महेन्द्रसिंह जी छायण
द्वारा लिखित
तथा शीघ्र ही प्रकाशित होने वाला
चर्चित प्रबन्ध-काव्य है
"मेहा मांगळिया "
इस प्रबन्ध-काव्य की
21 वीं कविता है -
"हीरादे"
जो भी मायङ-भाषा में रूचि रखता है, वह इस कविता को जरूर पढें -
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हीरा! चंपै वाळी डाळ,
हीरा! विगसित समद-मराळ|
रूप री रति, हिंयै री हार,
विधाता घड़ी ज सांचै ढाळ||
अधर हा इमरतिया रस-कूप,
पुलकित नीरज दोनूं नैण|
नैह री ऊंडी नदियां भौंह,
वाल्हा! जीव करण बेचैण||
कड़ियां तांई काळा केस,
जांणै नाग व़ळाका खाय|
गाल पर लटकंती इक लट,
मांणस-हिंय नै दै हिलकाय||
जांणै हिमगिर रा हा अंस,
धवळा धट ऊजळिया दांत|
मोहक विधु-मुख रौ रूपास,
उडगण वाळी आगळ पांत||
ग्रीवा डीगी तीखौ नाक,
चुतरपण घड़िया थकां कपोल|
सिरज्यौ मानसरोवर हंस,
मरूथळ हीरा-सौ अणमोल़||
कंवळा-कुसुम हीर रा हाथ,
पगां री धीमी गज-सी चाल|
आछी आंगळियां री ओप,
गळै में सोहै मुक्तक माल़||
हिलकतौ वा़यरियै में चीर,
अलेखूं हिंवड़ा दे धड़काय|
वदन सूं नीकळिया मृदु बैण,
मही रौ कण-कण दै मुळकाय||
हीरा! सुणै ज कोयल कूक,
चुगावै चिड़कलियां नै चूंण|
न्हावै निरमळ सरवर नीर,
जीवै सतरंगी भल जूंण||
हींडै हरियल़ तरूवर डाळ,
लफणां छू छू वा इतराय|
उतरती निरखै ऊजळ आभ,
नीलौ आंख्यां रंग समाय||
रमै वौ साथणियां रै साथ,
करै वौ हँसती थकी किलोळ|
पलकां झुकियौड़ी लै लाज,
हियै में जोबन भरै हिलोळ||
--महेंद्रसिंह सिसोदिया 'छायण'
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अनुज छायण की यह कविता श्रृंगार विधा में मिलेनियम-काव्य के रूप में उल्लेखित की जाएगी।
मैं इसे हिन्दी में पद्यबद्ध कर राजस्थानी भाषा की अपार क्षमता को सादर प्रणाम करता हूं !
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"मेहा" की प्रीतम वह "हीरा",
चम्पा-की-शाखा थी सचमुच !
कहने को "आदम" थी लेकिन,
सौंदर्य-मूर्तिका थी सचमुच !!
वह हीरा ऐसी थी मानो,
तम रौंद रही इक "दक्ष-तङा" !
हद रूप, सुगन्ध, पल्लवन ले,
सागर में चन्दन-वृक्ष खङा !!
था रूप "रति" सा हीरा का,
वह हृदय-हार ! वह मतवाली !
मानो अपने ही हाथों से,
ईश्वर ने संचे में ढाली !!
सृष्टि में सुख के संचारक,
अमृत से भीगे दोनों लब !
मानो दो कूप भरे "रस" से,
मानो आतुर हैं पृथ्वी-नभ !!
दो आंखें नीरजवन्त-दीप,
जिनमें सारी सृष्टि का हित !
हद पुलकित, भाव-प्रधान, गहन,
हद आब लिए, हद उल्लासित !!
भौंहें हीरा की यूं दिपदिप,
मानो "कंदाल" लिए प्रहरी !
कर स्नेह-धार को आत्मसात,
मानो दो नदियां है गहरी !!
वह हीरा सचमुच हीरा थी,
नख-नख था उसका नवल, नूप !
बिखराता अदभुत बेचैनी,
उस अनुपमा का धवल-रूप !!
कटि चूम रहे यूं कृष्ण-केश,
ज्यूं "गुंजित-यौवन" लिए राग !
माया का प्रस्फुटन करता,
मानो बल खाता महानाग !!
उसके गालों पर लटक रही,
इक काली-लट क्योंकर अक्षम ?
कोई भी मन को वह अदनी,
झकझोर डालने में सक्षम !!
मानो हिमगिर का अंश लिए,
अत्यन्त उज्ज्वल, धवल दंत !
मानो विधु-मुख का रूप धार,
उङते खग-दल के अग्र-कंत !!
लम्बी गर्दन पर शोभित मुख,
उस मुख पर शोभित तिखन-नाक !
तब भव्य-रूप को निरख भुवन,
आशाएं थामे आक-वाक !!
उन रक्तिम गालों को रब ने,
चतुराई लिए बनाया है !
मानो इक मानसरोवर-खग,
हिम-आलय को तज आया है !!
वह खग परदेशी है फिर भी,
पारंगत विविध विधाओं में !
अनमोल जवाहर मरुथल का,
दीपित है दसों दिशाओं में !!
पुष्पों से कोमल उसके "कर",
इक अदभुत सा आभास लिए !
अत्यन्त मुलायम अंगुलियां,
इक वीरोचित विन्यास लिए !!
उस हीरा के दो चपल-चरण,
गज जैसी मोहक चाल लिए !
रुनझुन करती दो पायल तब,
अपनी ही मोहक-ताल लिए !!
उसके कंठों में खुद सोभित,
अरु धन्य-धन्य मुक्तक-माला !
इक-इक मोती में उठउठती
मानो इक शीतल सी ज्वाला !!
जब उङता आंचल अनायास,
पवनों की मधुर-शरारत से !
उस वक्त हजारों हृदय-यंत्र,
रुक-रुककर चलते आहत से !!
जब मृदुल-वचन झरते मुख से,
तब धर का कण-कण मुस्काता !
संसार समूचा सचमुच ही,
उस सम्मोहन में खो जाता !!
कोयल की कूकें सुनते ही,
वह हीरा उपवन में आती !
अपनत्व भाव से करतल में,
चिङियों को चुग्गा चुगवाती !!
सखियों के संग उतर जाती,
निर्मल नाडों में वह नारी !
यूं सतरंगा-जीवन जीती,
खुशियों को लेकर वह सारी !!
हर एक पैंग चढ वह हीरा,
तरवर के शिखर को छू लेती !
तब भर-भर गुंजित-किलकारी,
हरियल-जीवन को जी लेती !!
आकाश निरखती वह हीरा,
जब वह झूला नीचे आता !
तब नभ का सारा नील-रंग,
उसकी आंखों में घुल जाता !!
सखियों से सज्जित वह हीरा,
कभी हांस चली, कभी रुक जाती !
क्रीङाएं करती विविध-विविध,
आखिर में खुद भी थक जाती !!
और, तभी न जाने क्यूं,
हीरा की पलकें झुक जाती !
हिल्लोल हजारों यौवन की,
उसके अंतस में उठ जाती !!
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