शुक्रवार, 1 मई 2020

मेहा मांगळिया

महेन्द्रसिंह जी छायण 
द्वारा लिखित 
तथा शीघ्र ही प्रकाशित होने वाला
चर्चित प्रबन्ध-काव्य है
"मेहा मांगळिया "

इस प्रबन्ध-काव्य की
21 वीं कविता है -

              "हीरादे"

जो भी मायङ-भाषा में रूचि रखता है, वह इस कविता को जरूर पढें -
              
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हीरा! चंपै    वाळी   डाळ,
हीरा! विगसित समद-मराळ|
रूप री रति, हिंयै री हार,
विधाता घड़ी ज सांचै ढाळ||

अधर हा इमरतिया रस-कूप,
पुलकित  नीरज  दोनूं नैण|
नैह री  ऊंडी  नदियां  भौंह,
वाल्हा! जीव करण बेचैण||

कड़ियां  तांई  काळा  केस,
जांणै  नाग  व़ळाका  खाय|
गाल पर लटकंती   इक   लट,
मांणस-हिंय नै दै हिलकाय||

जांणै  हिमगिर  रा  हा अंस,
धवळा धट ऊजळिया दांत|
मोहक विधु-मुख रौ रूपास,
उडगण वाळी आगळ पांत||

ग्रीवा   डीगी  तीखौ   नाक,
चुतरपण घड़िया थकां कपोल|
सिरज्यौ  मानसरोवर   हंस, 
मरूथळ हीरा-सौ अणमोल़||

कंवळा-कुसुम हीर रा हाथ,
पगां री धीमी गज-सी चाल|
आछी आंगळियां  री  ओप,
गळै में सोहै मुक्तक  माल़||

हिलकतौ  वा़यरियै  में चीर,
अलेखूं हिंवड़ा दे  धड़काय|
वदन सूं नीकळिया मृदु बैण,
मही रौ कण-कण दै मुळकाय||

हीरा! सुणै ज कोयल कूक,
चुगावै चिड़कलियां  नै चूंण|
न्हावै निरमळ  सरवर  नीर,
जीवै  सतरंगी   भल  जूंण||

हींडै हरियल़  तरूवर  डाळ,
लफणां  छू  छू  वा  इतराय|
उतरती निरखै ऊजळ आभ,
नीलौ  आंख्यां  रंग  समाय||

रमै वौ  साथणियां  रै  साथ,
करै वौ हँसती थकी किलोळ|
पलकां झुकियौड़ी लै लाज,
हियै में जोबन भरै हिलोळ||

--महेंद्रसिंह सिसोदिया 'छायण'
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अनुज छायण की यह कविता श्रृंगार विधा में मिलेनियम-काव्य के रूप में उल्लेखित की जाएगी।
मैं इसे हिन्दी में पद्यबद्ध कर राजस्थानी भाषा की अपार क्षमता को सादर प्रणाम करता हूं !

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"मेहा" की प्रीतम वह "हीरा",
            चम्पा-की-शाखा थी सचमुच !
कहने को "आदम" थी लेकिन,
              सौंदर्य-मूर्तिका थी सचमुच !!
 
वह हीरा ऐसी थी मानो,
           तम रौंद रही इक "दक्ष-तङा" !
हद रूप, सुगन्ध, पल्लवन ले,
              सागर में चन्दन-वृक्ष खङा !!

था रूप "रति" सा हीरा का,
          वह हृदय-हार ! वह मतवाली !
मानो अपने ही हाथों से,
                     ईश्वर ने संचे में ढाली !!

सृष्टि में सुख के संचारक,
                 अमृत से भीगे दोनों लब !
मानो दो कूप भरे "रस" से,
               मानो आतुर हैं पृथ्वी-नभ !!

दो आंखें नीरजवन्त-दीप,
              जिनमें सारी सृष्टि का हित !
हद पुलकित, भाव-प्रधान, गहन,
        हद आब लिए, हद उल्लासित !!

भौंहें हीरा की यूं दिपदिप,
              मानो "कंदाल" लिए प्रहरी !
कर स्नेह-धार को आत्मसात,
                मानो दो नदियां है गहरी !!

वह हीरा सचमुच हीरा थी,
      नख-नख था उसका नवल, नूप !
बिखराता अदभुत बेचैनी,
          उस अनुपमा का धवल-रूप !!

कटि चूम रहे यूं कृष्ण-केश,
         ज्यूं "गुंजित-यौवन" लिए राग !
माया का प्रस्फुटन करता,
              मानो बल खाता महानाग !!

उसके गालों पर लटक रही,
       इक काली-लट क्योंकर अक्षम ?
कोई भी मन को वह अदनी,
             झकझोर डालने में सक्षम !!

मानो हिमगिर का अंश लिए,
          अत्यन्त उज्ज्वल, धवल दंत !
मानो विधु-मुख का रूप धार,
          उङते खग-दल के अग्र-कंत !!

लम्बी गर्दन पर शोभित मुख,
  उस मुख पर शोभित तिखन-नाक !
तब भव्य-रूप को निरख भुवन,
             आशाएं थामे आक-वाक !!

उन रक्तिम गालों को रब ने,
                 चतुराई लिए बनाया है !
मानो इक मानसरोवर-खग,
      हिम-आलय को तज आया है !!
     
वह खग परदेशी है फिर भी,
           पारंगत विविध विधाओं में !
अनमोल जवाहर मरुथल का,
           दीपित है दसों दिशाओं में !!

पुष्पों से कोमल उसके "कर",
       इक अदभुत सा आभास लिए !
अत्यन्त मुलायम अंगुलियां,
          इक वीरोचित विन्यास लिए !!

उस हीरा के दो चपल-चरण,
         गज जैसी मोहक चाल लिए !
रुनझुन करती दो पायल तब,
         अपनी ही मोहक-ताल लिए !!

उसके कंठों में खुद सोभित,
        अरु धन्य-धन्य मुक्तक-माला !
इक-इक मोती में उठउठती
        मानो इक शीतल सी ज्वाला !!

जब उङता आंचल अनायास,
           पवनों की मधुर-शरारत से !
उस वक्त हजारों हृदय-यंत्र,
       रुक-रुककर चलते आहत से !!

जब मृदुल-वचन झरते मुख से,
    तब धर का कण-कण मुस्काता !
संसार समूचा सचमुच ही,
          उस सम्मोहन में खो जाता !!

कोयल की कूकें सुनते ही,
            वह हीरा उपवन में आती !
अपनत्व भाव से करतल में,
         चिङियों को चुग्गा चुगवाती !!

सखियों के संग उतर जाती,
             निर्मल नाडों में वह नारी !
यूं सतरंगा-जीवन जीती,
        खुशियों को लेकर वह सारी !!

हर एक पैंग चढ वह हीरा,
       तरवर के शिखर को छू लेती !
तब भर-भर गुंजित-किलकारी,
       हरियल-जीवन को जी लेती !!

आकाश निरखती वह हीरा,
           जब वह झूला नीचे आता !
तब नभ का सारा नील-रंग,
        उसकी आंखों में घुल जाता !!

सखियों से सज्जित वह हीरा,
 कभी हांस चली, कभी रुक जाती !
क्रीङाएं करती विविध-विविध,
     आखिर में खुद भी थक जाती !!

और, तभी न जाने क्यूं,
          हीरा की पलकें झुक जाती !
हिल्लोल हजारों यौवन की,
          उसके अंतस में उठ जाती !!
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