बुधवार, 17 फ़रवरी 2021

दाल-बाटी का अविष्कारक्यों, कहाँ, कब और कैसे हुआ ?

जानते हैं, दाल-बाटी का अविष्कार

क्यों, कहाँ, कब और कैसे हुआ ?

बाटी मूलत: राजस्थान का पारंपरिक व्यंजन हैै। इसका इतिहास करीब 1300 साल पुराना है। 8 वीं सदी में राजस्थान में बप्पा रावल ने मेवाड़ राजवंश की शुरुआत की। बप्पा रावल को मेवाड़ राजवंश का संस्थापक भी कहा जाता है। इस समय राजपूत सरदार अपने राज्यों का विस्तार कर रहे थे। इसके लिए युद्ध भी होते थे। 

इस दौरान ही बाटी बनने की शुरुआत हुई, दरअसल युद्ध के समय हजारों सैनिकों के लिए भोजन का प्रबंध करना चुनौतीपूर्ण काम होता था। कई बार सैनिक भूखे ही रह जाते थे। ऐसे ही एक बार एक सैनिक ने सुबह रोटी के लिए आटा गूंथा, लेकिन रोटी बनने से पहले युद्ध की घड़ी आ गई और सैनिक आटे की लोइयां रेगिस्तान की तपती रेत पर छोड़कर रणभूमि में चले गए। शाम को जब वे लौटे तो लोइयां गर्म रेत में दब चुकी थीं, जब उन्हें रेत से बाहर से निकाला तो दिनभर सूर्य और रेत की तपन से वे पूरी तरह सिंक चुकी थी। थककर चूर हो चुके सैनिकों ने इसे खाकर देखा तो यह बहुत स्वादिष्ट लगी। इसे पूरी सेना ने आपस में बांटकर खाया। बस यहीं इसका अविष्कार हुआ और नाम मिला बाटी।

इसके बाद बाटी युद्ध के दौरान खाया जाने वाला पसंदीदा भोजन बन गया। अब रोज सुबह सैनिक आटे की गोलियां बनाकर रेत में दबाकर चले जाते और शाम को लौटकर उन्हें चटनी, अचार और रणभूमि में उपलब्ध ऊंटनी व बकरी के दूध एवं दही के साथ खाते। इस भोजन से उन्हें ऊर्जा भी मिलती और समय भी बचता। इसके बाद धीरे-धीरे यह पकवान पूरे राज्य में प्रसिद्ध हो गया और यह कंडों पर बनने लगा।

अकबर के राजस्थान में आने की वजह से बाटी मुगल साम्राज्य तक भी पहुंच गई। मुगल खानसामे बाटी को बाफकर (उबालकर) बनाने लगे, इसे नाम दिया बाफला। इसके बाद यह पकवान देशभर में प्रसिद्ध हुआ और आज भी है और कई तरीकों से बनाया जाता है।

अब बात करते हैं दाल की

दक्षिण के कुछ व्यापारी मेवाड़ में रहने आए तो उन्होंने बाटी को दाल के साथ चूरकर खाना शुरू किया। यह जायका प्रसिद्ध  हो गया और आज भी दाल-बाटी का गठजोड़ बना हुआ है। उस दौरान पंचमेर दाल खाई जाती थी। यह पांच तरह की दाल चना, मूंग, उड़द, तुअर और मसूर से मिलकर बनाई जाती थी। इसमें सरसो के तेल या घी में तेज मसालों का तड़का होता था।

अब चूरमा की बारी आती है।

 यह मीठा पकवान अनजाने में ही बन गया। दरअसल एक बार मेवाड़ के गुहिलोत कबीले के रसोइये के हाथ से छूटकर बाटियां गन्ने के रस में गिर गई। इससे बाटी नरम हो गई और स्वादिष्ट भी। इसके बाद से इसे गन्ने के रस में डुबोकर बनाया जाना लगा। मिश्री, इलायची और ढेर सारा घी भी इसमें डलने लगा। बाटी को चूरकर बनाने के कारण इसका नाम चूरमा पडा

शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2020

Show off

हम मारवाड़ी show off नही करते 


वरना 

ये यूरोपीय लोगों के नामकरण भी हमारे राजस्थानी नामों पर ही आधारित है, जैसे

जॉन राइट = सहीराम
रॉबर्ट ब्राउन = भूराराम
कैल्विन ब्लैक = कालूराम
मारिया रोज = गुलाब देवी

Proud मारवाड़ी                                          

रविवार, 4 अक्तूबर 2020

मारवाड़ी भाषा रो आणंद :

मारवाड़ी भाषा रो आणंद :-

भाईचारो मरतो दीखे,
पईसां लारे गेला होग्या।

घर सुं भाग गुरुजी बणग्या,
चोर उचक्का चेला होग्या।

चंदो खार कार में घुमे,
भगत मोकळा भेळा होग्या।

कम्प्यूटर रो आयो जमानो,
पढ़ लिख ढ़ोलीघोड़ा होग्या।

पढ़ी-लिखी लुगायां ल्याया
काम करण रा फोङा होग्या ।

घर-घर गाड़ी-घोड़ा होग्या,
जेब-जेब मोबाईल होग्या।

छोरयां तो होती आई पण
आज पराया छोरा होग्या।

राल्यां तो उधड़बा लागी,
न्यारा-न्यारा डोरा होग्या।

इतिहासां में गयो घूंघटो,
पाऊडर पुतिया मूंडा होग्या।

झरोखां री जाल्यां टूटी, 
म्हेल पुराणां ढूंढा होग्या।

भारी-भारी बस्ता होग्या,
टाबर टींगर हळका होग्या।

मोठ बाजरी ने कुण पूछे,
पतळा-पतळा फलका होग्या।

रूंख भाडकर ठूंठ लेग्या
जंगळ सब मैदान होग्या।

नाडी नदियां री छाती पर
बंगला आलीशान होग्या।

मायड़ भाषा ने भूलग्या,
अंगरेजी का दास होग्या।

पूण कका रा आवे कोनी,
ऐमे बी.ए. पास होग्या।

सत संगत व्यापार होग्यो,
बिकाऊ ए भगवान होग्या।

आदमी रा नाम बदलता आया,
देवी देवता रा नाम बदलग्या।

भगवा भेष ब्याज रो धंधो,
धरम बेच धनवान होग्या।

ओल्ड बोल्ड मां बाप होग्या,
सासु सुसरा चौखा होग्या।

सेवा रा सपनां देख्या पण
आंख खुली तो धोखा होग्या।

बिना मूँछ रा मरद होग्या,
लुगायां रा राज होग्या।

दूध बेचकर दारू ल्यावे,
बरबादी रा साज होयग्या।

तीजे दिन तलाक होयग्यों,
लाडो लाडी न्यारा होग्या।

कांकण डोरां खुलियां पेली,
परण्या बींद कंवारा होग्या।

बिना रूत रा बेंगण होग्या,
सियाळा में आम्बा होग्या।

इंजेक्शन सूं गोळ तरबूज,
फूल-फूल कर लम्बा होग्या।

दिवलो करे उजास जगत में,
खुद रे तळे अंधेरा होग्या।

मन मरजीरा भाव होग्या,
पंसेरी रा पाव होग्या ।

 

शुक्रवार, 29 मई 2020

जचे ही कोनी

कविता

बाणियो 'व्यापार' बिना,
दुल्हन 'सिणगार' बिना,
बिन्द 'बारात'  बिना,
चौमासो 'बरसात' बिना.....जचे ही कोनी।

जोधपुर 'बापजी' बिना 
कार्यवाही 'कागजी' बिना 
राजपुत 'पाग' बिना 
रोटी 'साग' बिना.....जचे ही कोनी !

बाग 'माळी' बिना,
जीमणो 'थाळी' बिना,
कविता 'छंद' बिना,
पुष्प 'सुगन्ध' बिना.....जचे ही कोनी।

मन्दिर 'शंख' बिना,
मोरियो 'पंख' बिना,
घोड़ो 'चाल' बिना,
गीत 'सुर-ताल' बिना.....जचे ही कोनी।

मर्द 'मूँछ' बिना,
जिनावर 'पूँछ' बिना,
ब्राह्मण 'चोटी' बिना,
पहलवान 'लंगोटी' बिना.....जचे ही कोनी।

रोटी 'भूख' बिना 
 खेत 'रूंख' बिना,
चक्कु 'धार' बिना,
पापड़ 'खार' बिना.....जचे ही कोनी।

घर 'लुगाई' बिना,
सावण 'पुरवाई' बिना,
हिण्डो 'बाग' बिना,
शिवजी 'नाग' बिना.....जचे ही कोनी।

कूवो 'पाणी' बिना,
तेली 'घाणी' बिना,
नारी 'लाज' बिना,
संगीत 'साज' बिना.....जचे ही कोनी।

इत्र 'महक' बिना,
पंछी 'चहक' बिना,
मिनख 'परिवार' बिना,
टाबर 'संस्कार' बिना.....जचे ही कोनी।

बीमारी 'दवाई' बिना
बगार 'राई' बिना 
जापो 'दाई' बिना
न्युतो 'नाई' बिना ... जचे ही कोनी !

सियाळो 'राली' बिना 
पीळो 'पाली' बिना 
गोविन्द 'सम्भली' बिना 
होठ 'लाली' बिना....जचे ही कोनी !

गरबा 'रास' बिना 
बंगलो 'घास' बिना 
खेल 'तास' बिना 
गाइड 'इतिहास' बिना....जचे ही कोनी !

लॉकडाउन में 'हाथ' मिलाणो 
मिनखां नें 'जात' पूछणो 
बिन मतलब 'बात' काटणो 
परभाती 'रात' में गावणो...जचे ही कोनी !

डॉ.शक्तिसिंह 'खाखड़की'

शनिवार, 9 मई 2020

हरे घास री रोटी ही

हरे घास री रोटी ही, जद बन बिलावडो ले भाग्यो |
नान्हों सो अमरयो चीख पड्यो,राणा रो सोयो दुःख जाग्यो ||

हूं लड्यो घणो, हूं सह्यो घणो, मेवाड़ी मान बचावण नै |
में पाछ नहीं राखी रण में, बैरया रो खून बहावण नै ||

जब याद करूं हल्दीघाटी, नैणा में रगत उतर आवै |
सुख दुख रो साथी चेतकड़ो, सूती सी हूक जगा जावै ||

पण आज बिलखतो देखूं हूं, जद राजकंवर नै रोटी नै |
तो क्षात्र धर्म नें भूलूं हूं, भूलूं हिन्दवाणी चोटी नै ||

आ सोच हुई दो टूक तड़क, राणा री भीम बजर छाती |
आंख्यां में आंसू भर बोल्यो, हूं लिखस्यूं अकबर नै पाती ||

राणा रो कागद बांच हुयो, अकबर रो सपणो सो सांचो |
पण नैण करया बिसवास नहीं,जद बांच बांच नै फिर बांच्यो ||
बस दूत इसारो पा भाज्यो, पीथल ने तुरत बुलावण नै |
किरणा रो पीथल आ पूग्यो, अकबर रो भरम मिटावण नै ||
म्हे बांध लिये है पीथल ! सुण पिजंरा में जंगली सेर पकड़ |
यो देख हाथ रो कागद है, तू देखां फिरसी कियां अकड ||

हूं आज पातस्या धरती रो, मेवाडी पाग पगां में है |
अब बता मनै किण रजवट नै, रजपूती खूण रगां में है ||

जद पीथल कागद ले देखी, राणा री सागी सैनांणी |
नीचै सूं धरती खिसक गयी, आंख्यों में भर आयो पाणी ||

पण फेर कही तत्काल संभल, आ बात सफा ही झूठी हैं |
राणा री पाग सदा उंची, राणा री आन अटूटी है ||

ज्यो हुकुम होय तो लिख पूछूं, राणा नै कागद रै खातर |
लै पूछ भला ही पीथल तू ! आ बात सही बोल्यो अकबर ||

म्हें आज सूणी है नाहरियो, स्याला रै सागै सोवैलो |
म्हें आज सूणी है सूरजड़ो, बादल री ओटां खोवैलो ||

पीथल रा आखर पढ़ता ही, राणा री आंख्या लाल हुई |
धिक्कार मनैं में कायर हूं, नाहर री एक दकाल हुई ||

हूं भूखं मरुं हूं प्यास मरूं, मेवाड धरा आजाद रहैं |
हूं घोर उजाडा में भटकूं, पण मन में मां री याद रहै||

पीथल के खिमता बादल री, जो रोकै सूर उगाली नै |
सिहां री हाथल सह लैवे, वा कूंख मिली कद स्याली नै ||

जद राणा रो संदेस गयो, पीथल री छाती दूणी ही |
हिंदवाणो सूरज चमके हो, अकबर री दुनिया सुनी ही ||

रविवार, 3 मई 2020

राजपूत राजवंश : राजपूतों की उत्पत्ति संबंधि विविध मत


हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद से लेकर 12 वी. शता. तक का काल उत्तर भारत के इतिहास में सामान्यतः राजपूत-काल के नाम से जाना जाता है। 7वी., 8वी. शती से हमें राजपूतों का उदय दिखाई देने लगता है, तथा 12 वी. शती तक आते-आते उत्तर भारत में उनके 36 कुल अत्यंत प्रसिद्ध हो जाते हैं। राजपूत बड़े ही वीर तथा स्वाभिमानी होते थे और साहस, त्याग, देश-भक्ति आदि के गुण उनमें कूट-कूटकर भरे हुये थे। परंतु पारस्परिक संघर्ष तथा द्वेष-भाव के कारण वे देश की रक्षा नहीं कर सके तथा देश की स्वाधीनता को उन्होंने विदेशियों के हाथों में सौंप दिया।

