“बारात चल पड़ी है। गाँव समीप आ गया है इसलिए घुड़सवार
घोड़ों को दौड़ाने लगे हैं। ऊँट दौड़ कर रथ से आगे निकल गए हैं ।
गाँव में ढोल और नक्कारे बज रहे हैं –
दुल्हा-दुल्हिन एक विमान पर बैठे हैं । दुल्हे के हाथ में दुल्हिन का
हाथ है । हाथ का गुदगुदा स्पर्श अत्यन्त ही मधुर है। दासी पूछ
रही है -“सुहागरात के लिए सेज किस महल में सजाऊँ? इतने में
विमान ऊपर उड़ पड़ा।।’
विमान के ऊपर उड़ने से एक झटका-सा अनुभव हुआ और
सुजाणसिंह की नीद खुल गई । मधुर स्वप्न भंग हुआ । उसने लेटे ही
लेटे देखा, पास में रथ ज्यों का त्यों खड़ा था । ऊँट एक ओर बैठे
जुगाली कर रहे थे । कुछ आदमी सो रहे थे
और कुछ बैठे हुए हुक्का पी रहे थे । अभी धूप काफी थी । बड़ के
पत्तों से छन-छन कर आ रही धूप से अपना मुँह बचाने के लिए उसने
करवट बदली ।
‘‘आज रात को तो चार-पाँच कोस पर ही ठहर जायेंगे । कल
प्रात:काल गाँव पहुँचेंगे । संध्या समय बरात का गाँव में जाना
ठीक भी नहीं है ।’
लेटे ही लेटे सुजाणसिंह ने सोचा और फिर करवट बदली । इस समय
रथ सामने था । दासी जल की झारी अन्दर दे रही थी ।
सुजाणसिंह ने अनुमान लगाया –
‘‘वह सो नहीं रही है, अवश्य ही मेरी ओर देख रही होगी ।’
दुल्हिन का अपनी ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए उसने
बनावटी ढंग से खाँसा । उसने देखा – रथ की बाहरी झालर के
नीचे फटे हुए कपड़े में से दो भाव-पूर्ण नैन उस ओर टकटकी लगाए
देख रहे थे । उनमें संदेश, निमंत्रण, जिज्ञासा, कौतूहल और सरलता
सब कुछ को उसने एक साथ ही अनुभव कर लिया । उसका उन
नेत्रों में नेत्र गड़ाने का साहस न हुआ । दूसरी ओर करवट बदल कर
वह फिर सोने का उपक्रम करने लगा । लम्बी यात्रा की थकावट
और पिछली रातों की अपूर्ण निद्रा के कारण उसकी फिर आँख
लगी अवश्य, पर दिन को एक बार निद्रा भंग हो जाने पर दूसरी
बार वह गहरी नहीं आती । इसलिए सुजाणसिंह की कभी आँख
लग जाती और कभी खुल जाती । अर्द्ध निद्रा, अर्द्ध स्वप्न और
अर्द्ध जागृति की अवस्था थी वह । निद्रा उसके साथ ऑख-
मिचौनी सी खेल रही
थी । इस बार वह जगा ही था कि उसे सुनाई दिया
“कुल मे है तो जाण सुजाण, फौज देवरे आई।’
“राजपूत का किसने आह्वान किया है ? किसकी फौज और
किस देवरे पर आई है ?”
सहसा सुजाणसिंह के मन में यह प्रश्न उठ खड़े हुए । वह उठना ही
चाहता था कि उसे फिर सुनाई पड़ा –
‘‘झिरमिर झिरमिर मेवा बरसै, मोरां छतरी छाई।’’
कुल में है तो जाण सुजाण, फौज देवरे आई।”
‘‘यहाँ हल्ला मत करो ? भाग जाओ यहाँ से ?‘‘ एक सरदार को
हाथ में घोड़े की चाबुक लेकर ग्वालों के पीछे दौड़ते हुए उन्हें
फटकारते हुए सुजाणसिंह ने देखा ।
“ठहरों जी ठहरो । ये ग्वाले क्या कह रहे हैं ? इन्हें वापिस मेरे पास
बुलाओ ।’ सुजाणसिंह ने कहा –
“कुछ नहीं महाराज ! लड़के हैं,यों ही बकते हैं । … ने हल्ला मचा कर
नीद खराब कर दी |” …… एक लच्छेदार गाली ग्वालों को सरदार
ने दे डाली ।
“नहीं ! मैं उनकी बात सुनना चाहता हूँ ।’
“महाराज ! बच्चे हैं वे तो । उनकी क्या बात सुनोगे ?’
“उन्होंने जो गीत गाया, उसका अर्थ पूछना चाहता हूँ ।’
“गंवार छोकरे हैं । यों ही कुछ बक दिया है। आप तो घड़ी भर
विश्राम कर लीजिए फिर रवाना होंगे ।’’
“पहले मैं उस गीत का अर्थ समझुंगा और फिर यहाँ से चलना होगा
।’
‘‘उस गीत का अर्थ. ।’’ कहते हुए सरदार ने गहरा निःश्वास छोड़ा
और फिर वह रुक गया |
“हाँ हाँ कहों, रुकते क्यों हो बाबाजी?”
