात ऊँटों और बैलगाड़ियों पर लड़ा हुआ सामान उतारा जाने लगा | उखड़ा हुआ पड़ाव फिर कायम होने लगा | शाही फ़ौज के उखड़े पैर फिर जमने लगे |
दशमी की रात्री का चंद्रमा अस्त हुआ | अंधकार अपने टिम-टिम टिमाते हुए तारा रूपी दांतों को निकालकर हँस पड़ा | उसकी हंसी को चुनौती देते हुए एक प्रकाश पुंज जैसलमेर के दुर्ग में दिखाई पड़ा | गढ़ के कंगूरे और उसमे लगे हुए एक एक पत्थर तक दूर से दिखाई पड़ने लगे | एक प्रचंड अग्नि की ज्वाला ऊपर उठी जिसके जिसके साथ हजारों ललनाओं का रक्त आकाश में चढ़ गया | समस्त आकाश रक्त-रंजित शून्याकार में बदल गया | उन ललनाओं का यश भी आकाश की भांति फ़ैल कर विस्मृत और चिरस्थाई हो गया |
सूर्योदय होते ही तीन हजार केसरिया वस्त्रधारी राजपूतों ने कमालदीन की पच्चीस हजार सेना पर आक्रमण कर दिया | घड़ी भर घोर घमासान युद्ध हुआ | जैसलमेर दुर्ग की भूमि और दीवारें रक्त से सन गई | जल की प्यासी भूमि ने रक्तपान करके अपनी तृष्णा को शांत किया | अब शाका भी पूरा हुआ |
आज कोई नहीं कह सकता कि जैसलमेर का दुर्ग कुंवारा है,कोई नहीं कह सकता कि भाटियों ने कोई जौहर शाका नहीं किया,कोई नहीं कह सकता कि वहां की जलहीन भूमि बलिदानहीन है और कोई नहीं कह सकता कि उस पवित्र भूमि की अति पावन रज के स्पर्श से अपवित्र भी पवित्र नहीं हो जाते | जैसलमेर का दुर्ग आज भी स्वाभिमान से अपना मस्तक ऊपर किये हुए सन्देश कह रहा है |यदि किसी में सामर्थ्य हो तो सुन लो और समझ लो वहां जाकर |
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