राजपूतों की उत्पत्ति संबंधित मत
राजपूत शब्द संस्कृत के राजपुत्र का ही विस्तृत रूप है। राजपुत्र शब्द का प्रयोग, जो पहले राजकुमार के अर्थ में किया जाता था, पूर्व मध्यकाल में सैनिक वर्गों तथा छोटे-2 जमींदारों के लिये किया जाने लगा। 8 वी. शती.केबाद राजपूत शब्द शासक वर्ग का पर्याय बन जाता है। इस वर्ग की उत्पत्ति का प्रश्न विद्वानों के बीच विवाद का विषय बना हुआ है। प्रमुख रूप से दो राजपूतों की उत्पत्ति से संबंधित दो मत दिये जाते हैं, जो निम्नलिखित हैं-

राजपूतों की विदेशी उत्पत्ति का मत

राजपूतों की विदेशी उत्पत्ति से संबंधित मत सर्वप्रथम कर्नल जेम्स टॉड ने दिया था। कर्नल जेम्स टॉड के अनुसार राजपूत विदेशी सीथियन जाति की संतान थे। इस मत के अनुसार राजूतों की कुछ सामाजिक तथा धार्मिक प्रथाओं में समानता है, जो इस प्रकार हैं-

यज्ञों का प्रचलन।
रथों द्वारा युद्ध करना।
मांसाहार का प्रचलन।
रहन-सहन तथा वेश-भूषा में समानता।

इन प्रथाओं का प्रचलन सीथियन तथा राजपूत दोनों ही समाजों में था, अतः इस आधार पर कर्नल टॉड राजपूतों को सीथियन जाति का वंशज मानते हैं। इस मत का समर्थन विलियम क्रुक ने भी किया है।

ब्राह्मणों का बौद्ध आदि नास्तिक जातियों से द्वेष था। अतः उन्होंने कुछ विदेशी जातियों को शुद्धि-संस्कार द्वारा पवित्र करके भारतीय वर्ण-व्यवस्था में स्थान प्रदान कर दिया। इन्हीं को राजपूत कहा जाने लगा।

स्मिथ के अनुसार उत्तर-पश्चिम की राजपूत जातियों – प्रतिहार, चौहान, परमार, चालुक्य आदि की उत्पत्ति शकों तथा हूणों से हयी थी। इसी प्रकार गहङवाल, चंदेल, राष्ट्रकूट आदि मध्य तथा दक्षिणी क्षेत्र की जातियाँ गोंड, भर जैसी देशी आदिम जातियों की संतान थी। स्मिथ की धारणा है कि शक-कुषाण आदि विदेशी जातियों ने हिन्दू धर्म ग्रहण कर लिया। वे कालांतर में भारतीय समाज में पूर्णतया घुल-मिल गयी। उन्होंने यहाँ की संस्कृति को अपना लिया। इन विदेशी शासकों को भारतीय समाज में क्षत्रियत्व का पद प्रदान कर दिया गया। मनुस्मृति में शकों को वात्य – क्षत्रिय कहा गया है।

डा.भंडारकर ने भी विदेशी उत्पत्ति के मत का समर्थन किया है। उनके अनुसार अग्निकुल के चार राजपूत वंश – प्रतिहार, परमार, चौहान तथा सोलंकी – गुर्जर नामक विदेशी जाति से उत्पन्न हुये थे। चौहान तथा गुहिलोत जैसे कुछ वंश विदेशी जातियों के पुरोहित थे। उन्होंने आगे बताया है,कि गुर्जर-प्रतिहार वंश के लोग खजर नामक जाति की संतान थे, जो हूणों के साथ भारत में आयी थी। पुराणों में हैहय नामक राजपूत जाति का उल्लेख शक, यवन आदि विदेशी जातियों के साथ किया गया है।

इस मत से यह प्रतीत होता है, कि इन विदेशी जातियों को शुद्धि द्वारा भारतीय समाज में सम्मिलित करने के उद्देश्य से ही पृथ्वीराजरासों में अग्निकुण्ड द्वारा राजपूतों की उत्पत्ति बताई गयी है।

वशिष्ठ ऋषि ने आबू पर्वत पर एक यज्ञ किया जहाँ यज्ञ की अग्निकुंड में चार राजपूत कुलों का उद्भव हुआ- परमार, प्रतिहार,चौहान तथा चालुक्य।

इस मत से यह प्रतिपादित होता है, कि भारतीय वर्ण व्यवस्थाकारों ने विदेशी जातियों को शुद्धि द्वारा भारतीय वर्ण-व्यवस्था के अंतर्गत स्थान प्रदान कर दिया था।

भारतीय उत्पत्ति का मत
राजपूतों की उत्पत्ति के विदेशी सिद्धांत का विरोध करने वाले विद्वानों में प्रमुख विद्वान हैं – गौरी शंकर, हीराचंद्र ओझा तथा सी.वी.वैद्य। इन विद्वानों के अनुसार राजपूत विशुद्ध भारतीय क्षत्रियों की ही संतान थे, जिनमें विदेशी रक्त का मिश्रण बिल्कुल भी नहीं था। इन विद्वानों के प्रमुख तर्क इस प्रकार हैं-

टॉड ने राजपूत तथा सीथियन जातियों में जिन समान प्रथाओं का संकेत किया है, वह कल्पना पर आधारित है। ये सभी प्रथायें भारत की प्राचीन क्षत्रिय जाति में देखी जा सकती हैं।
क्रुक के निष्कर्ष की पुष्टि किसी भी ऐतिहासिक साक्ष्य से नहीं होती है। यह विचार कोरी कल्पना की उपज है।

इस बात का कोई प्रमाण नहीं है, कि खजर नामक किसी जाति ने कभी भी भारत के ऊपर आक्रमण किया हो। भारतीय अथवा विदेशी किसी भी साक्ष्य में इस जाति का उल्लेख नहीं मिलता है।
पृथ्वीराजरासो में वर्णित अग्निकुल की कथा ऐतिहासिक नहीं लगती। इस कथा का उल्लेख रासो की प्राचीन पाण्डुलिपियों में नहीं मिलता है।

निष्कर्ष

इस प्रकार विदेशी उत्पत्ति का मत कल्पना पर आधारित है, ठोस तथ्यों पर कम। राजपूत शब्द वस्तुतः राजपुत्र का ही अपभ्रंश है, जिसका प्रयोग भारतीय ग्रंथों में क्षत्रिय जाति के लिये हुआ है। पाणिनि की अष्टाध्यायी में राजपुत्र शब्द का प्रयोग राजन्य अथवा रक्षक के रूप में हुआ। महाभारत में विभिन्न प्रकार के अस्र-शस्र चलाने वाले को राजपूत कहा गया है। 8 वी. शता. के लेखक भवभूति ने कौशल्या को राजपुत्री कहा है।

उत्तरमध्यकालीन साहित्य में भी राजपुत्र शब्द का प्रयोग क्षत्रिय जाति के लिये ही किया गया है। कल्हण की राजतरंगिणी में शाही परिवारों के उत्तराधिकारी को राजपुत्र की संज्ञा प्रदान की गयी है। ऐसा प्रतीत होता है, कि तुर्कों द्वारा पराजित हो जाने के बाद राजपुत्रों की राजनैतिक प्रतिष्ठा समाप्त हो गयी तथा तुर्कों ने अपमानस्वरूप उन्हें राजपूत कहना प्रारंभ कर दिया। कालांतर में यही नाम लोकप्रचलित हो गया।अतः इन विद्वानों के अनुसार राजपूतों को वैदिक क्षत्रियों की संतान मानना चाहिये।

ओझा ने राजपूतों को विशुद्ध क्षत्रिय सिद्ध करने के लिये मनुस्मृति से उदाहरण प्रस्तुत किया है। इसमें एक स्थान पर विवरण मिलता है, कि पौण्ड्रक, चोल,द्रविङ, यवन, शक, पारद, पहल्लव, चीन मूलतः क्षत्रिय थे, किन्तु वैदिक क्रियाओं के त्याग से तथा ब्राह्मणों से विमुख हो जाने के कारण उनका क्षत्रियत्व समाप्त हो गया। इससे स्पष्ट है कि शक-यवन जिन्हें राजपूतों का जनक बताया जाता है, क्षत्रिय ही थे।

प्राचीन क्षत्रिय वर्ण के शासक तथा योद्धा वर्ग के लोग ही 12 वी. शता.में राजपूत कहे गये। यदि वे विदेशी होते तो भारतीय संस्कृति एवं भारत देश के प्रति उनमें इतनी अधिक भक्ति कदापि नहीं हो सकती।

परंतु ये दोनों ही मत अतिवादी हैं। वस्तुस्थिति तो यह है, कि भारतीय वर्ण-व्यवस्था में सदा ही विदेशी जातियों के लिये स्थान दिया गया। यहाँ कोई भी जाति ऐसी नहीं थी, जिसमें विदेशी रक्त का मिश्रण न हो। कई विदेशियों ने भारतीय वंशों में वैवाहिक संबंध स्थापित किये। सातवाहन तथा ईक्ष्वाकु शासकों ने पश्चिमी क्षत्रपों की कन्याओं के साथ विवाह किये, जिसके अभिलेखीय प्रमाण मिलते हैं। इससे प्रतीत होता है, कि प्राचीन वर्ण-व्यवस्था पर्याप्त लचीली थी। वैदिक काल में क्षत्रियों का कोई विशिष्ट वर्ण नहीं था, अपितु उन लोगों को ही क्षत्रिय कहा गया जो वीर तथा साहसी होते थे। स्वयं क्षत्रिय शब्द का अर्थ है, क्षत् अर्थात् हानि से रक्षा करने वाला। अतः कहा जा सकता है, कि यद्यपि राजपूत क्षत्रियों के वंशज थे, तथापि उनमें विदेशी रक्त का मिश्रण अवश्य था। वैदिक क्षत्रियों में विदेशी जाति के वीरों के मिश्रण से जिस नवीन जाति का आविर्भाव हुआ, उसे ही राजपूत कहा गया। राजपूत न तो पूर्णरूप से विदेशी थे और न ही पूर्णरूप से भारतीय थे।

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राजपूतोँ के वंश

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"दस रवि से दस चन्द्र से बारह ऋषिज प्रमाण, 
चार हुतासन सों भये कुल छत्तिस वंश प्रमाण,
 भौमवंश से धाकरे टांक नाग उनमान, 
चौहानी चौबीस बंटि कुल बासठ वंश प्रमाण."
क्षत्रिय- राजपूत के गोत्र और उनकी वंशावली 
अर्थ: -दस सूर्य वंशीय क्षत्रिय दस चन्द्र वंशीय, बारह ऋषि वंशी एवं चार अग्नि वंशीय कुल छत्तीस क्षत्रिय वंशों का प्रमाण है, बाद में भौमवंश नागवंश क्षत्रियों को सामने करने के बाद जब चौहान वंश चौबीस अलग-अलग वंशों में जाने लगा तब क्षत्रियों के बासठ अंशों का प्रमाणमिलता है।


सूर्य वंश की शाखायें:-
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1. कछवाह, 2. राठौड, 3. बडगूजर, 4. सिकरवार, 5. सिसोदिया , 6. गहलोत, 7. गौर, 8. गहलबार, 9. रेकबार, 10. जुनने, 11. बैस, 12 रघुवंशी
चन्द्र वंश की शाखायें:-
---------------------------
1. जादौन, 2. भाटी, 3. तोमर, 4. चन्देल, 5. छोंकर, 6. होंड, 7. पुण्डीर, 8. कटैरिया, 9. दहिया,


अग्नि वंश की चार शाखायें:-
----------------------------
1. चौहान, 2. सोलंकी, 3. परिहार, 4. पमार


ऋषि वंश की बारह शाखायें:-
----------------------------
1. सेंगर, 2. दीक्षित, 3. दायमा, 4. गौतम, 5. अनवार (राजा जनक के वंशज), 6. विसेन, 7. करछुल, 8. हय, 9. अबकू तबकू, 10. कठोक्स, 11. द्लेला 12. बुन्देला


चौहान वंश की चौबीस शाखायें:-
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1. हाडा, 2. खींची, 3. सोनीगारा, 4. पाविया, 5. पुरबिया, 6. संचौरा, 7. मेलवाल, 8. भदौरिया, 9. निर्वाण, 10. मलानी, 11. धुरा, 12. मडरेवा, 13. सनीखेची, 14. वारेछा, 15. पसेरिया, 16. बालेछा, 17. रूसिया, 18. चांदा, 19. निकूम, 20. भावर, 21. छछेरिया, 22. उजवानिया, 23. देवडा, 24. बनकर

यदु वंश
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रघु वंश
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रघुवंशी का अर्थ है रघु के वंशज। अयोध्या (कोसल देश) के सूर्यवंशी राजा इक्ष्वाकु के वंश में राजा रघु हुये। राजा रघु एक महान राजा थे। इनके नाम पर इस वंश का नाम रघुवंश पड़ा तथा इस वंश के वंशजों को रघुवंशी कहा जाने लगा। बौद्ध काल तक रघुवंशियों को इक्ष्वाकु, रघुवंशी तथा सूर्यवंशी क्षत्रिय कहा जाता था। जो सूर्यवंश, इक्ष्वाकु वंश, ककुत्स्थ वंश व रघुवंश नाम से जाना जाता है। आदिकाल में ब्रह्मा जी ने भगवान सूर्य के पुत्र वैवस्वत मनु को पृथ्वी का प्रथम राजा बनाया था। भगवान सूर्य के पुत्र होने के कारण मनु जी सूर्यवंशी कहलाये तथा इनसे चला यह वंश सूर्यवंश कहलाया। अयोध्या के सूर्यवंश में आगे चल कर प्रतापी राजा रघु हुये। राजा रघु से यह वंश रघुवंश कहलाया। इस वंश मे इक्ष्वाकु, ककुत्स्थ, हरिश्चंद्र, मांधाता, सगर, भगीरथ, अंबरीष, दिलीप, रघु, दशरथ, राम जैसे प्रतापी राजा हुये हैं।