“पहले बरात को घर पहुँचने दो फिर अर्थ बताएगे”
‘आप अभी बच्चे हैं । विवाह के मांगलिक कार्य में कहीं विघ्न पड़
जायगा ।’’
“मैं किसी भी विघ्न से नहीं डरता ।
आप तो मुझे उसका अर्थ…… I’
‘‘मन्दिर को तोड़ने के लिए पातशाह की फौज आई है । यही अर्थ
है उस का।’’
“कौनसा मन्दिर ?’
“खण्डेले का मोहनजी का मन्दिर ।’
‘‘मन्दिर की रक्षा के लिए कौन तैयार हो रहे हैं ?’
‘‘कोई नहीं।’’ ‘‘क्यों ?’
‘‘किसमें इतना साहस है जो पातशाह की फौज से टक्कर ले सके ।
हरिद्वार, काशी, वृन्दावन, मथुरा आदि के हजारों मन्दिर
तुड़वा दिए हैं, किसी ने चूँ तक नहीं की ‘‘
“पर यहाँ तो राजपूत बसते हैं।’’
“मौत के मुँह में हाथ देने का किसी में साहस नहीं है ।
“मुझ में साहस है । मैं मौत के मुँह में हाथ दूँगा । सुजाणसिंह के जीते
जी तुर्क की मन्दिर पर छाया भी नहीं पड़ सकती । भूमि
निर्बीज नहीं हुई, भारत माता की पवित्र गोद से क्षत्रियत्व
कभी भी निःशेष नहीं हो सकता । यदि गौ, ब्राह्मण और
मन्दिरों की रक्षा के लिए यह शरीर काम आ जाय तो इससे
बढ़कर सौभाग्य होगा ही क्या ? शीघ्र घोड़ों पर जीन किए
जाएँ ?’ कहते हुए सुजाणसिंह उठ खड़ा हुआ ।
परन्तु आपके तो अभी काँकण डोरे (विवाह-कंगन) भी नहीं खुले हैं
।
“कंकण-डोरडे अब मोहनजी कचरणों में ही खुलेंगे ।।’
बात की बात में पचास घोड़े सजकर तैयार हो गए । एक बरात का
कार्य पूरा हुआ, अब दूसरी बरात की तैयारी होने लगी
। सुजाणसिंह ने घोड़े पर सवार होते हुए रथ की ओर देखा – कोई
मेहन्दी लगा हुआ सुकुमार हाथ रथ से बाहर निकाल कर अपना
चूड़ा बतला रहा था । सुजाणसिंह मन ही मन उस मूक भाषा को
समझ गया।
“अन्य लोग जल्दी से जल्दी घर पहुँच जाओ ।’ कहते हुए सुजाणसिंह
ने घोड़े का मुँह खण्डेला की ओर किया और एड़ लगा दी । वन के
मोरों ने पीऊ-पीऊ पुकार कर विदाई दी ।
मार्ग के गाँवों ने देखा कोई बरात जा रही थी । गुलाबी रंग का
पायजामा, केसरिया बाना, केसरिया पगड़ी और तुर्रा-कलंगी
लगाए हुए दूल्हा सबसे आगे था और पीछे केसरिया-कसूमल पार्गे
बाँधे पचास सवार थे । सबके हाथों में तलवारें और भाले थे । बड़ी
ही विचित्र बरात थी वह । घोड़ों को तेजी से दौड़ाये जा रहे
थे, न किसी के पास कुछ सामान था और न अवकास ।
दूसरे गाँव वालों ने दूर से ही देखा – कोई बरात आ रही थी । मारू
नगाड़ा बज रहा था; खन्मायच राग गाई जा रही थी, केसरिया-
कसूमल बाने चमक रहे थे, घोड़े पसीने से तर और सवार उन्मत्त थे ।
मतवाले होकर झूम रहे थे ।
खण्डेले के समीप पथरीली भूमि पर बड़गड़ बड़गड़ घोड़ों की टापें
सुनाई दीं । नगर निवासी भयभीत होकर इधर-उधर दौड़ने लगे ।
औरते घरों में जा छिपी । पुरूषों ने अन्दर से किंवाड़ बन्द कर लिए
। बाजार की दुकानें बन्द हो गई । जिधर देखो उधर भगदड़ ही
भगदड़ थी ।
“तुर्क आ गये, तुर्क आ गये “ की आवाज नगर के एक कोने से उठी
और बात की बात में दूसरे कोने तक पहुँच गई । पानी लाती हुई
पनिहारी, दुकान बन्द करता हुआ महाजन और दौड़ते हुए बच्चों के
मुँह से केवल यही आवाज निकल रही थी- “तुर्क आ गये हैं, तुर्क आ
गये हैं “ मोहनजी के पुजारी ने मन्दिर के पट बन्द कर लिए । हाथ में
माला लेकर वह नारायण कवच का जाप करने लगा, तुर्क को
भगाने के लिए भगवान से प्रार्थना करने लगा ।
इतने में नगर में एक ओर से पचास घुड़सवार घुसे । घोड़े पसीने से तर
और सवार मतवाले थे । लोगों ने सोचा –
‘‘यह तो किसी की बरात है, अभी चली जाएगी ।’
घोड़े नगर का चक्कर काट कर मोहनजी के मन्दिर के सामने आकर
रुक गए । दूल्हा ने घोड़े से उतर कर भगवान की मोहिनी मूर्ति
को साष्टांग प्रणाम किया और पुजारी से पूछा –
“तुर्क कब आ रहे हैं ?’