नाग वंश
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राजपूत नाम, गोत्र , वंश, स्थान और जिला की सूची
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क्रमांक नाम गोत्र वंश स्थान और जिला
1. सूर्यवंशी भारद्वाज सूर्य बुलन्दशहर आगरा मेरठ अलीगढ
2. गहलोत बैजवापेण सूर्य मथुरा कानपुर और पूर्वी जिले
3. सिसोदिया बैजवापेड सूर्य महाराणा उदयपुर स्टेट
4. कछवाहा मानव सूर्य महाराजा जयपुर और ग्वालियर राज्य
5. राठोड कश्यप सूर्य जोधपुर बीकानेर और पूर्व और मालवा
6. सोमवंशी अत्रय चन्द प्रतापगढ और जिला हरदोई
7. यदुवंशी अत्रय चन्द राजकरौली राजपूताने में
8. भाटी अत्रय जादौन महारजा जैसलमेर राजपूताना
9. जाडेचा अत्रय यदुवंशी महाराजा कच्छ भुज
10. जादवा अत्रय जादौन शाखा अवा. कोटला ऊमरगढ आगरा
11. तोमर व्याघ्र चन्द पाटन के राव तंवरघार जिला ग्वालियर
12. कटियार व्याघ्र तोंवर धरमपुर का राज और हरदोई
13. पालीवार व्याघ्र तोंवर गोरखपुर
14. परिहार कौशल्य अग्नि इतिहास में जानना चाहिये
15. तखी कौशल्य परिहार पंजाब कांगडा जालंधर जम्मू में
16. पंवार वशिष्ठ अग्नि मालवा मेवाड धौलपुर पूर्व मे बलिया
17. सोलंकी भारद्वाज अग्नि राजपूताना मालवा सोरों जिला एटा
18. चौहान वत्स अग्नि राजपूताना पूर्व और सर्वत्र
19. हाडा वत्स चौहान कोटा बूंदी और हाडौती देश
20. खींची वत्स चौहान खींचीवाडा मालवा ग्वालियर
21. भदौरिया वत्स चौहान नौगंवां पारना आगरा इटावा गालियर
22. देवडा वत्स चौहान राजपूताना सिरोही राज
23. शम्भरी वत्स चौहान नीमराणा रानी का रायपुर पंजाब
24. बच्छगोत्री वत्स चौहान प्रतापगढ सुल्तानपुर
25. राजकुमार वत्स चौहान दियरा कुडवार फ़तेहपुर जिला
26. पवैया वत्स चौहान ग्वालियर
27. गौर,गौड भारद्वाज सूर्य शिवगढ रायबरेली कानपुर लखनऊ
28. बैस भारद्वाज सूर्य उन्नाव रायबरेली मैनपुरी पूर्व में
29. गेहरवार कश्यप सूर्य माडा हरदोई उन्नाव बांदा पूर्व
30. सेंगर गौतम ब्रह्मक्षत्रिय जगम्बनपुर भरेह इटावा जालौन
31. कनपुरिया भारद्वाज ब्रह्मक्षत्रिय पूर्व में राजाअवध के जिलों में हैं
32. बिसैन वत्स ब्रह्मक्षत्रिय गोरखपुर गोंडा प्रतापगढ में हैं
33. निकुम्भ वशिष्ठ सूर्य गोरखपुर आजमगढ हरदोई जौनपुर
34. सिरसेत भारद्वाज सूर्य गाजीपुर बस्ती गोरखपुर
35. कटहरिया वशिष्ठ्याभारद्वाज, सूर्य बरेली बंदायूं मुरादाबाद शहाजहांपुर
36. वाच्छिल अत्रयवच्छिल चन्द्र मथुरा बुलन्दशहर शाहजहांपुर
37. बढगूजर वशिष्ठ सूर्य अनूपशहर एटा अलीगढ मैनपुरी मुरादाबाद हिसार गुडगांव जयपुर
38. झाला मरीच कश्यप चन्द्र धागधरा मेवाड झालावाड कोटा
39. गौतम गौतम ब्रह्मक्षत्रिय राजा अर्गल फ़तेहपुर
40. रैकवार भारद्वाज सूर्य बहरायच सीतापुर बाराबंकी
41. करचुल हैहय कृष्णात्रेय चन्द्र बलिया फ़ैजाबाद अवध
42. चन्देल चान्द्रायन चन्द्रवंशी गिद्धौर कानपुर फ़र्रुखाबाद बुन्देलखंड पंजाब गुजरात
43. जनवार कौशल्य सोलंकी शाखा बलरामपुर अवध के जिलों में
44. बहरेलिया भारद्वाज वैस की गोद सिसोदिया रायबरेली बाराबंकी
45. दीत्तत कश्यप सूर्यवंश की शाखा उन्नाव बस्ती प्रतापगढ जौनपुर रायबरेली बांदा
46. सिलार शौनिक चन्द्र सूरत राजपूतानी
47. सिकरवार भारद्वाज बढगूजर ग्वालियर आगरा और उत्तरप्रदेश में
48. सुरवार गर्ग सूर्य कठियावाड में
49. सुर्वैया वशिष्ठ यदुवंश काठियावाड
50. मोरी ब्रह्मगौतम सूर्य मथुरा आगरा धौलपुर
51. टांक (तत्तक) शौनिक नागवंश मैनपुरी और पंजाब
52. गुप्त गार्ग्य चन्द्र अब इस वंश का पता नही है
53. कौशिक कौशिक चन्द्र बलिया आजमगढ गोरखपुर
54. भृगुवंशी भार्गव चन्द्र वनारस बलिया आजमगढ गोरखपुर
55. गर्गवंशी गर्ग ब्रह्मक्षत्रिय नृसिंहपुर सुल्तानपुर
56. पडियारिया, देवल,सांकृतसाम ब्रह्मक्षत्रिय राजपूताना
57. ननवग कौशल्य चन्द्र जौनपुर जिला
58. वनाफ़र पाराशर,कश्यप चन्द्र बुन्देलखन्ड बांदा वनारस
59. जैसवार कश्यप यदुवंशी मिर्जापुर एटा मैनपुरी
60. चौलवंश भारद्वाज सूर्य दक्षिण मद्रास तमिलनाडु कर्नाटक में
61. निमवंशी कश्यप सूर्य संयुक्त प्रांत
62. वैनवंशी वैन्य सोमवंशी मिर्जापुर
63. दाहिमा गार्गेय ब्रह्मक्षत्रिय काठियावाड राजपूताना
64. पुण्डीर कपिल ब्रह्मक्षत्रिय पंजाब गुजरात रींवा यू.पी.
65. तुलवा आत्रेय चन्द्र राजाविजयनगर
66. कटोच कश्यप भूमिवंश राजानादौन कोटकांगडा
67. चावडा,पंवार,चोहान,वर्तमान कुमावत वशिष्ठ पंवार की शाखा मलवा रतलाम उज्जैन गुजरात मेवाड
68. अहवन वशिष्ठ चावडा,कुमावत खेरी हरदोई सीतापुर बारांबंकी
69. डौडिया वशिष्ठ पंवार शाखा बुलंदशहर मुरादाबाद बांदा मेवाड गल्वा पंजाब
70. गोहिल बैजबापेण गहलोत शाखा काठियावाड
71. बुन्देला कश्यप गहरवारशाखा बुन्देलखंड के रजवाडे
72. काठी कश्यप गहरवारशाखा काठियावाड झांसी बांदा
73. जोहिया पाराशर चन्द्र पंजाब देश मे
74. गढावंशी कांवायन चन्द्र गढावाडी के लिंगपट्टम में
75. मौखरी अत्रय चन्द्र प्राचीन राजवंश था
76. लिच्छिवी कश्यप सूर्य प्राचीन राजवंश था
77. बाकाटक विष्णुवर्धन सूर्य अब पता नहीं चलता है
78. पाल कश्यप सूर्य यह वंश सम्पूर्ण भारत में बिखर गया है
79. सैन अत्रय ब्रह्मक्षत्रिय यह वंश भी भारत में बिखर गया है
80. कदम्ब मान्डग्य ब्रह्मक्षत्रिय दक्षिण महाराष्ट्र मे हैं
81. पोलच भारद्वाज ब्रह्मक्षत्रिय दक्षिण में मराठा के पास में है
82. बाणवंश कश्यप असुरवंश श्री लंका और दक्षिण भारत में,कैन्या जावा में
83. काकुतीय भारद्वाज चन्द्र,प्राचीन सूर्य था अब पता नही मिलता है
84. सुणग वंश भारद्वाज चन्द्र,पाचीन सूर्य था, अब पता नही मिलता है
85. दहिया कश्यप राठौड शाखा मारवाड में जोधपुर
86. जेठवा कश्यप हनुमानवंशी राजधूमली काठियावाड
87. मोहिल वत्स चौहान शाखा महाराष्ट्र मे है
88. बल्ला भारद्वाज सूर्य काठियावाड मे मिलते हैं
89. डाबी वशिष्ठ यदुवंश राजस्थान
90. खरवड वशिष्ठ यदुवंश मेवाड उदयपुर
91. सुकेत भारद्वाज गौड की शाखा पंजाब में पहाडी राजा
92. पांड्य अत्रय चन्द अब इस वंश का पता नहीं
93. पठानिया पाराशर वनाफ़रशाखा पठानकोट राजा पंजाब
94. बमटेला शांडल्य विसेन शाखा हरदोई फ़र्रुखाबाद
95. बारहगैया वत्स चौहान गाजीपुर
96. भैंसोलिया वत्स चौहान भैंसोल गाग सुल्तानपुर
97. चन्दोसिया भारद्वाज वैस सुल्तानपुर
98. चौपटखम्ब कश्यप ब्रह्मक्षत्रिय जौनपुर
99. धाकरे भारद्वाज(भृगु) ब्रह्मक्षत्रिय आगरा मथुरा मैनपुरी इटावा हरदोई बुलन्दशहर
100. धन्वस्त यमदाग्नि ब्रह्मक्षत्रिय जौनपुर आजमगढ वनारस
101. धेकाहा कश्यप पंवार की शाखा भोजपुर शाहाबाद
102. दोबर(दोनवर) वत्स या कश्यप ब्रह्मक्षत्रिय गाजीपुर बलिया आजमगढ गोरखपुर
103. हरद्वार भार्गव चन्द्र शाखा आजमगढ
104. जायस कश्यप राठौड की शाखा रायबरेली मथुरा
105. जरोलिया व्याघ्रपद चन्द्र बुलन्दशहर
106. जसावत मानव्य कछवाह शाखा मथुरा आगरा
107. जोतियाना(भुटियाना) मानव्य कश्यप,कछवाह शाखा मुजफ़्फ़रनगर मेरठ
108. घोडेवाहा मानव्य कछवाह शाखा लुधियाना होशियारपुर जालन्धर
109. कछनिया शान्डिल्य ब्रह्मक्षत्रिय अवध के जिलों में
110. काकन भृगु ब्रह्मक्षत्रिय गाजीपुर आजमगढ
111. कासिब कश्यप कछवाह शाखा शाहजहांपुर
112. किनवार कश्यप सेंगर की शाखा पूर्व बंगाल और बिहार में
113. बरहिया गौतम सेंगर की शाखा पूर्व बंगाल और बिहार
114. लौतमिया भारद्वाज बढगूजर शाखा बलिया गाजी पुर शाहाबाद
115. मौनस मानव्य कछवाह शाखा मिर्जापुर प्रयाग जौनपुर
116. नगबक मानव्य कछवाह शाखा जौनपुर आजमगढ मिर्जापुर
117. पलवार व्याघ्र सोमवंशी शाखा आजमगढ फ़ैजाबाद गोरखपुर
118. रायजादे पाराशर चन्द्र की शाखा पूर्व अवध में
119. सिंहेल कश्यप सूर्य आजमगढ परगना मोहम्दाबाद
120. तरकड कश्यप दीक्षित शाखा आगरा मथुरा
121. तिसहिया कौशल्य परिहार इलाहाबाद परगना हंडिया
122. तिरोता कश्यप तंवर की शाखा आरा शाहाबाद भोजपुर
123. उदमतिया वत्स ब्रह्मक्षत्रिय आजमगढ गोरखपुर
124. भाले वशिष्ठ पंवार अलीगढ
125. भालेसुल्तान भारद्वाज वैस की शाखा रायबरेली लखनऊ उन्नाव
126. जैवार व्याघ्र तंवर की शाखा दतिया झांसी बुन्देलखंड
127. सरगैयां व्याघ्र सोमवंश हमीरपुर बुन्देलखण्ड
128. किसनातिल अत्रय तोमरशाखा दतिया बुन्देलखंड
129. टडैया भारद्वाज सोलंकीशाखा झांसी ललितपुर बुन्देलखंड
130. खागर अत्रय यदुवंश शाखा जालौन हमीरपुर झांसी
131. पिपरिया भारद्वाज गौडों की शाखा बुन्देलखंड
132. सिरसवार अत्रय चन्द्र शाखा बुन्देलखंड
133. खींचर वत्स चौहान शाखा फ़तेहपुर में असौंथड राज्य
134. खाती कश्यप दीक्षित शाखा बुन्देलखंड,राजस्थान में कम संख्या होने के कारण इन्हे बढई गिना जाने लगा
135. आहडिया बैजवापेण गहलोत आजमगढ
136. उदावत बैजवापेण गहलोत आजमगढ
137. उजैने वशिष्ठ पंवार आरा डुमरिया
138. अमेठिया भारद्वाज गौड अमेठी लखनऊ सीतापुर
139. दुर्गवंशी कश्यप दीक्षित राजा जौनपुर राजाबाजार
140. बिलखरिया कश्यप दीक्षित प्रतापगढ उमरी राजा
141. डोमरा कश्यप सूर्य कश्मीर राज्य और बलिया
142. निर्वाण वत्स चौहान राजपूताना (राजस्थान)
143. जाटू व्याघ्र तोमर राजस्थान,हिसार पंजाब
144. नरौनी मानव्य कछवाहा बलिया आरा
145. भनवग भारद्वाज कनपुरिया जौनपुर
146. गिदवरिया वशिष्ठ पंवार बिहार मुंगेर भागलपुर
147. रक्षेल कश्यप सूर्य रीवा राज्य में बघेलखंड
148. कटारिया भारद्वाज सोलंकी झांसी मालवा बुन्देलखंड
149. रजवार वत्स चौहान पूर्व में बुन्देलखंड
150. द्वार व्याघ्र तोमर जालौन झांसी हमीरपुर
151. इन्दौरिया व्याघ्र तोमर आगरा मथुरा बुलन्दशहर
152. छोकर अत्रय यदुवंश अलीगढ मथुरा बुलन्दशहर
153. जांगडा वत्स चौहान बुलन्दशहर पूर्व में झांसी
154. वाच्छिल, अत्रयवच्छिल, चन्द्र, मथुरा बुलन्दशहर शाहजहांपुर
155.   सड़माल  सूर्य  भारद्वाज  जम्मू - कश्मीर , साम्बा , कठुआ ,