“कल प्रातः आकर मन्दिर तोड़ने की सूचना है ।’
“अब मन्दिर नहीं टूटने पाएगा । नगर में सूचना कर दो कि
छापोली का सुजाणसिंह शेखावत आ गया है; उसके जीते जी
मन्दिर की ओर कोई ऑख उठा कर भी नहीं देख सकता । डरने-
घबराने की कोई बात नहीं है ।’
पुजारी ने कृतज्ञतापूर्ण वाणी से आशीर्वाद दिया । बात की
बात में नगर में यह बात फैल गई कि छापोली ठाकुर सुजाणसिंह
जी मन्दिर की रक्षा करने आ गए हैं । लोगों की वहाँ भीड़ लग
गई । सबने आकर देखा, एक बीस-बाईस वर्षीय दूल्हा और छोटी
सी बरात वहाँ खड़ी थी । उनके चेहरों पर झलक रही
तेजस्विता,दृढ़ता और वीरता को देख कर किसी को यह पूछने
का साहस नहीं हुआ कि वे मुट्टी भर लोग मन्दिर की रक्षा
किस प्रकार कर सकेंगे । लोग भयमुक्त हुए । भक्त लोग इसे भगवान
मोहनजी का चमत्कार बता कर लोगों को समझाने लगे –
“इनके रूप में स्वयं भगवान मोहनजी ही तुकों से लड़ने के लिए आए
है । छापोली ठाकुर तो यहाँ हैं भी नहीं- वे तो बहुत
दूर ब्याहने के लिए गए है,- जन्माष्टमी का तो विवाह ही था,
इतने जल्दी थोड़े ही आ सकते हैं ।
यह बात भी नगर में हवा के साथ ही फैल गई । किसी ने यदि
शंका की तो उत्तर मिल गया –
‘‘मोती बाबा कह रहे थ
मोती बाबा का नाम सुन कर सब लोग चुप हो जाते ।
मोती बाबा वास्तव में पहुँचे हुए महात्मा हैं । वे रोज ही भगवान
का दर्शन करते हैं, उनके साथ खेलते, खाते-पीते लोहागिरी के
जंगलों में रास किया करते हैं । मोती बाबा ने पहचान की है तो
बिल्कुल सच है । फिर क्या था, भीड़ साक्षात् मोहनजी के
दर्शनों के लिए उमड़ पड़ी । भजन मण्डलियाँ आ गई । भजन-गायन
प्रारम्भ हो गया । स्त्रियाँ भगवान का दर्शन कर अपने को
कृतकृत्य समझने लगी । सुजाणसिंह और उनके साथियों ने इस भीड़
के आने के वास्तविक रहस्य को नहीं समझा । वे यही सोचते रहे
कि सब लोग भगवान की मूर्ति के दर्शन करने ही आए हैं । रात भर
जागरण होता रहा, भजन गाये जाते रहे और सुजाणसिंह भी
घोड़ों पर जीन कसे ही रख कर उसी वेश में
रात भर श्रवण-कीर्तन में योग देते रहे ।
प्रात:काल होते-होते तुर्क की फौज ने आकर मोहनजी के मन्दिर
को घेर लिया । सुजाणसिंह पहले से ही अपने साथियों सहित
आकर मन्दिर के मुख्य द्वार के आगे घोड़े पर चढ़ कर खड़ा हो गया
। सिपहसालार ने एक नवयुवक को दूल्हा वेश में देख कर
अधिकारपूर्ण ढंग से पूछा –
“तुम कौन हो और क्यों यहाँ खड़े हो?’
“तुम कौन हो और यहाँ क्यों आए हो ?’
“जानते नहीं, मैं बादशाही फौज का सिपहसालार हूँ।’
“तुम भी जानते नहीं, मैं सिपहसालारों का भी सिपहसालार हूँ
।’
‘‘ज्यादा गाल मत बजाओ और रास्ते से
हट जाओ नहीं तो अभी. ”
“तुम भी थूक मत उछालो और चुपचाप यहाँ से लौट जाओ नहीं तो
अभी ….।”
“तुम्हें भी मालूम है, तुम किसके सामने खड़े हो?’