 ✈️ऐतिहासिक साक्ष्यों पर आधारित -क्षत्रियों की वंशावली 👉🏿
 
भारत के चार क्षत्रिय वंशों को उनकी उत्पत्ति के अनुसार निम्न वंशों में विभाजित किया गया है। जो निम्न है - 1. सूर्य वंश, 2. चंद्र वंश, 3. नाग वंश और 4. अग्नि वंश


 
सूर्यवंशी क्षत्रिय
प्राचीन पुस्तकों के अवलोकन से ऐसा ज्ञात होता है कि भारत में आर्य दो समूहों में आये। प्रथम लम्बे सिर वाले और द्वितीय चैडे़ सिर वाले। प्रथम समूह उत्तर-पश्चिम (ऋग्वेद के अनुसार) खैबरर्दरे से आये, जो पंजाब, राजस्थान, और अयोध्या में सरयू नदी तक फैल गये। इन्हें सूर्यवंशी क्षत्रिय कहा गया है। प्रथम समूह के प्रसद्धि राजा भरत हुए। भरत की संताने और उनके परिवार को सूर्यवंशी क्षत्रिय का नाम दिया गया। यह 11 वें स्कन्ध पुराण अध्याय 1 में श्लोक 15,16 और 17 में वर्णित है। रोमिला थापर ने पौराणिक साक्ष्यों के आधार पर लिखा है कि महाप्रलय के समय केवल मनु जीवित बचे थे। विष्णु ने इस बाढ़ के संबंध में पहले ही चेतावनी दे दी थी, इसलिये मनु ने अपने परिवार और सप्तऋषियों को बचा ले जाने के लिये एक नाव बना ली थी। विष्णु ने एक बड़ी मछली का रूप धारण किया, जिससे वह नौका बाँध दी गयी। मछली जल-प्रवाह में तैरती हुई नौका को एक पर्वत शिखर तक ले गयी। यहाँ मनु उनका परिवार और सप्तऋषि प्रलय की समाप्ति तक रहे और पानी कम होने पर सुरक्षित रूप से पृथ्वी के रूप में मनु का उल्लेख है। पुराणों में 14 मनु वर्णित है जिसमें से स्वयंभुव मनु संसार के सर्वप्रथम मनु है। विवस्वान सूर्य के पुत्र वैवस्वत मनु सातवें मनु थे। इनके पहले के छः मनु स्वंयभुव वंश के थे।
वैवस्वत मनु से त्रेता युग प्रारम्भ हुआ। श्रीमद् भागवत पुराण में वर्णित है कि महाप्रलय के समय केवल परम् पुरूष ही बचे, उनसे ब्राह्या जी उत्पन्न हुये। ब्रह्या से मरीच, मरीच की पत्नी अदिती से विवस्वान (सूर्य) का जन्म हुआ तथा विवस्वान की पत्नी संज्ञा से मनु पैदा हुए। वसतुत वैवस्वत मनु भारत के प्रथम राजा थे, जो सूर्य से उत्पन्न हुये और अयोध्या नगरी बसाई। सबसे पहले मनु जिनको स्वयंभू कहते हुए इनके पुत्र प्रियावर्त और उनके पुत्र का नाम अग्निध्रा था, अग्निध्रा के पौत्र का नाम नाभि था और नाभि के पुत्र का नाम ऋषभ था। ऋषभ के 100 पुत्र हुए। जिसका वर्णन वेदों में मिलता है। इनमें से सबसे बड़ा पुत्र भरत था। जिसके नाम पर भरत हर्ष का नाम पड़ा और यह सूर्यवंशी क्षत्रिय थे। इसका वर्णन स्कन्ध पुराण 5 और अध्याय 7 में मिलता है। भरत का परिवार तेजी से बढ़ा और उन्हें भारत जन कहा जाने लगा। जिसका वर्णन ऋग्वेद में मिलता है। इस परिवार में भगवान मैत्रावरूण और अप्सरा उर्वशी के पेट से वशिष्ठ का जन्म हुआ। जो आगे चलकर भरत के पुरोहित हुए। वशिष्ठ ने इनको बलशाली औरवीरत्व प्रदान किया। इसी बीच विश्वामित्र जो जन्म से क्षत्रिय थे। अपने कठिन तपस्या से ऋषि का स्थान प्राप्’त किया और क्षत्रियों के गुरू बन गए। इससे वशिष्ठ व विश्वामित्र दोनों एक दूसरे के दुश्मन बन गए। इस प्रकार वशिष्ठ एवं विश्वामित्र दोनों ने पुरोहित का पद पा लिया और इस वंश को सूर्यवंशी कहा जाने लगा। आर्यों की वर्ण व्यवस्था के पश्चात् ऋषियों ने मिलकर सूर्यनामक आर्य क्षत्रिय की पत्नी सरण्यू से उत्पन्न मनु को पहला राजा बनाया। वायु नामक ऋषि ने मनु का राजभिषेक किया। मनु ने अयोध्या नगरी का निर्माण किया और उसे अपनी राजधानी बनाई। मनु से उत्पन्न पुत्र सूर्य वंशी कहलाये। उस युग में सूर्यवंशियों के अयोध्या, विदेह, वैशाली आदि राज्य थे।
मनु के 9 पुत्र तथा एक पुत्री ईला थी। मनु ने अपने राज को 10 भाग में बांट कर सबको दे दिया। अयोध्या का राज्य उनके बाद उनके 1. बडे़ पुत्र इक्ष्वाकु को मिला। उसके वंशज इक्ष्वाकु वंशी क्षत्रिय कहलाये। राजा मनु का 2. दूसरा पुत्र नाभानेदिस्त था। जिसे बिहार का राज्य मिला और आजकल इस इलाके को तिरहुत कहते है। इनके 3. तीसरा पुत्र विशाल हुए। जिन्होंने वैशाली नगरी बसा कर अपनी राजधानी बनाई। मनु के 4. चैथा पुत्र करूष के वंशज करूष कहलाये। इनका राज्य बघेलखंड था। उस युग में यह प्रदेश करूष कहलाने लगा। 5. पाँचवा शर्याति नामक मनु के पुत्र को गुजरात राज्य मिला और उसका 6. छटा पुत्र आनर्त था। जिससे वह प्रदेश आनर्त कहलाया। आनर्त देश की राजधानी कुशस्थली वर्तमान में द्वारिका थी। आनर्त के रोचवान, रेव और रैवत तीन पुत्र थे। रैवत के नाम पर वर्तमान गिरनार रैवत पर्वत राक्षसों ने समाप्त कर दिया। मनु के 7. सावतें पुत्र का राज्य यमुना के पश्चिमी तट तथा 8. आठवाँ पुत्र धृष्ट का राज्य पंजाब में था। जिसके वंशज धृष्ट क्षत्रिय कहलाये।
इक्ष्वाकु के कई पुत्र थे, परन्तु मुख्य दो थे, राजा की ज्येष्ठ संतान 1. विकुक्षी था, जिसे शशाद भी कहा जाता था। वह पिता के बाद अयोध्या का राजा बना। शशाद के पुत्र का नाम काकुत्स्थ था, जिसके वंशज काकुत्स्थी कहलाए। इक्ष्वाकु का 2. दूसरा पुत्र निर्मा था, उसका राज्य अयोध्या और विदेह के बीच स्थापित हुआ। इस वंश के एक राजा मिथि हुए, जिन्होनें मिथिला नगरी बसाई। इस वंश में राजा जनक हुए। इस राज्य और अयोध्या राज्य के बीच की रेखा सदानीरा (राप्ती) नदी थी।
इस वंश की आगे चलकर अनेक शाखा-उपशाखा हुई और वे सब सूर्यवंशी कहलाए। इस वंश के महत्वपूर्ण नरेशों के नाम पर अनेक वंशों के नाम हुए, जैसे-इक्ष्वाकु काकुत्स्थ से काकुत्स्थ वंश कहलाया। रघु के वंशज रघुवंशी कहलाए।
अयोध्या के महाराजा काकुत्स्थ का पौत्र पृथु हुआ। इसने शुरू में जमीन को नपवा कर हदबन्दी करवाई। उसके समय में कृषि की बड़ी उननति हुई थी। उसी वंश में चक्रवर्ती सम्राट मान्धाता, सगर, भगीरथ, दिलीप, रघु, दशरथ और राम हुए।

सूर्य वंशी राजाओं की नामावली
क्षत्रियों की गणना करते हुए, सर्वप्रथम सूर्यवंश का नाम लिया जाता है। इसकी उत्पत्ति महापुरूष विवस्वान् (सूर्य) से मानी जाती है। ब्रह्या के पुत्र मरिज के पुत्र कश्यप हुए। कश्यप की रानी अदिती से "सूर्य" की उत्पत्ति हुई। जिसे विवस्वान् भी कहा जाता है। विवस्वान् के पुत्र "मनु" हुए। मनु के नव पुत्र एवं एक पुत्री ईला थी। जिनमें सबसे बडे़ इक्ष्वाकु थे। इसीलिए सूर्य वंश को इक्ष्वाकु वंश भी कहा जाता है। मनु ने ही अयोध्या को बसाया था। भिन्न-भिन्न पुराणों में दी गई सूर्यवंशी राजाओं की वंशावली इस प्रकार है:- 1.मनु 2. इक्ष्वाकु 3. विकुक्षि 4. परंजय 5. अनेना 6. पृथु 7. वृषदश्व 8. अन्ध्र 9. युवनाश्व 10. श्रावस्त 11. वृहदश्व 12. कुवलायाश्व 13. दृढाश्व 14. प्रमोढ 15. हर्रूश्व 16. निंकुभ 17. संहताश्व 18. कुशाश्व 19. प्रसेनजित 20. युवनाश्व (द्वितीय) 21. मान्धाता 22. पुरूकुतस 23. त्रसदस्यु 24. सम्भूल 25. अनरण्य 26. त्रसदश्व 27. हर्यस्व 28. वसुमान् 29. त्रिधन्वा 30. त्ररूयारूणि 31. सत्यव्रत 32. हरिशचन्द्र 33. रोहिताश्व 34. हरित 35. चंचु 36. विजय 37. रूरूक 38. वृक 39. बाहु 40. सगर 41. असमंजस 42. अंशुमान 43. दिलीप 44. भगीरथ 45. श्रुत 46. नाभाग 47. अम्बरीष 48. सिन्धुद्वीप 49. अयुतायु 50. ऋतुपर्ण 51. सर्वकाम 52. सुदास 53. सोदास 54. अश्मक 55. मूलक 56. दशरथ 57. एडविड 58. विश्वसह 59. दिलीप (खटवाँग) 60. रघु 61. अज 62. दशरथ 63. रामचन्द्र 64. कुश 65. अतिथि 66. निषध 67. नल 68. नभ 69. पुण्डरीक 70. क्षेमधन्ध 71. देवानीक 72. पारियाग 73. दल 74. बल 75. दत्क 76. वृजनाभ 77. शंखण 78. ध्युपिताश्न 79. विश्वसह 80. हिरण्नाभ 81. पुष्य 82. धु्रवसन्धि 83. सुदर्शन 84. अग्निवर्ण 85. शीध्र्र 86. मरू 87. प्रसुश्रुत 88. सुसन्धि 89. अमर्ष 90. सहस्वान् 91. विश्वभन 92. वृहद्बल 93. वृहद्रर्थ 94. उरूक्षय 95. वत्सव्यूह 96. प्रतिव्योम 97. दिवाकर 98. सहदेव 99. वृहदश्व 100. भानुरथ 101. प्रतीतोश्व 102. सुप्रतीक 103. मरूदेव 104. सुनक्षत्र 105. किन्नर 106. अंतरिक्ष 107. सुपर्ण 108. अमित्रजित् 109. बहद्राज 110. धर्मी 111. कृतंजय 112. रणंजय 113. संजय 114. शाक्य 115. शुद्धोधन 116. सिद्धार्थ 117. राहुल 118. प्रसेनणित 119. क्षुद्रक 120. कुण्डक 121. सुरथ 122. सुमित्र

उपरोक्त नाम सूर्यवंशी मुख्य-मुख्य राजाओं के हैं, क्योंकि मनु से राम के पुत्र कुश तक केवल चैसठ राजाओं के नाम मिलते हैं। जबकि यह अवधि लगभग कई करोड़ वर्षों की है। अतः पुराणों में सभी राजाओं के नाम आना अंसभव भी हैं।

सूर्यवंश से निकली शाखाएँ
1. सूर्यवंशी 2. निमि वंश 3.निकुम्भ वंश 4. नाग वंश 5. गोहिल वंश, 6. गहलोत वंश 7. राठौड वंश 8. गौतम वंश 9. मौर्य वंश 10. परमार वंश, 11. चावड़ा वंश 12. डोड वंश 13. कुशवाहा वंश 14. परिहार वंश 15. बड़गूजर वंश, 16. सिकरवार 17. गौड़ वंश 18. चैहान वंश 19. बैस वंश 20. दाहिमा वंश, 21. दाहिया वंश 22. दीक्षित वंश