“शंहशाह आलमगीर ने मुझे बुतपरस्तों को सजा देने और इस मन्दिर
की बुत को तोड़ने के लिए भेजा है। शहंशाह आलमगीर की हुक्म-
उदूली का नतीजा क्या होगा, यह तुम्हें अभी मालूम नहीं है।
तुम्हारी छोटी उम्र देख करे
मुझे रहम आता है, लिहाजा मैं तुम्हें एक बार फिर हुक्म देता हूँ कि
यहाँ से हट जाओ ।।’
“मुझे शहंशाह के शहंशाह मोहनजी ने तुकों को सजा देने के लिए
यहाँ भेजा है पर तुम्हारी बिखरी हुई बकरानुमा दाढ़ी और
अजीब सूरत को देख कर मुझे दया आती है, इसलिए मैं एक बार तुम्हें
फिर चेतावनी देता हूँ कि यहाँ से लौट जाओ।’
इस बार सिपहसालार ने कुछ नम्रता से पूछा – “तुम्हारा नाम
क्या है ?’
“मेरा नाम सुजाणसिंह शेखावत है ।’
“मैं तुम्हारी बहादूरी से खुश हूँ।
मैं सिर्फ मन्दिर के चबूतरे का एक कोना तोड़ कर ही यहाँ से हट
जाऊँगा । मन्दिर और बुत के हाथ भी न लगाऊँगा । तुम रास्ते से
हट जाओ ।’’
“मन्दिर का कोना टूटने से पहले मेरा सिर टूटेगा और मेरा सिर
टूटने से पहले कई तुकों के सिर टूटेंगे ।
सिपहसालार ने घोड़े को आगे बढ़ाते हुए नारा लगाया –
‘‘अल्ला हो। अकबर |”
“जय जय भवानी ।’ कह कर सुजाणसिंह अपने साथियों सहित
तुकों पर टूट पड़ा |
लोगों ने देखा उसकी काली दाढ़ी का प्रत्येक बाल कुशांकुर
की भाँति खड़ा हो गया। तुर्रा -कलंगी के सामने से
शीघ्रतापूर्वक
घूम रही रक्तरंजित तलवार की छटा अत्यन्त ही मनोहारी
दिखाई से रही थी| बात की बात में उस अकेले ने बत्तीस कब्रे
खोद दी थी ।
रात्रि के चतुर्थ प्रहर में जब ऊँटों पर सामान लाद कर और रथ में
बैलों को जोत कर बराती छापोली की ओर रवाना होने
लगे कि दासी ने आकर कहा –
“बाईसा ने कहलाया है कि बिना दुल्हा के दुल्हिन को घर में
प्रवेश नहीं करना चाहिए ।।’
“तो क्या करें ?’ एक वृद्ध सरदार ने उत्तर दिया ।
“वे कहती हैं, मैं भी अभी खण्डेला जाऊँगी ।
“खण्डेला जाकर क्या करेंगी ? वहाँ तो मारकाट मच रही होगी
।’
“ वे कहती हैं कि आपको मारकाट से डर लगता है क्या ?’
“मुझे तो डर नहीं लगता पर औरत को मैं आग के बीच कैसे ले जाऊँ
।’
“वे कहती हैं कि औरतें तो आग में खेलने से ही राजी होती हैं ।
मन ही मन – ‘‘दोनों ही कितने हठी हैं ।
प्रकट में – “मुझे ठाकुर साहब का हुक्म छापोली ले जाने का है ।
“बाईसा कहती हैं कि मैं आपसे खण्डेला ले जाने के लिए
प्रार्थना करती हूँ ।’
‘‘अच्छा तो बाईं जैसी इनकी इच्छा ।।’ और रथ का मुँह खण्डेला
की ओर कर दिया । बराती सब रथ के पीछे हो गए । रथ के आगे
का पद हटा दिया गया ।
खण्डेला जब एक कोस रह गया तब वृक्षों की झुरमुट में से एक
घोड़ी आती हुई दिखाई दी ।
“यह तो उनकी घोड़ी है ।“ दुल्हिन ने मन में कहा । इतने में
पिण्डलियों के ऊपर हवा से फहराता हुआ केसरिया बाना भी
दिखाई पड़ा ।
“ओह! वे तो स्वयं आ रहे हैं । क्या लड़ाई में जीत हो गई? पर दूसरे
साथी कहाँ हैं ? कहीं भाग कर तो नहीं आ रहे हैं ?’
इतने में घोड़ी के दोनों ओर और पीछे दौड़ते हुए बालक और खेतों
के किसान भी दिखाई दिए ।
‘‘यह हल्ला किसका है ? ये गंवार लोग इनके पीछे क्यों दौड़ते हैं ?
भाग कर आने के कारण इनको कहीं चिढ़ा तो नहीं रहे हैं ?
दुल्हिन ने फिर रथ में बैठे ही नीचे झुक कर देखा, वृक्षों के झुरमुट में
से दाहिने हाथ में रक्त-रंजित तलवार दिखाई दी ।
“जरूर जीत कर आ रहे हैं, इसीलिए खुशी में तलवार म्यान करना
भी भूल गए । घोड़ी की धीमी चाल भी यही बतला रही है ।’’
इतने में रथ से लगभग एक सौ हाथ दूर एक छोटे से टीले पर घोड़ी
चढ़ी । वृक्षावली यहाँ आते-आते समाप्त हो गई थी । दुल्हिन ने
उन्हें ध्यान से देखा । क्षण भर में उसके मुख-मण्डल पर अद्भुत
भावभंगी छा गई और वह सबके सामने रथ से कूद कर मार्ग के बीच
में जा खड़ी हुई । अब न उसके मुख पर घूंघट था और न लज्जा और
विस्मय का कोई भाव ।
“नाथ ! आप कितने भोले हो, कोई अपना सिर भी इस प्रकार
रणभूमि में भूल कर आता है ।’’ कहते हुए उसने आगे बढ़ कर अपने मेंहदी
लगे हाथ से कमध ले जाती हुई घोड़ी की लगाम पकड़ ली ।
और उसी स्थान पर खण्डेला से उत्तर में भग्नावस्था में छत्री
खड़ी हुई है, जिसकी देवली पर सती और झुंझार की दो मूर्तियाँ
अंकित हैं । वह उधर से आते-जाते पथिकों को आज भी अपनी मूक
वाणी में यह कहानी सुनाती है और न मालूम भविष्य में भी कब
तक सुनाती रहेगी ।
(source --- Net.
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शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2017
छापोली के सुजाणसिंह शेखावत की कथा
गुरुवार, 2 फ़रवरी 2017
कबहुं न करजो प्रीत
कबहुं न करजो प्रीत, गुण बिन गोरे गात सूं ।
मुसकल निभणी रीत, उथले पाणी आशिया ।।
गहरो पाणी गेह, संबंध जोङो सांतरो ।
नर वो रखसी नेह, ऊजल मन सूं आशिया ।।
इण जग मांय अपार, दोखी दुसमण आपरा ।
पाणो अबखो पार, अपणों सूं ही आशिया ।।
धीरप मन मां धार, जीवणो इणी जगत मां ।
परभू करसी पार, अटकी गाङी आशिया ।।
हसकर पकङो हाथ, मुसकल मांयी मीत रो ।
भींच मिलो गल बाथ, अपणो समझे आशिया ।।
मंगलवार, 31 जनवरी 2017
नीं बुझेला कदै ई प्रकाश!!
नीं बुझेला कदै ई प्रकाश!!
गिरधर दान रतनू दासोड़ी
चित्तौड़ !
इण धरती रो सिरमोड़ !
ईं नीं बाजै है!
इणरै कण -कण में है
स्वाभिमान री सोरम
सूरमापणै री साख
जिकी नै राखी है मरदां
माथां रै बदल़ै!
रगत सूं सींचित
उण रेत रै रावड़ -रावड़ में
सुणीजै है अजै ई मरट रै सारू
मरण सूं हेत रा सुर!
मरणो !तो अठै रै मरदां रो खेल है
जिणनै ऐ रमता ई रैया है
मात रो गौरव मंडण नैं
इसड़ी ई तो रमी ही रामत!
पदमणी रमझमती
झांझर रै झणकारां
खांडां री गूंजती खणकारां में
स्वाभिमान रै सारू
करण नै मुल़कती
अगन रै साथै अठखेलियां
सांईणी सहेलियां रै चित सुचंगै सागै।
उतरी ही गुमर सूं
सगल़्यां रै आगे
गल अमर राखण नै
सूरज री उगाल़ी सागे
देवण नै अरघ सतवट सूं
कुल़वट री आण
पुरखां रो माण
शान सायब री
अंतस में समायां
धम-धम पगला धरती
डमरती रजवट री रीत
जीत !जसनामो रचण नै
सतेज ! जोयो सूरज रै साम्हो
अर बोली
हे भल़हल़ता भाण!
आभै रा वासी!
उपासी सतवट रा
बणजै साखी
म्हारी रजपूती रो!
मन री मजबूती रो!
साहस अर सपूती रो!
दीजै समचो जगत नै!
कै
एक रजपूतण
कीकर दीधो है अरघ !
आपरै पावन रगत सूं।
इतरी कैय
बा रचण नै चरित्र चित्तौड़ रो,
उतरगी सूरज री साख में
धधकती झाल़ां में झूलण(नहाना)
विसरगी आपो अणहद आणद में
लपटां रा लहरां में
लहरां लेवती!
बा झूली जौहर री जगमगती झाल़ां में
अर बे झल़हल़ती झाल़ां
करण लागी बंतल़
भल़हल़ते भासंकर सूं
कै हे अरक!
साची बताजै
कै
थारै उजास सूं
कांई तन्नै कमती लागे है?
कठै ई पदमण रो प्रकाश!
नीं!,सूरज बोलियो
म्हारै समवड़ ई है
इण नार रै सत रो सतेज
जिणमें पतिव्रत रो प्रकाश सवायो है!
जितै तक जीवैला
इण धर माथै
सत-पथ बैवण वाल़ी
सुघड़ नारियां
उतै तक ओ प्रकाश!
नीं बुझेला!
नीं बुझेला!!