चन्द्रवंशी क्षत्रिय
द्वितीय आर्यों का समूह चंद्रवशीय क्षत्रियों के नाम से जाना जाता है। ऋगवेद के अनुसार यह समूह चंद्रवंशीय क्षत्रिय के नाम से जाना जाता और यह हिमालय को गिलगिट के रास्ते से पार किया और मनासा झील के पास से होते हुए भारत आए। इनका सर सूर्यवंशीय के मुकाबले चैड़ा होता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार चंद्रवंश के प्रथम राजा का नाम यायात्री था। यह आयु के पुत्र और पूर्वा के पौत्र थे, इनको चंद्रवंशीय कहा जाता है तथा इनके 5 पुत्र थे। यह गिलगिट होते हुए सरस्वती नदी के क्षेत्र में आए ओर सरहिन्द होते हुए दक्षिण पूर्व में बस गए। यह क्षेत्र सूर्यवंशियों के अधिकार में नहीं था। प्रारम्भिक युग में चन्द्र क्षत्रिय का पुत्र बुद्ध था, जो सोम भी कहलाता था। बुद्ध का विवाह मनु की पुत्री इला से हुआ। उनसे उत्पन्न हुए पुत्र का नाम पुरूरवा था। इसकी राजधानी प्रयाग के पास प्रतिष्ठानपुर थी। पुरूरवा के वंशज चन्द्रवंशी क्षत्रिय कहलाए। पुरूरवा के दो पुत्र आयु और अमावसु थे। आयु ज्येष्ठ पुत्र होने के नाते राज्य का स्वमाी बना तथा अमावसु को कान्यंकुब्ज (कन्नौज) का राज्य मिला।
आयु के नहुष नामक पुत्र हुआ। नहुष के दो पुत्र हुए ययाति और क्षत्रबुद्ध। ययाति इस वंश में सर्वप्रथम चक्रवर्ती सम्राट बना और उसके भाई क्षत्रबुद्ध को काशी प्रदेश का राज्य मिला। उसकी छठी पीढ़ी में काश नामक राजा हुआ, जिसने काशी नगरी बसाई थी तथा काश्ीा को अपनी राजधानी बनाई। सम्राट ययाति के यदु, द्रुह्य, तुर्वसु, अनु और पुरू पाँच पुत्र हुए। सम्राट ययाति ने अपने सबसे छोटे पुत्र पुरू को प्रतिष्ठानपुर का राज्य दिया, जिसके वंशज पौरव कहलाए। यदु को पश्चिमी क्षेत्र केन, बेतवा और चम्बल नदियों के काठों का राज्य मिला। तुर्वसु को प्रतिष्ठानपुर का दक्षिणी पूर्वी प्रदेश मिला, जहाँ पर तुर्वसु ने विजय हासिल कर अधिकार जमा लिया। वहाँ पहले सूर्यवंशियों का राज्य था। दुह्य को चम्बल के उत्तर और यमुना के पश्चिम का प्रदेश मिले और अनु को गंगा-यमुना के पूर्व का दोआब का उत्तरी भाग, यानी अयोध्या राज्य के पश्चिम का प्रदेश मिला। ये यादव आगे चलकर बडे़ प्रसिद्ध हुए। इनसे निकली हैहयवंशी शाखा काफी बलशाली साबित हुई। हैहयंवशजों ने आगे बढ़कर दक्षिण में अपना राज्य कायम कर लिया था। यादव वंश में अंधक और वृष्णि बडे़ प्रसिद्ध राजा हुए हैं।
जिनसे यादवों की दो शाखाएँ निकली। प्रथम शाखा अंधकवंश में आगे चलकर उग्रसेन और कंस हुए, जिनका मथुरा पर शासन था। दूसरी शाखा वृष्णिवंश में कृष्ण हुए, जिसने कंस को मारकर उसके पिता उग्रसेन को मथुरा का राजा बनाया। आगे चलकर वृष्णिवंश सौराष्ट्र प्रदेेश स्थित द्वारिका में चला गया।
दुह्य वंश में गांधार नामक राजा हुआ, उसने वर्तमान रावलपिण्डी के उत्तर पश्चिम में जो राज्य कायम किया, वहीं गांधार देश कहलाया। अनु के वंशज आनय कहलाते है।
इस वंश में उशीनर नामक राजा बड़ा प्रसिद्ध हुआ है। उसके वंशज समूचे पंजाब में फैले हुए थे। उशीनर का पुत्र शिवि अपने पिता से अधिक प्रतापी शासक हुआ और चक्रवर्ती सम्राट कहलाया। दक्षिणी पश्चिमी पंजाब में शिवि के नाम पर एक शिविपुर नगर था, जिसे आजकल शेरकोट कहा जाता है। चन्द्रवंशियों में यौधेय नाम के बडे़ प्रसिद्ध क्षत्रिय हुए थे।
कन्नौज के चन्द्रवंशी राजा गाधी का पुत्र विश्वरथ था, जिसने राजपाट छोड़कर तपस्या की थी। वहीं प्रसिद्ध "ऋषि विश्वामित्र" हुआ। इन्हीं ऋषि विश्वामित्र ने "गायत्री मंत्र" की रचना की थी। यादवों की हैहय शाखा में कार्तवीर्य अर्जुन बड़ा शक्तिशाली शासक था, जो बाद में चक्रवर्ती सम्राट बन गया था, परन्तु अन्त में परशुराम और अयोध्या के शासक से युद्ध में परास्त होकर मारा गया।
पौरव वंश का एक बार पतन हो गया था। इस वंश में पैदा हुए दुष्यन्त ने बड़ी भारी शक्ति अर्जित कर अपने वंश को गौरवान्वित किया। दुष्यनत के बडे़ भाई एवं शकुन्तला का पुत्र भरत चक्रवर्ती सम्राट बना। कुछ इतिहासकारों का कहना है कि जिसके नाम पर यह देश भारत कहलाया। इसके वंशज हस्ती ने ही हस्तिनापुर बसाया और उसे अपनी राजधानी बनाया। इसी वंश के शासकों ने पांचाल राज्य की स्थापना की, जो बाद में दो भागों में बंट गया। एक उत्तरी पांचाल ओर दूसरा दक्षिणी पांचाल। उत्तरी पांचाल की राजधानी का नाम अहिच्छत्रपुर था, जो वर्तमान में बरेली जिले में रामनगर नामक स्थान है। दक्षिण पांचाल में कान्युकुब्ज का राज्य विलीन हो गया था जिसकी राजधानी काम्पिल्य थी। पौरववंश में ही आगे चलकर भीष्म पितामह, धृतराष्ट्र, पांडु, युधिष्ठिर, परीक्षित और अन्य राजा हुए।

चन्द्र-वंश से निकली शाखाएँ
1. सोमवंशी 2. यादव 3. भाटी 4. जाडे़दार 5. तोमर 6. हैहय, 7. करचुलिसया 8. कौशिक 9. सेंगर 10. चेन्दल 11. गहरवार 12. बेरूआर, 13. सिरमौर 14. सिरमुरिया 15. जनवार 16. झाला 17. पलवार 18. गंगावंशी 19. विलादरिया 20. पुरूवंशी 21. खातिक्षत्रिय 22. इनदौरिया 23. बुन्देला 24.कान्हवंशी, 25. रकसेल 26. कुरूवंशी 27. कटोच 28. तिलोता 29. बनाकर 30. भारद्वाज 31. सरनिहा 32. द्रह्युवंशी 33. हरद्वार 34. चैपटखम्भ 35. क्रमवार 36. मौखरी 37. भृगुवंशी 38. टाक

नागवंश क्षत्रिय
आर्यों में एक क्षत्रिय राजा शेषनाग था। उसका जो वंश चला, वह नागवंश कहलाया। प्रारम्भ में इनका राज्य कश्मीर में था। वाल्मीकीय रामायण में शेषनाग और वासुकि नामक नाग राजाओं का वर्णन मिलता है। महाभारत काल में ये दिल्ली के पास खांडव वन में रहते थे, जिन्हें अर्जुन ने परास्त किया था। इनके इतिहास का वर्णन राजतरंगिणी में मिलता है।
विदिशा से लेकर मथुरा के अंचल तक का मध्यप्रदेश नागवंशियों की शक्ति का केन्द्र होने से उन्होनें विदेशियों से जमकर लोहा लिया। ये लोग शिवोपासक थे, जो शिवलिंगों को कंधों और पगडि़यों में धारण किया करते थे। कुषाण साम्राजय के अंतिम शासक वासुदेव के काल में भारशिवों (नागों) ने काशी में गंगा तक पर दस अश्वमेध यज्ञ किए जो दशाश्वमेध घाट के रूप में स्मृति स्वरूप आज भी विद्यमान हैं। पुराणों में भारशिवों का नवनागों के नाम से वर्णन है। धर्म विषयक आचार-विचार को समाज में स्थापित करने का श्रेय गुप्तों को न जाकर भारशिवों को जाता है। क्योंकि इसकी शुरूआत उनके शासन काल में ही हो चुकी थी। इतिहास के विद्वानों का मत है कि पंजाब पर राज्य करने वाले नाग 'तक' अथवा 'तक्षक' शाखा के नाग थे।
डॉ. जायसवाल मानते है कि पद्मावती वाले नाग भी तक्षक अथवा टाक शाखा के थे। इन नागों की शाखा कच्छप मध्यप्रदेश में थी। ऐसा प्रतीत होता है कि उत्तर पश्चिमी भारत के गणतांत्रिक राज्यों का इन नागों को सहयोग रहा होगा। इस पारस्परिक सार्वभौमिकता को इन्होनें स्वीकारा। राजस्थान स्थित नागों के राज्यों को परमारों ने समाप्त कर दिया था। इनका गोत्र काश्यप, प्रवर तीन काश्यप, वत्सास, नैधुव वेद सामवेद, शाखा कौथुमी, निशान हरे झण्डे पर नाग चिन्ह तथा शस्त्र तलवार है।