गिरधर दान रतनू दासोड़ी
सोमवार, 30 जनवरी 2017
पदमणी पच्चीसी-
पदमणी पच्चीसी-
गिरधर दान रतनू दासोड़ी
जौहर री ज्वाल़ा जल़ी,
राखी रजवट रीत।
चावै जगत चित्तौड़ नैं,
पदमण कियो पवीत।।1
झूली सतझाल़ा जबर,
उरधर साख अदीत।
गवराया धर गुमर सूं
गौरव पदमण गीत।।2
खप ऊभो खिलजी खुटल़,
जिणनै सक्यो न जीत।
जौहर कर राखी जगत,
पदमण कँत सूं प्रीत।।3
सतवट राख्यो शेरणी,
अगनी झाल़ अभीत।
हिंदवाणी हिंदवाण में,
पदमण करी पवीत।।4
जगमगती ज्वाल़ा जची,
भल़हल़ साखी भास।
परतख रचियो पदमणी,
ऊजल़ियो इतिहास।।5
जुड़ भड़ जिथियै जूझिया,
साको रच्यो सबास।
मांझी धरा मेवाड़ री,
इल़ हिंद अजै उजास।।6
आयो खिलजी उमगँतो,
निलज निहारण नूर।
करवाल़ा ले लाज कज,
सँभिया मरवा सूर।।7
साम झड्यो सँग्राम सज,
उरधर पुरखां आण!
जौहर पदमण झूलगी,
महि अजै थिर माण।।8
मरणो दोरो मांटियां,
साजण बात सहल्ल।
प्रभता थिर हद पदमणी,
गुमर अमर आ गल्ल।।9
कुलवट ऊजल़ जिण करी,
सतवट राखी साज।
प्रिथमी जद ही पदमणी,
अमर अजै इल़ आज।।10
पतिव्रत राख्यो पदमणी,
जौहर ज्वाल़ा जूझ।
ढिगलो राखी देख ढिग,
अरियण बुवो अमूझ।।11
खपियो खिलजी खागबल़
कुटल़ गलां रच केक।
खंड न सकियो खुटल़पण
टणकाई री टेक।।12
पदमण परसी पीवनै,
परसी भगवन पाव!
दरसण दिया न दोयणां,
दिया न हीणा दाव।।13
सीखी नह डरणो सधर,
पौरस अंतस पूर!
पत सत कारण पदमणी,
मरणो कियो मँजूर।।14
चढणो हद चंवरी चवां,
बसुधा सोरी बात।
रचणी जौहर रामतां,
खरी दुहेली ख्यात।।15
वरिया अरियण वींद ज्यां,
निपट कठै बै नाम!
पदमण रो प्रथमाद पर,
जपै मही अठजाम।।16
हर हर कर बैठी हुलस,
पदमण नार निपाप।
दरसी नाही दोयणां,
अगनी परसी आप।।17
चखां चित्तौड़ां देखियो,
अगनी लागी आभ!
हुई नहीं नह होवसी,
उणरी मगसी आब।।18
पितलजा पच पच मुवा,
रच रच तोतक रीठ।
मच मच लड़्या मेवाड़ रा
परतन दीनी पीठ।।19
दिल्ली पच हारी दुरस,
जेर करण नै जोय।
मरट अहो मेवाड़ रो,
काढ न सकियो कोय।।20
मेदपाट रै मोदनै,
खल़ां चयो मन खोय।
करण कलुषित तिम कियो,
जिम जिम ऊजल़ जोय।।21
लपटा निरखी लोयणां,
गढ चित्तौड़ गंभीर।
अंजसियो उर आपरै,
धुर ना छूटो धीर।।22
जगमगती ज्वाला जबर,
सगती मारग साच।
पूगी सुरगां पदमणी,
रमणी क्रांमत राच।।23
मही धरा मेवाड़ री,
करै न समवड़ कोय।
देवी पदमण देहरो,
जगसिर तीरथ जोय।।24
भगती सूं भुइ ऊपरै,
जस जगती में जोय।
पावन कीधा पदमणी,
देख घराणा दोय।।25
गिरधर दान रतनू दासोड़ी
रुकी नांही धर्म राह'
रुकी नांही धर्म राह'सती सत वंती पद्मावती!
अखर्यों अल्लों आय पर्द'मन पुर माङि अती!! (1)
केद कर रांण लिन्यो'कुटल करहु महाराणी तांही!
पात भेज प्रेम पिताण्यो'नेह धर्म नार समझाही!!(2)
कटायों केद कंथ रांणी'दम दिखा तुर्काण को!
खिरें कोट खुन खेल'चिंतह रांणी चितांय को!!(3)
मरजाद देख दुनि मांहि'होत नांहि हिन्दू दांहि!