अग्निवंश क्षत्रिय
भारत के राजकुलों में चार कुल चैहान, सोलंकी, परमार तथा प्रतिहार थे, जो अपने को अग्निवंशी मानते हैं। आधुनिक भारतीय व विदेशी विद्वान इस धारणा को मिथ्या मानते हैं। किन्तु इनमें से दो-तीन विद्वानों को छोड़कर सभी सभी अग्निकुल की धारणा को अप्रत्यक्ष रूप से स्वीकार भी करते हैं, इसलिए यहाँ अग्निकुल की उत्पत्ति के प्रश्न पर विचार करना आवश्यक हैं। इन कुलों की मान्यता है कि अग्निकुंड से इन कुलों के आदि पुरूष, मुनि वशिष्ठ द्वारा आबू पर्तत पर उत्पन्न किए गए थे। डॉ. दशरथ शर्मा लिखते है कि असुरों का संहार करने के लिए वशिष्ठ ने चालुक्य, चैहान, परमार और प्रतिहार चार क्षत्रिय कुल उत्पन्न किए।
सोलंकियों के बारे मे पूर्व सोलंकी राजा, राजराज प्रथम के समय में वि.1079 (ई. 1022) के एक ताम्रपत्र के अनुसार भगवान पुरूषोत्तम की नाभि कमल से ब्रह्या उत्पन्न हुए, जिनेस क्रमशः सोम, बुद्ध व अन्य वंशजों में विचित्रवीर्य, पाण्ड, अर्जुन, अभिमन्यु, परीक्षित, जन्मेजय आदि हुए। इसी वंश के राजाओं ने अयोध्या पर राज किया था। विजयादित्य ने दक्षिण में जाकर राज्य स्थापित किया। इसी वंश में राजराज हुआ था।
सोलंकियों के शिलालेखों तथा कश्मीरी पंडित विल्हण द्वारा वि. 1142 में रचित 'विक्रमाक्ड़ चरित्र' में चालुक्यों की उत्पत्ति ब्रह्या की चुल्लु से उत्पन्न वीर क्षत्रिय से होना लिखा गया है जो चालुक्य कहलाया। पश्चिमी सोलंकी राजा विक्रमादित्य छठे के समय के शिलालेख वि. 1133 (ई.1076) में लिखा गया है कि चालुक्य वंश भगवान ब्रह्या के पुत्र अत्रि के नेत्र से उत्पन्न होने वाले चन्द्रवंश के अंतर्गत आते हैं।
अग्निकुल के दूसरे कुल चैहानों के विषय में वि. 1225 (ई.1168) के पृथ्वीराज द्वितीय के समय के शिलालेख में चैहानों को चंद्रवंशी लिखा है। 'पृथ्वीराज विजय' काव्य में चैहानों को सूर्यवंशी लिखा है तथा बीसलदेव चतुर्थ के समय के अजमेर के लेख में भी चैहानों को सूर्यवंशी लिखा है।
आबू पर्वत पर स्थित अचलेश्वर महादेव के मन्दिर में वि. 1377 (ई. 1320) के देवड़ा लुंभा के समय के लेख में चैहानों के बारे में लिखा है कि सूर्य और चंद्र वंश के अस्त हो जाने पर जब संसार में दानवों का उत्पात शुरू हुआ तब वत्स ऋषि के ध्यान और चंद्रमा के योग से एक पुरूष उत्पन्न हुआ।
ग्वालियर के वंतर शासक वीरम के कृपापात्र नयनचन्द्र सूरी ने 'हम्मर महाकाव्य' की रचना वि. 1460 (ई. 1403) के लगभग की, जिसमें उसने लिखा है कि पुष्कर क्षेत्र में यज्ञ प्रारम्भ करते समय राक्षसों द्वारा होने वाले विघ्रनों की आशंका से ब्रह्या ने सूर्य का ध्यान किया, इस पर यज्ञ के रक्षार्थ सूर्य मण्डल से उतर कर एक वीर आ पहुँचा। जब उपरोक्त यज्ञ निर्विघ्र समाप्त हो गया, तब ब्रह्या की कृपा से वह वीर चाहुमान कहलाया।
अग्निकुल के तीसरे वंश प्रतिहारों के लेखों में मंडौर के शासक बउक प्रतिहार के वि. 894 (ई. 837 ) के लेख में 'लक्ष्मण को राम का प्रतिहार लिखा है जैसा प्रतिहार वंश का उससे संबंध दिखाया है' इसी प्रकार प्रतिहार कक्कूक के वि. 918 (ई. 861) के घटियाला के लेख में भी लक्ष्मण से ही संबंध दिखाया है। कन्नौज के प्रतिहार सम्राट भोज की ग्वालियर की प्रशस्ति में प्रतिहार वंश को लक्ष्मण के वंश में लिखा है। चैहान विक्रहराज के हर्ष के वि. 1030 (ई. 973) के शिलालेख में भी कन्नौज के प्रतिहार सम्राट को रघुवंश मुकुटमणि लिखा है। इस प्रकार इन तमाम शिलालेखों तथा बालभारत से प्रतिहारों का सूर्यवंशी होना माना जाता है।
परमारों के वशिष्ठ के द्वारा अग्निकुण्ड से उत्पन्न होने की कथा परमारों के प्राचीन से प्राचीन शिलालेखों और काव्यों में विद्यमान है। डॉ. दशरथ शर्मा लिखते हैं कि हम किसी अन्य राजपूत जाति को अग्निवंशी मानें या न मानें, परमारों को अग्निवंशी मानने में हमें विशेष दुविधा नहीं हो सकती। इनका सबसे प्राचीन वर्णन मालवा के परमार शासक सिन्धुराज वि. 1052-1067 के दरबारी कवि पदमगुप्त ने अग्निवंशी होने का तथा आबू पर वशिष्ठ के कुण्ड से उत्पन्न होने का लिखा है। इसी प्रकार परमारों के असनतगढ़, उदयपुर, नागपुर, अथुंणा, हाथल, देलवाड़ा, पाटनारायण, अचलेश्वर आदि के तमाम लेखों में इनकी उत्पत्ति के बारे में इसी प्रकार का वर्णन हैं परमार अपने को चन्द्रवंशी मानते है।
इस प्रकार इन तमाम साक्ष्यों द्वारा किसी न किसी रूप में इन वंशों को विशेष शक्तियों द्वारा उत्पन्न करने की मान्यता की पुष्टि 10 वीं सदी तक तो लिखित प्रमाण हैं। विद्वानों ने अग्निंवशी होने के मान्यता 16 वीं सदी से प्रारम्भ होती है तथा इसे प्रारम्भ करने वाला ग्रन्थ "पृथ्वीराज रासो" हैं। दूसरी ओर भ्ण्डारनक वाट्सन, फारबस, कैम्पबेल, जैक्सन, स्मिथ आदि विद्वानों ने अग्निवंशियों को गूर्जर और हूर्णों के साथ बाहर से आये हुए मानते है। दूसरा विचार इनकी उत्पत्ति से जुड़ा हुआ है। जिसमें यह सोचा गया है कि क्या किसी कारणवंश इन वंशों को शु़द्व किया गया है और इस अग्निवंशियों द्वारा अग्नि से शुद्व करने की मान्यता को स्वीकार करते है। भारत में बुद्ध धर्म के प्रचार से बहुत से लोगों ने बुद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया।
शनैः शनैः सारा ही क्षत्रिय वर्ग वैदिक धर्म को छोड़कर बौद्ध धर्म को अंगीकार करता चला गया। भारत में चारों तरफ बौद्ध धर्म का प्रचार हो गया। क्षत्रियों के बौद्ध धर्म में चले जाने के कारण उनकी वैदिक क्रियाएँ, परम्पराएँ समाप्त हो गई। जिससे इनके सामा्रज्य छोटे और कमजोर हो गए। तथा इनका वीरत्व जाता रहा। और तब क्षत्रियों को वापस वैदिक धर्म में पुनः लाने की प्रक्रिया शुरू हुई। और क्षत्रिय कुलों को बौद्ध धर्म से वापस वैदिक धर्म में दीक्षित किया गया और आबू पर्वत पर यह यज्ञ करके बौद्ध धर्म से वैदिक धर्म में उनका समावेश किया गया तथा इन्हें अग्नि कुल का स्वरूप दिया गया।
अब्दुल फजल के समय तक प्राचीन ग्रन्थों से या प्राचीन मान्यताओं से यह तो विदित ही था कि यह चारों वंश बौद्ध धर्म से वापस वैदिक धर्म में आये। जिसका वर्णन अब्दुल फजल ने "आइने अकबरी" में किया है। कुमारिल भट्ट ने विक्रमी संवत् 756 (ई. 700 में) बड़ी संख्या में बौद्ध धर्म को वापस वैदिक धर्म में लाने का कार्य प्रारम्भ किया। जिसे आदि शंकराचार्य ने आगे चलकर पूर्ण किया।. 
आबू पर्वत पर यज्ञ करके चार क्षत्रिय कुलों को वापस वैदिक धम्र में दीक्षा देने का यह एक ऐतिहासिक कार्यक्रम था, जो करीब छठी या 7 वीं सदीं में हुआ। यह कोई कपोलकल्पना नहीं थी, न कोई मिथ्या बात थी, अपितु वैदिक धर्म को पुनः सशक्त करने का प्रथम कदम था, जिसकी याद के रूप में बाद में ये वंश अपने को अग्नि वंशी कहने लगे।
क्षत्रिय व वैश्यों के बौद्ध धर्म ग्रहण करने के बाद वैदिक संस्कार तो लुप्त हो गए थे। यहाँ तक कि वे शनैः शनैः अपने गोत्र तक भी भूल चुके थे। जब वे वापस वैदिक धर्म में आए, तक क्षत्रियों तथा वैश्यों द्वारा नए सिरे से पुरोहित बनाए गए, उन्हीं के गोत्र, उनके यजमानों के भी गोत्र मान लिए गए। इसलिए समय-समय पर नए स्थान पर जाने पर जब पुरोहित बदले तो उनके साथ अनेक बार गोत्र भी बदलते चले गए। वैद्य और ओझा की भी यही मान्यता है।

अग्नि-वंश से निकली शाखाएँ
1. परमार 2. सोलंकी 3. परिहार 4. चैहान 5. हाड़ा 6. सोनगिरा 7. भदौरिया 8. बछगोती 9. खीची 10. उज्जैनीय 11. बघेल 12. गन्धवरिया 13. डोड 14. वरगया 15. गाई 16. दोगाई 17. मड़वार 18. चावड़ा 19. गजकेसर 20. बड़केसर 21. मालवा 22. रायजादा 23. स्वर्णमान 24. बागड़ी 25. अहबन 26. तालिया 27. ढेकहा 28. कलहंस 29. भरसुरिय 30. भुवाल 31. भुतहा 32. राजपूत माती

क्षत्रियों के 36 राजवंश (रॉयल मार्शल क्लेन ऑफ़ क्षत्रिय)
सभी लेखकों की यह मान्यता है कि क्षत्रियों के शाही कुलों (राजवंश) की संख्या 36 है। परन्तु कुछ इतिहासकारों ने इन की संख्या कम और कुछ ने ज्यादा लिखी है। कुछ इतिहासकारों ने शाही कुलों की शाखाओं को भी शाही कुल मान लिया। जिससे इनकी संख्या बढ़ गई है। प्रथम सूची चंद्रवर्दायी ने पृथ्वीराज राजसों में 12 वीं शताब्दी में वर्णित किया है।

क्षत्रियों की 36 रॉयल मार्शल क्लेन आफॅ क्षत्रिय (क्षत्रियों के 36 शाही कुल)
इन 36 शाही कुलों (रॉयल मार्शल क्लेन) में 10 सूर्यवंशी, 10 चंद्रवशी, 4 अग्निवंशी, 12 दूसरे वंश । सभी लेखकों जैसे कर्नल जेम्स टॉड, श्री गौरीशंकर ओझा, श्री जगदीशसिंह परिहार, रोमिला थापर, स्वामी दयानन्द सरस्वती, सत्यार्थ प्रकाश, राजवी अमरसिंह, बीकानेरए शैलेन्द्र प्रतापसिंह-बैसवाडे़ का वैभव, प्रो. लाल अमरेन्द्र-बैसवाड़ा एक ऐतिहासिक अनुशीलन भाग-1, रावदंगलसिंह-बैस क्षत्रियों का उद्भव एवं विकास, ठा. ईश्वरसिंह मडाढ़ - राजपूत वंशाली, ठा. देवीसिंह मंडावा इत्यादि ने यह माना है कि क्षत्रियों के शाही कुल 36 है लेकिन किसी ने सूची में इनकी संख्या बढ़ा दी है और किसी ने कम कर दी है।
पहली सूची चंद्रवर्दायी जिन्होंने पृथ्वीराजरासो लिखा है बाद इन्होंने पृथ्वीराज रासो के छन्द 32 में छन्द के रूप में कुछ क्षत्रियों के कुल को लिखा है जो इस प्रकार है।
पृथ्वीराज रासो में चंद्रवर्दायी ने कुछ कुलों को एक छन्द (दोहा) के रूप में लिखा है। जो द्वितीय सूची के रूप में प्रकाशित हुई
तृतीय सूची में 36 क्षत्रिय कुल कर्नल टॉड ने नाडोल सिटी (मारवाड़) के जैन मंदिर के पुजारी से प्राप्त कर प्रकाशित किया
चतुर्थ सूची में हेमचंद्र जैन ने "कुमार पालचरित्र" में 36 क्षत्रियों की सूची प्रकाशित की।
पंचम सूची में मोगंजी खींचियों के भाट ने प्रकाशित की
छठी सूची में नैनसी ने 36 शाही कुलों तथा उनके राजधानियों का वर्णन किया गया है
सातवीं सूची में जो पद्मनाभ ने जारी की में प्रकाशित हुई
आठवीं सूची में हमीरयाना जो भन्दुआ में प्रकाशित की। 
इसमें 30 कुल का वर्णन है। इस प्रकार से कुल क्षत्रियों की 8 सूचियाँ प्रकाशित हुई। और करीब करीब सभी ने गणना में 36 शाही कुल माने है। प्रारम्भिक 36 कुलों की सूची में मौर्यवंशी तथा नाग वंश का स्थान न मिलना यही सिद्ध करता है कि ये प्रारम्भ में वैदिक धर्म में नहीं आये तथा बौद्ध बने रहे। तथा इतिहासकारों जैसे राजवी अमरसिंह, बीकानेर, प्रो. अमरेन्द्रसिंह, जगदीशसिंह परिहार, राव दंगलसिंह, शैलेन्द्र प्रतापसिंह, ठा. ईश्वरसिंह, ठा. देवीसिंह मंडावा, बीकानेर क्षत्रिय वंश का इतिहास आदि ने भी 36 कुल का वर्णन किया है।

प्रसिद्ध इतिहासकार श्री चिंतामणि विनायक वैद्य ने पृथ्वीराज रासो वर्णित पद्य को अपनी पुस्तक 'मिडाइवल हिन्दू इण्डिया' में 36 शाखाओं का विश्लेषण करते हुए लिखा है कि रवि, राशि और यादव वंश तो पुराणों में वर्णित वंश है, इनकी 36 शाखाएँ हैं। एक ही शाखा वाले का उसी शाखा में विवाह नहीं हो सकता। इसे नीचे से ऊपर की ओर पढ़ने से क्रमशः निम्न शाखाएँ हैः 1. काल छरक्के 'कलचुरि' यह हैहय वंश की शाखा है। 2. कविनीश 3. राजपाल 4. निकुम्भवर धान्यपालक 6. मट 7. कैमाश 'कैलाश' 8. गोड़ 9. हरीतट्ट 10. हुल-कर्नल टॉड ने इसी शाखा को हुन लिख दिया है जिससे इसे हूणों की भा्रंति होती है। जबकि हुल गहलोत वंश की खांप है। 11. कोटपाल 12. कारट्टपाल 13. दधिपट-कर्नल टॉड साहब ने इसे डिडियोट लिखा है। 14. प्रतिहार 15. योतिका टॉड साहब ने इसे पाटका लिखा है। 16. अनिग-टॉड साहब ने इसे अनन्ग लिखा है। 17. सैन्धव 18. टांक 19. देवड़ा 20. रोसजुत 21. राठौड़ 22. परिहार 23. चापोत्कट 'चावड़ा' 24. गुहीलौत 25. गोहिल 26. गरूआ 27. मकवाना 28. दोयमत 29. अमीयर 30. सिलार 31. छदंक 32. चालुक्य 'चालुक्य' 33. चाहुवान 34. सदावर 35. परमार 36. ककुत्स्थ ।

श्री मोहनलाला पांड्या ने इस सूची का विश्लेषण करते हुए ककुत्स्थ को कछवाहा, सदावर को तंवर, छंद को चंद या चंदेल, दोयमत को दाहिमा लिखा है। इसी सूची में वर्णित रोसजुत, अनंग, योतिका, दधिपट, कारट्टपाल, कोटपाल, हरीतट, कैमाश, धान्यपाल, राजपाल आदि वंश आजकल नहीं मिलते। जबकि आजकल के प्रसिद्ध वंश वैस, भाटी, झाला, सेंगर आदि वंशों की इस सूची में चर्चा ही नहीं हुई।

मतिराम के अनुसार छत्तीस कुल की सूची इस प्रकार है:-
1. सुर्यवंश 2. पेलवार 3. राठौड़ 4. लोहथम्भ 5. रघुवंशी 6. कछवाहा 7. सिरमौर 8. गहलोत 9. बघेल 10. काबा 11. सिरनेत 12. निकुम्भ 13. कौशिक 14. चन्देल 15. यदुवंश 16. भाटी 17. तोमर 18. बनाफर 19. काकन 20.रहिहोवंश 21. गहरवार 22. करमवार 23. रैकवार 24. चंद्रवंशी 25. शकरवार 26. गौर 27. दीक्षित 28. बड़वालिया 29. विश्वेन 30. गौतम 31. सेंगर 32. उदयवालिया 33. चैहान 34. पडि़हार 35. सुलंकी 36. परमार। इन्होनें भी कुछ प्रसिद्ध वंशों को छोड़कर कुछ नये वंश लिख दिये है। इन्होंने भी प्रसिद्ध बैस वंश को छोड़ दिया है।

कर्नल टॉड के पास छत्तीस कुलों की पाँच सूचियाँ थी जो उन्होंने इस प्रकार प्राप्त की थी:-
यह सूची उन्होंने मारवाड़ के अंतर्गत नाडौल नगर के एक जैन मंदिर के यती से ली थी। यह सूची यती जी ने किसी प्राचीन ग्रंथ से प्राप्त की थी।
यह सूची उन्होंने अन्तिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चैहान के दरबारी कवि चन्दबरदाई के महाकाव्य पृथ्वीराज रासों से ग्रहण की थी।
यह सूची उन्होंने कुमारपाल चरित्र से ली थी। यह ग्रंथ महाकवि चन्दबरदाई के समकालीन जिन मण्डोपाध्याय कृत हैं। इसमें अनहिलावाड़ा पट्टन राज्य का इतिहास है।
यह सूची खींचियों के भाट से मिली थीं
पाँचवीं सूची उन्हें भाटियों के भाट से मिली थी।

इन सभी सूचियों से सामग्री निकालकर उन्होंने यह सूची प्रकाशित की थी:-
1. ग्रहलोत या गहलोत 2. यादु (यादव) 3. तुआर 4. राठौर 5. कुशवाहा 6. परमार 7. चाहुवान या चैहान 8. चालुक या सोलंकी 9. प्रतिहार या परिहार 10. चावड़ा या चैरा 11. टाक या तक्षक 12. जिट 13. हुन या हूण 14. कट्टी 15. बल्ला 16. झाला 17. जैटवा, जैहवा या कमरी 18. गोहिल 19. सर्वया या सरिअस्प 20. सिलार या सुलार 21. डाबी 22. गौर 23. डोर या डोडा 24. गेहरवाल 25. चन्देला 26. वीरगूजर 27. सेंगर 28. सिकरवाल 29. बैंस 30. दहिया 31. जोहिया 32. मोहिल 33. निकुम्भ 34. राजपाली 35. दाहरिया 36. दाहिमा।किसी कवि ने राजपूतों के वंशों का विवरण निम्न दोहे में किया है:-
दस रवि स दस चंद्र से, द्वादस ऋषि प्रमान।
चारी हुताशन यज्ञ से, यह छत्तीस कुल जान।।

इस प्रकार इस दोहे में छः वंशों और छत्तीस कुलों की चर्चा की गयी है: राय कल्याणजी बड़वा जी का वास जिला जयपुर ने इसकी व्याख्या इस प्रकार से की है: 
1. सूर्यवंश से ये है: 1. सूर्यवंशी (मौरी) 2. निकुम्भ (श्रीनेत) 3. रघुवंशी 4. कछवाहे 5. बड़गूजर (सिकरवार) 6. गहलोत (सिसोदिया) 7. गहरवार(राठौर) 8. रैकवार 9. गौड़ या गौर 10. निमिवंश (कटहरिया) इत्यादि हैं।
2. चंद्रवंश से ये है: 1. यदुवंशी (जादौन, भाटी, जाडे़चा) 2. सोमवंशी 3. तंवर (जंधारे, कटियार) 4. चन्देल 5. करचुल (हैहय) 6. बैस (पायड, भाले सुल्तान) 7. पोलच 8. वाच्छिल 9. बनाफर 10. झाला (मकवाना)
3. अग्निवंश से ये हैः 1. परिहार 2. परमार (उज्जेने, डोडे, चावड़ा) 3. सोलंकी (जनवार, बघेले, सुरखी) 4. चैहान (हाड़ा, खींची, भदौरिया)
4. ऋषिवंश से ये है: 1. सेंगर 2. कनपुरिया 3. बिसैन 4. गौतम 5. दीक्षित 6. पुण्डीर 7. धाकरे भृगुवंशी 8. गर्गवंशी 9. पडि़पारिण देवल 10. दाहिमा
5. नागवंश से ये है: 1. टांक या तक्षक
6. भूम्मिवंश से ये है: 1. कटोच या कटोक्ष

उपरलिखित वंशों के संदर्भ में स्पष्ट किया है। राजपूतों में कोई भी अग्निवंशी नहीं है और न ही नागों या भूमि से उत्पन्न वंश ही हैं। ये सभी अलंकारिक नाम हैं। राजपूतों के सभी वंश ऋषियों की संतान हैं। इन्होंने सूर्यवंशी, बैस क्षत्रियों को चन्द्रवंश में लिखा है जो सही नहीं है, ये सूर्यवंशी है। भाले सुल्तान बैस वंश की एक शाखा है। जिसके नाम से सुल्तानपुर बसा है।

👏 शिव सिंह भुरटिया

शुक्रवार, 1 मई 2020

मेहा मांगळिया

महेन्द्रसिंह जी छायण 
द्वारा लिखित 
तथा शीघ्र ही प्रकाशित होने वाला
चर्चित प्रबन्ध-काव्य है
"मेहा मांगळिया "

इस प्रबन्ध-काव्य की
21 वीं कविता है -

              "हीरादे"

जो भी मायङ-भाषा में रूचि रखता है, वह इस कविता को जरूर पढें -
              
====================
हीरा! चंपै    वाळी   डाळ,
हीरा! विगसित समद-मराळ|
रूप री रति, हिंयै री हार,
विधाता घड़ी ज सांचै ढाळ||

अधर हा इमरतिया रस-कूप,
पुलकित  नीरज  दोनूं नैण|
नैह री  ऊंडी  नदियां  भौंह,
वाल्हा! जीव करण बेचैण||

कड़ियां  तांई  काळा  केस,
जांणै  नाग  व़ळाका  खाय|
गाल पर लटकंती   इक   लट,
मांणस-हिंय नै दै हिलकाय||

जांणै  हिमगिर  रा  हा अंस,
धवळा धट ऊजळिया दांत|
मोहक विधु-मुख रौ रूपास,
उडगण वाळी आगळ पांत||

ग्रीवा   डीगी  तीखौ   नाक,
चुतरपण घड़िया थकां कपोल|
सिरज्यौ  मानसरोवर   हंस, 
मरूथळ हीरा-सौ अणमोल़||

कंवळा-कुसुम हीर रा हाथ,
पगां री धीमी गज-सी चाल|
आछी आंगळियां  री  ओप,
गळै में सोहै मुक्तक  माल़||

हिलकतौ  वा़यरियै  में चीर,
अलेखूं हिंवड़ा दे  धड़काय|
वदन सूं नीकळिया मृदु बैण,
मही रौ कण-कण दै मुळकाय||

हीरा! सुणै ज कोयल कूक,
चुगावै चिड़कलियां  नै चूंण|
न्हावै निरमळ  सरवर  नीर,
जीवै  सतरंगी   भल  जूंण||

हींडै हरियल़  तरूवर  डाळ,
लफणां  छू  छू  वा  इतराय|
उतरती निरखै ऊजळ आभ,
नीलौ  आंख्यां  रंग  समाय||

रमै वौ  साथणियां  रै  साथ,
करै वौ हँसती थकी किलोळ|
पलकां झुकियौड़ी लै लाज,
हियै में जोबन भरै हिलोळ||

--महेंद्रसिंह सिसोदिया 'छायण'
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अनुज छायण की यह कविता श्रृंगार विधा में मिलेनियम-काव्य के रूप में उल्लेखित की जाएगी।
मैं इसे हिन्दी में पद्यबद्ध कर राजस्थानी भाषा की अपार क्षमता को सादर प्रणाम करता हूं !

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"मेहा" की प्रीतम वह "हीरा",
            चम्पा-की-शाखा थी सचमुच !
कहने को "आदम" थी लेकिन,
              सौंदर्य-मूर्तिका थी सचमुच !!
 
वह हीरा ऐसी थी मानो,
           तम रौंद रही इक "दक्ष-तङा" !
हद रूप, सुगन्ध, पल्लवन ले,
              सागर में चन्दन-वृक्ष खङा !!

था रूप "रति" सा हीरा का,
          वह हृदय-हार ! वह मतवाली !
मानो अपने ही हाथों से,
                     ईश्वर ने संचे में ढाली !!

सृष्टि में सुख के संचारक,
                 अमृत से भीगे दोनों लब !
मानो दो कूप भरे "रस" से,
               मानो आतुर हैं पृथ्वी-नभ !!

दो आंखें नीरजवन्त-दीप,
              जिनमें सारी सृष्टि का हित !
हद पुलकित, भाव-प्रधान, गहन,
        हद आब लिए, हद उल्लासित !!

भौंहें हीरा की यूं दिपदिप,
              मानो "कंदाल" लिए प्रहरी !
कर स्नेह-धार को आत्मसात,
                मानो दो नदियां है गहरी !!

वह हीरा सचमुच हीरा थी,
      नख-नख था उसका नवल, नूप !
बिखराता अदभुत बेचैनी,
          उस अनुपमा का धवल-रूप !!

कटि चूम रहे यूं कृष्ण-केश,
         ज्यूं "गुंजित-यौवन" लिए राग !
माया का प्रस्फुटन करता,
              मानो बल खाता महानाग !!

उसके गालों पर लटक रही,
       इक काली-लट क्योंकर अक्षम ?
कोई भी मन को वह अदनी,
             झकझोर डालने में सक्षम !!

मानो हिमगिर का अंश लिए,
          अत्यन्त उज्ज्वल, धवल दंत !
मानो विधु-मुख का रूप धार,
          उङते खग-दल के अग्र-कंत !!

लम्बी गर्दन पर शोभित मुख,
  उस मुख पर शोभित तिखन-नाक !
तब भव्य-रूप को निरख भुवन,
             आशाएं थामे आक-वाक !!

उन रक्तिम गालों को रब ने,
                 चतुराई लिए बनाया है !
मानो इक मानसरोवर-खग,
      हिम-आलय को तज आया है !!
     
वह खग परदेशी है फिर भी,
           पारंगत विविध विधाओं में !
अनमोल जवाहर मरुथल का,
           दीपित है दसों दिशाओं में !!

पुष्पों से कोमल उसके "कर",
       इक अदभुत सा आभास लिए !
अत्यन्त मुलायम अंगुलियां,
          इक वीरोचित विन्यास लिए !!

उस हीरा के दो चपल-चरण,
         गज जैसी मोहक चाल लिए !
रुनझुन करती दो पायल तब,
         अपनी ही मोहक-ताल लिए !!

उसके कंठों में खुद सोभित,
        अरु धन्य-धन्य मुक्तक-माला !
इक-इक मोती में उठउठती
        मानो इक शीतल सी ज्वाला !!

जब उङता आंचल अनायास,
           पवनों की मधुर-शरारत से !
उस वक्त हजारों हृदय-यंत्र,
       रुक-रुककर चलते आहत से !!

जब मृदुल-वचन झरते मुख से,
    तब धर का कण-कण मुस्काता !
संसार समूचा सचमुच ही,
          उस सम्मोहन में खो जाता !!

कोयल की कूकें सुनते ही,
            वह हीरा उपवन में आती !
अपनत्व भाव से करतल में,
         चिङियों को चुग्गा चुगवाती !!

सखियों के संग उतर जाती,
             निर्मल नाडों में वह नारी !
यूं सतरंगा-जीवन जीती,
        खुशियों को लेकर वह सारी !!

हर एक पैंग चढ वह हीरा,
       तरवर के शिखर को छू लेती !
तब भर-भर गुंजित-किलकारी,
       हरियल-जीवन को जी लेती !!

आकाश निरखती वह हीरा,
           जब वह झूला नीचे आता !
तब नभ का सारा नील-रंग,
        उसकी आंखों में घुल जाता !!

सखियों से सज्जित वह हीरा,
 कभी हांस चली, कभी रुक जाती !
क्रीङाएं करती विविध-विविध,
     आखिर में खुद भी थक जाती !!