राखे आंन बान रजपुत'जुगा ज्यांरी बात केहि!!(4)*
रविवार, 29 जनवरी 2017
जलंधरनाथ सुजस
जलंधरनाथ सुजस
गिरधर दान रतनू दासोड़ी
किणियागिर री किंदरां,
वसै जलंधर वास।
प्रतख जोगी पूरणो,
आप जनां री आस।।1
दाल़द दासां दाटणो,
उरड़ आपणो आथ।
जोगी रहै जाल़ोर में,
नमो जल़धरनाथ।।2
जाहर जूनी जाल़ियां,
थाहर सिंघां थाट।
जिथियै नाथ जलंधरी,
हर हर खोली हाट।।3
सैखाल़ै रू सोनगिर,
जप-तप नगर जोधाण।
तापस रातै गिरँद त़ू,
इथियै रहै अमाण।।4
रातै गिर सिर राजणो
रटणो हर हर हेर।
वाहर जाहर बाल़कां
दुरस करै नीं देर।।5
भीम दलो रु कान भण,
सबल़ो लाल़स साच।
ज्यां सिर नाथ जलंधरी ,
आय दिया निज आच।।6
अपणाया निज आप कर
सेवग किया सनाथ।
वसुधा तिण दिन बाजियो,
नमो चारणानाथ।।7
छंद रूपमुकंद
बजियो धर चारणनाथ बडाल़िय,
रंग सदामत रीझ रखी।
सबल़ै दलसाह रु भीमड़(भीमड़ै) सांप्रत,
आपरि कीरत कान अखी।
तद तोड़िय दाल़द तूठ तिणां पर,
बात इल़ा पर आज बहै।
जय नाथ जलंधर जोगिय जाहर,
राज रातैगिर थान रहै।।
राज रातै गिर वास रहै।।1
भल अंग भभूत सुसोभित भारण,
धारण ध्यान धणी धजरो।
श्रवणां बिच कुंडल़ वेस सिंदूरिय,
आच कमंडल़ है अजरो।
जग कारण जोग जगावत जाणिय,
सामियमोड़ समाज सहै।
जय नाथ जलंधर जोगिय जाहर,
राज रातैगिर थान रहै।।2
अवधूत अलेखत नांमत आगल़,
पांमत क्रांमत नाय पुणां।
गुरु गोरखनाथ गहीर गुणाढय,
सांझ मछंदर संग सुणां।
रमता कई सिद्ध धुणी तप रावल़,
ग्यान मुनेसर आय गहै।
जय नाथ जलंधर जोगिय जाहर,
राज रातैगिर थान रहै।।3
समरत्थ सिधेसर आप तणी सत,
चाव उछाव चलै चरचा।
रँक राव किया अपिया द्रब राजस,
पेख सुभाव दिया परचा।
मरुदेश तप्यो हद मान महीपत,
पाव तिहाल़िय ओट पहै।
जय नाथ जलंधर जोगिय जाहर,
राज रातैगिर थान रहै।।4
वर आसण धार विछाय बघंबर,
ओढण अंबर गात अहो।
धुन धार जटेसर जापण धारण,
कारण जारण ताप कहो।
सज संतन काज सताब सुधारण,
थाट अपारण आप थहै।
जय नाथ जलंधर जोगिय जाहर,
राज रातै गिर थान रहै।।5
किणियागिर पाट जहान कहै इम,
राजत आण अमाण रमै।
तन ताप जमात सनाथ तपेसर
जाण जाल़ां बिच जोर जमै।
थल़वाट शेखाल़य गोगरु थांनग,
मंझ मरूधर देश महै।
जय नाथ जलंधर जोगिय जाहर,
राज रातै गिर थान रहै।।6
मुख नूर निरम्मल़ तेज महीयल़,
देह कड़क्कड़ ऐह दिपै।
विरदाल़ निजां जन बुद्ध वरीसण,
काम मनोरथ कष्ट कपै।
उपजै उकती उर म़ांय अमामिय,
जामिय तूझ रि जाप जहै।
जय नाथ जलंधर जोगिय जाहर,
राज रातैगिर थान रहै।।7
वरणूं वनवासिय हेक विसासिय,
आसिय पूरण तूं अमणी।
सुणजै सुखरासिय साद सँनासिय,
तीख प्रकासिय आप तणी।
हिव गीध उपासिय तो हिवल़ासिय,
दीह उजासिय साम दहै।
जय नाथ जलंधर जोगिय जाहर,
राज रातैगिर थान रहै।।8
छप्पय
जयो जलंधरनाथ,
वाह जोगी विरदाल़ा।
जिण जपियो मन जाप,
वण्यो हमगीर वडाल़ा।
जूनी जाल़ां जोर,
तवां जाल़ोर तिहाल़ी।
वडी कंदरां वास,
इल़ा जसवास उजाल़ी।
शेखाल़ै थल़ी मँदर सिरै,
रातै गिरँदां रीझियै।
कवियाण गीध कीरत कथै,
दाता आणद दीजियै।।
गिरधर दान रतनू दासोड़ी
शनिवार, 21 जनवरी 2017
घर आज्या परदेसी तेरा गाँव बुलाये रे. ..
घर आज्या परदेसी तेरा गाँव बुलाये रे. ..
"गाँव री याद"
गाँव रा गुवाड़ छुट्या, लारे रह गया खेत
धोरां माथे झीणी झीणी उड़ती बाळू रेत
उड़ती बाळू रेत , नीम री छाया छूटी
फोफलिया रो साग, छूट्यो बाजरी री रोटी
अषाढ़ा रे महीने में जद,खेत बावण जाता
हळ चलाता,बिज बिजता कांदा रोटी खाता
कांदा रोटी खाता,भादवे में काढता'नीनाण'
खेत मायला झुपड़ा में,सोता खूंटी ताण
गरज गरज मेह बरसतो,खूब नाचता मोर
खेजड़ी , रा खोखा खाता,बोरडी रा बोर
बोरडी रा बोर ,खावंता काकड़िया मतीरा
श्रादां में रोज जीमता, देसी घी रा सीरा
आसोजां में बाजरी रा,सिट्टा भी पक जाता
काती रे महीने में सगळा,मोठ उपाड़न जाता
मोठ उपाड़न जाता, सागे तोड़ता गुवार
सर्दी गर्मी सहकर के भी, सुखी हा परिवार
गाँव के हर एक घर में, गाय भैंस रो धीणो
घी दूध घर का मिलता, वो हो असली जीणो
वो हो असली जीणो,कदे नी पड़ता बीमार
गाँव में ही छोड़आया ज़िन्दगी जीणे रो सार
सियाळे में धूंई तपता, करता खूब हताई
आपस में मिलजुल रहता सगळा भाई भाई
कांई करा गाँव की,आज भी याद सतावे
एक बार समय बीत ग्यो,पाछो नहीं आवे
कृपा गाँव को याद करके रोना मत रोने से अच्छा है एक बार गाँव हो आना मन हल्का हो जायेगा और मन को सुकून मिलेगा. ..
शुक्रवार, 20 जनवरी 2017
जीवणों दौरो होग्यो
जीवणों दौरो होग्यो
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घणां पालिया शौक जीवणों दोरो होग्यो रे
देवे राम नें दोष जमानों फौरो होग्यो रे
च्यारानां री सब्जी ल्यांता आठानां री दाल
दोन्यूं सिक्का चाले कोनीं भूंडा होग्या हाल
च्यार दिनां तक जान जींमती घी की भेंती धार
एक टेम में छींकां आवे ल्याणां पडे उधार
जीवणों दोरो-----------------------------------
मुंडे मूंड बात कर लेंता नहीं लागतो टक्को
बिनां कियां रिचार्ज रुके है मोबाईल रो चक्को
लालटेन में तेल घालता रात काटता सारी
बिजली रा बिल रा झटका सूं आंख्यां आय अंधारी
जीवणों दोरो----------------------------------------
लाड कोड सुं लाडी ल्यांता करती घर रो काम
पढी लिखी बिनणिंयां बैठी दिनभर करै आराम
घाल पर्स में नोट बीनणीं ब्यूटी पारलर जावे
बैल बणें घाणीं रो बालम परणीं मोज उडावे
जीवणों दौरो----------------------------------------
टी वी रा चक्कर में टाबर भूल्या खाणों पीणों
चौका छक्का रा हल्ला में मुश्किल होग्यो जीणों
बिल माथै बिल आंता रेवे कोई दिन जाय नीं खाली
लूंण तेल शक्कर री खातर रोज लडै घरवाली
जीवणों दौरो-----------------------------------------
एक रुपैयो फीस लागती पूरी साल पढाई
पाटी बस्ता पोथी का भी रुप्या लागता ढाई
पापाजी री पूरी तनखा एडमिशन में लागे
फीस किताबां ड्रेसां न्यारी ट्यूशन रा भी लागे
जीवणों दौरो----------------------------------------
सुख री नींद कदै नीं आवे टेंशन ऊपर टैंशन
दो दिन में पूरी हो ज्यावे तनखा हो या पैंशन
गुटखां रा रेपर बिखरयोडा थांरी हंसी उडावे
रोग लगेला साफ लिख्यो पणं दूणां दूणां खावे
जीवणों दौरो--------------------------------------
पैदल चलणों भूली दुनियां गाडी ऊपर गाडी
आगे बैठे टाबर टींगर लारै बैठे लाडी
मैडम केवे पीवर में म्हें कदै नीं चाली पाली
मन में सोचे साब गला में केडी आफत घाली
जीवणों दोरो--------------------------------------
चाऐ पेट में लडै ऊंदरा पेटरोल भरवावे
मावस पूनम राखणं वाला संडे च्यार मनावे
होटलां में करे पार्टी डिस्को डांस रचावे
नशा पता में गेला होकर घर में राड मचावे
जीवणों दौरो ------------------------------------------
अंगरेजी री पूंछ पकडली हिंदी कोनीं आवे
कोका कोला पीवे पेप्सी छाछ राब नहीं भावे
कीकर पडसी पार मुंग्याडो नितरो बढतो जावे
सुख रा साधन रा चक्कर में दुखडा बढता जावे
जितरी चादर पांव पसारो मन पर काबू राखो
भगवान भज्यां ही भलो होवसी थांको
जीवणों दौरो होग्यो रे
गुरुवार, 19 जनवरी 2017
मकोड़ो
एक बार एक कालो आदमी सफ़ेद झक धोती कुरतों पेरने ख़ुद री लुगाई ने बोल्यो....
"ए रे में कियान को लाग रयो हु ?"
लुगाई को जवाब सुणताई ही आदमी का तो फ्यूज ही उडगा....
लुगाई को जवाब हो की
" इयान लाग रीया हो जियान पतासे रे माईने मकोड़ो घुसयोडो है "