और, तभी न जाने क्यूं,
          हीरा की पलकें झुक जाती !
हिल्लोल हजारों यौवन की,
          उसके अंतस में उठ जाती !!
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शुक्रवार, 17 अप्रैल 2020

दारू दुरगुण -दसक

दारू दुरगुण -दसक

पांच पैग लीधां पछै,
 पयड़ज्या जाडा पग्ग।
चलणो घर दिसियै चहै,
   मन ना  मानै मग्ग।।

 पांच पैग लीधां पछै,
धींगामसती धार।
गिण गिण देवै गाल़ियां,
सुद्ध बुद्ध री नी सार।।

 प्याला भर पीधा प्रतख ,
अणडर  अंधाधुंध।
राघड़ लड़ियो राम सूं,
दारू में दसकंध।।

 पी मद खुद री पांतर्यो,
मत निज री मतिमंद।
सुन में हरली सीत नै,
दारू में दसकंध।।

पी दारू परवारियो,
छता किया छल़छंद।
ठगली उण ठिठकारियै,
देख सीत दसकंध।।

बिनां पियां बजरंग वर,
सधरो तिर्यो समंद।
विलल़ै लंका बोड़दी,
दारू में दसकंध।।

 गी किडनी घर ई  गयो,
खिंड ग्या सकल़ खवाब।
भमियो इणविध भोगनो
सखा न तजी शराब।।
सुबह सांझ दोनां समै,
रीझ आध्योड़ी रात।
दारू !दारू!दोसतां,
बाचो आ की बात।।
            कवत्त
दारू री दिन रात,
विदग्ग की बातां बाचो।
व्हालां दो बतल़ाय,
 एक गुण इणमें आछो।
सूखै कंठ सदाय, 
घूंट इक भरियां गैरो।
जाडी पड़ज्या जीब,
चरित नै बदल़ै चैरो।
उदर में जल़न आंतड़ सड़ै,
पड़ै नही पग पाधरो।
किण काज आज सैणां कहो,
इण हाला नैं आदरो।।1

आय प्रथम आवेस,
केय फिर कल़हगारी।
मुर उर चिंता मांह,
  चतुर्थ फिर स्वच्छाचारी।
पाचन बिगड़ै पांच,
बदन में छठी बीमारी।
सप्तम हरलै सा'स,
बुद्धि आठमे बिगारी।
विटल़ नवम नर कुलल़ो बकै,
प्यालो ज्यां कर पेखियो।
कवि गीध दसम कहिये गुणी,
दारू पातक देखियो।।2

काढी चतुर कलाल़,
कहण री बातां कूड़ी।
सूगलवाडो साफ,
दखां जिथ उपज दारूड़ी।
नीच चीज मँझ नांख,
आसव रो घड़ो अणावै।
गुणियण बिनां गिलाण,
विटल़ नैं पैक बणावै।
तर तर बखाण दारू तणा,
नरां वडां मुख न्हाल़िया।
झूठ री नहीं इक जाणजो,
खोटी के घर खाल़िया।।3

पीधां सूं उतपात,
मिनख के वडा मचावै।
निबल़ो पड़झ्या निजर,
 नीच संग नाच नचावै।
ओछी बातां आख,
लाख री ईजत लेवै।
सदा गमावै साख, 
वाट पण ऊंधी बेवै।
सैण नैं गिणै अरियण समो, 
रेस देवण नैं रीसवै।
गुण एक इसो मानां गहर, 
दारू में नहीं दीसवै।।4

घूंट एक घट ढाल़,
बोलै फिर देखो बाड़ो।
नीच ऊंच डर नाय,
 करै फिर कोय कबाड़ो।
भलपण सारी भूल,
बिरड़ के काज बिगाड़ै।
दिल ढाकी सह दाख,
 असँक फिर जबर उगाड़ै।
आपनै सदा साचो अखै,
(पण)कैवै बसती कूड़ियो।
सैण री सान लेवै सदा,
 दूठ मिनख दारूड़ियो।।5

निज नारी पर रोस,
खीझियो नितरो खावै।
जिण रो हर कज जोय, 
विदक दिन रात विगोवै।
आवै ओ अधरात,
सदन तूफांन सरीखो।
बटका भरतो बोल,
तोत में रैवत तीखो।
कांमणी डरप कांनै रहै, 
बीहा रहे बाकोटिया।
सुरा री बात किण कज सही,
खंच खंच भाखै खोटिया।।6

दरद गमावण दवा,
केक नर दाना कैवै।
इण सारू ई आप,
 लुकी नै हाला लैवै।
गमै पैल तो गरथ,
 दूसरी सुध बुध देखो।
सोल़ो लगै सरीर,
छेद फिर काल़ज छेको।
रोग रो जोग जुड़ियो रहै,
सुरापांन रै स्वाद में।
 साम रै दिया नाही सरै ,
मरै बिनां ई म्याद में।।7
करण हथाई काज,
भाव सूं बैठै भेल़ा।
तण तण ऊंची तांण,
सज्जन मन करण समेल़ा।
बण यारां रा यार,
जांण घण हेत जतावै।
पुरसै कर कर प्यार,
खार पण ढकियो खावै।
ऊठसी जदै करसी अवस, 
धन लारै झट धूड़िया।
छीपिया नहीं रहसी छता,
देखो नर दारूड़िया।।8


मद पिवै कर मोद,
जिकै रद करै जवानी।
मद पियै कर मोद,
जिकै हद लड़ै जबानी।
मद पियै कर मोद,
सुद्ध नुं साव शरीरां।
मद पियै कर मोद,
फेर पद पाय फकीरां।
मद मांय होस पूरो मिटै,
 मरट पिटै फिर मानजो।
सैण सूं कटै सिटल़ाय तन,
सदन घटै नित शान जो।।9

दारू हंदा दोस ,
जोस में नहीं जणाया।
मोटै कवियां मांड,
  सधर भर भाव सुणाया।
करण कविता काट,
जुगत सूं भाव जगाया
ज्यूं रा ज्यू ई जोड़,
 प्रेम सूं कवी पुगाया।
रीस करो भल ,भल रीझ अब, 
गढवियां सुणजो गुणी।
हर जात तणो हित जाण हिव, 
भाल़ गिरधरै आ भणी।।10

गिरधरदान रतनू दासोड़ी

मंगलवार, 14 अप्रैल 2020

समय बड़ो बलवान



समय बड़ो बलवान
 जाने जहान सारो,
अवनी बड़े विद्वान कही गए ध्यान ते।
सूर की छिंयारी  भाई तीन वेर फिरि जात,
चंद्र भी गुजारे दीह सुन्यो अपमान ते।
मुरलोक नाथ हूं की लुटी घर नारी सारी ,
रुकी नहीं देखो जरा पाथ हूं के बान ते।
गिरधरदान 
सुन सावधान  होय बात
 केते केते बली कटे समय की कृपान ते।।

 समय  की मार झेली  
राजा हरिचंद जोवो,
सत्य को पूजारी भाई नेक थररायो नीं।
समय की झाट पंडव के थाटबाट गए,
सत्य हूं की वाट हों से मन विचलायो नीं।
समय भार  रंतिदेव अन्न को बिख्यो भोग्यो
सत पे अडग रह्यो  दिलगीरी लायो नीं।
समय की चोट झेल हुए जमीदोट जो तो,
वांको आज तांई जग नाम बतरायो नीं।।

 पलटि गयो समै जान महारान पत्ता  को,
दुख में अडग वो  रखन चख पानी को।
 उलटि समै  अटल दुर्गादास प्रण हूं पे,
रह्यो वीर थिर वो  रक्षक रजधानी को।
चिकनी रोटी को देख शिवो ललचायो नहीं,
समै विपरीत भयो रूप  हिंदवानी को।
कहै गिरधरदान सुनिए सुजान प्यारे,
 मुढ मैं सुनाऊं सुनी पूनि ग्यानी ध्यानी को।।

वक्त के तकाजे  खाए साक पात देख पता,
आजादी विसारी नहीं झेल सेल छाती पे। 
अस हूं की पीठ बजा रीठ दुर्ग स्वामी काज,
समय को बताय धत्ता चखन राती पे।
शिवा सो सपूत रह्यो रण मजबूत मन ,
समय  को खेल मान धार वार घाती पे।
 गीध मुर नरन के चरन बलिहार ले,
धरन पे अमर  गौरव निज जाती के।।
गिरधरदान रतनू दासोड़ी

शनिवार, 4 अप्रैल 2020

राठौड वंश की कुल देवी माँ नागणेची जी का इतिहास

राठौड वंश की कुल देवी माँ नागणेची जी का इतिहास

एक बार बचपन में राव धुहड जी ननिहाल गए , तो वहां उन्होने अपने मामा का बहुत बडा पेट देखा ।बेडोल पेट देखकर वे अपनी हँसी रोक नही पाएं ।और जोर जोर से हस पडे ।तब उनके मामा को गुस्सा आ गया और उन्होने राव धुहडजी से कहा की सुन भांनजे । तुम तो मेरा बडा पेट देखकर हँस रहे होकिन्तु तुम्हारे परिवार को बिनाकुलदेवी देखकर सारी दुनिया हंसती हैतुम्हारे दादाजी तो कुलदेवी की मूर्ति भी साथ लेकर नही आ सकेतभी तो तुम्हारा कही स्थाई ठोड-ठिकाना नही बन पा रहा हैमामा के ये कडवे बोल राव धुहडजी के ह्रदय में चुभ गयेउन्होने उसी समय मन ही मन निश्चयकिया की मैं अपनी कूलदेवी की मूर्ति अवश्य लाऊगां ।और वे अपने पिताजी राव आस्थानजी के पास खेड लोट आएकिन्तु बाल धुहडजी को यह पता नहीथा कि कुलदेवी कौन हैउनकी मूर्ति कहा है ।और वह केसे लाई जा सकती है ।आखिर कार उन्होने सोचा की क्यो नतपस्या करके देवी को प्रसन्न करूं ।वे प्रगट हो कर मुझे सब कुछ बता देगी ।और एक दिन बालक राव धुहडजी चुपचाप घर से निकल गये ।और जंगल मे जा पहुंचे ।वहा अन्नजल त्याग कर तपस्या करने लगे ।बालहट के कारण आखिर देवी का ह्रदय पसीजा ।उन्हे तपस्या करते देख देवी प्रकट हुई ।तब बालक राव धुहडजी ने देवी को आप बीती बताकर कहा की हे माता ! मेरी कुलदेवी कौन है ।और उनकी मूर्ति कहा है ।और वह केसे लाई जा सकती है ।देवी ने स्नेह पूर्वक उनसे कहा की सून बालक !तुम्हारी कुलदेवी का नाम चक्रेश्वरी है ।और उनकी मूर्ति कन्नौज मे है ।तुम अभी छोटे हो ,बडे होने पर जा पाओगें ।तुम्हारी आस्था देखकर मेरा यही कहना है । की एक दिन अवश्य तुम हीउसे लेकर आओगे ।किन्तु तुम्हे प्रतीक्षा करनी होगी ।कलांतर में राव आस्थानजी का सवर्गवास हुआ ।और राव धुहडजी खेड के शासक बनें ।तब एक दिन !राजपूरोहित पीथडजी को साथ लेकर राव धूहडजी कन्नौज रवाना हुए ।कन्नौज में उन्हें गुरू लुंम्ब रिषि मिले ।उन्होने उन्हे माता चक्रेश्वरी की मूर्ति के दर्शन कराएं और कहाकी यही तुम्हारी कुलदेवी है ।इसे तुम अपने साथ ले जा सकते हो ।जब राव धुहडजी ने कुलदेवी की मूर्ति को विधिवत् साथ लेने का उपक्रम किया तो अचानक कुलदेवी की वाणी गुंजी - ठहरो पूत्र !में ऐसे तुम्हारे साथ नही चलूंगी ! में पंखिनी ( पक्षिनी )के रूप में तुम्हारे साथ चलूंगीतब राव धुहडजी ने कहा हे माँ मुझे विश्वास केसे होगा की आप मेरे साथ चल रही है ।तब माँ कुलदेवी ने कहा जब तक तुम्हें पंखिणी के रूप में तुम्हारे साथ चलती दिखूं तुम यह समझना की तुम्हारी कुलदेवी तुम्हारे साथ है ।लेकिन एक बात का ध्यान रहे , बीच में कही रूकना मत ।राव धुहडजी ने कुलदेवी का आदेश मान कर वैसे ही किया ।राव धुहडजीकन्नौज से रवाना होकर नागाणा ( आत्मरक्षा ) पर्वत के पास पहुंचते पहुंचते थक चुके थे ।तब विश्राम के लिए एक नीम के नीचे तनिक रूके ।अत्यधिक थकावट के कारण उन्हें वहा नीदं आ गई ।जब आँख खुली तो देखा की पंखिनी नीम वृक्ष पर बैठी है ।राव धुहडजी हडबडाकर उठें और आगे चलने को तैयार हुए तो कुलदेवी बोली पुत्र , मैनें पहले ही कहा था कि जहां तुम रूकोगें वही मैं भी रूक जाऊंगी और फिर आगे नही चलूंगी ।अब मैं आगे नही चलूंगी ।तब राव धूहडजी ने कहा की हें माँ अब मेरे लिए क्या आदेश है ।कुलदेवी बोली की तुम ऐसा करना की कल सुबह सवा प्रहर दिन चढने से पहले - पहले अपना घोडा जहाॅ तकसंभव हो वहा तक घुमाना यही क्षैत्र अब मेरा ओरण होगा और यहां मै मूर्ति रूप में प्रकट होऊंगी ।तब राव धुहडजी ने पूछा कीहे माँ इस बात का पता कैसे चलेगा की आप प्रकट हो चूकी है । तब कुलदेवी ने कहा कि पर्वत पर जोरदार गर्जना होगी बिजलियां चमकेगी और पर्वत से पत्थर दूर दूर तक गिरने लगेंगे उस समय । मैं मूर्ति रूप में प्रकट होऊंगी ।किन्तु एक बात का ध्यान रहे , मैंजब प्रकट होऊंगी तब तुम ग्वालिये से कह देना कि वह गायोंको हाक न करे , अन्यथा मेरी मूर्ति प्रकट होते होते रूक जाएगी ।अगले दिन सुबह जल्दी उठकर राव धुहडजी ने माता के कहने के अनुसार अपना घोडा चारों दिशाओं में दौडाया और वहां के ग्वालिये से कहा की गायों को रोकने के लिए आवाज मत करना , चुप रहना , तुम्हारी गाये जहां भी जाएगी ,मैवहां से लाकर दूंगा ।कुछ ही समय बाद अचानक पर्वत पर जोरदार गर्जना होने लगी , बिजलियां चमकने लगी और ऐसा लगने लगा जैसे प्रलय मचने वाला हो ।डर के मारे ग्वालिये की गाय इधर -उधर भागने लगी ग्वालियां भी कापने लगा ।इसके साथ ही भूमि से कुलदेवी की मूर्ति प्रकट होने लगी । तभी स्वभाव वश ग्वालिये के मुह से गायों को रोकने के लिए हाक की आवाज निकल गई । बस, ग्वालिये के मुह से आवाज निकलनी थी की प्रकट होती होती मुर्ति वही थम गई ।केवल कटि तक ही भूमि से मूर्ति बाहर आ सकी ।देवी का वचन था । वह भला असत्य कैसे होता ।राव धुहडजी ने होनी को नमस्कार किया । और उसी अर्ध प्रकट मूर्तिके लिए सन् 1305, माघ वदी दशम सवत् 1362 ई. में मन्दिर का निर्माण करवाया ,क्योकि " चक्रेश्वरी " नागाणा में मूर्ति रूप में प्रकटी ,अतः वह चारों और " नागणेची " रूप में प्रसिध्ध हुई ।इस प्रकार मारवाड में राठौडों की कुलदेवी नागणेची कहलाई ।    जय माँ नागणेश्वरी