कृष्ण:- है पार्थ तीर चला••••
अर्जुन:- किस पर चलाऊं प्रभु...
कृष्ण:- थूं बस चला,उङता तीर लेवणियां गणांई है••••
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कृष्ण:- है पार्थ तीर चला••••
अर्जुन:- किस पर चलाऊं प्रभु...
कृष्ण:- थूं बस चला,उङता तीर लेवणियां गणांई है••••
एक मारवाड़ रै सिरदार रै एक थल़ियै सूं बेलिपा!!
एक दिन थल़ियै सोचियो कै हालो सिरदारां सूं मिल आवां,घणा दिन होया है!!
बो आपरै ऊंठ माथै दो च्यार दिनां सूं उणां रै गांम पूगियो!!
उणांनै सिरदारां री कोई घणी रीतां-पातां तो आवती कोनी,उण एक दो हेलो कियो पण किणी सुणियो नीं
बो सीधो ई धमै-धमै आंगणै आगे बुवो ग्यो,आगे देखै तो उणरी आंख्यां फाटगी!!
थल़ी कानी आयां बडाई रा भाखर चिणणिया ठाकर आपरै घरै घट्टी में बाजरी पीसै !!
सिरदारां रो ध्यान ढालड़ियै अर उणमें पड़ी बाजरी कानी हो !!कै हमें कितरीक बची है!! उणां गाल़ो ऊरतां- ऊरतां एक फाको भरियो अर अचाणचक उणां री मीट आपरै थल़ियै मित्र माथै पड़ी जिको थलकण माथै ऊभो उणांनै ई देखै हो!!
बारै घणी धसल़ां बावणी अर घरै घट्टी सूं माथो लगावतै नै मित्र देख लियो!! आ केड़ीक होई!!
जणै सिरदार थोड़़ा लचकाणा पड़ग्या!!
उणांनै लचकाणा पड़तां नै देखर थल़ियै सोचियो कै मोटा मिनख है!!अर रावल़सां रो हाथ बंटावण री अठै आ कोई रीत होसी!!
मित्र कह्यो -
"अरे!बडै मिनखां थे तो मरद हो!!जको फाको तो लियो !!
म्हारै तो बडभागण आटो पीसूं जितरै माथै ऊभी रैवै!!गाबड़ नीं फोरण दे!!"
आ सुणर उणांरै मूंडै माथै चेल़को आयो अर बोलिया-
"इतरी पोल अठै नीं है इयां म्हारै पग में जूत आवै भाई!!
गि.रतनू
रजवट रीझे राजवी,कर रीझे करतार।
मन मनवारां रीझणों, बाकी सब बेकार।।
प्रेम रिझाव पावणा,मन मुळके मनवार।
आदर रीझे आत्मा,सत रीझे सत्कार।।
पीव रिझाव प्रीतड़ी,मात रिझाव मान।
भायां रीझण बातड़ी,वक्त पड्यां सब जाण।।
बापू रीझे बाग सूं, भैनड़ रीझे भात।
साथी रीझे साथ सूं, नव होज्या प्रभात।।
भावां रिझे भायला, टीस करे तकरार।
मान रिझाव मानवी,जोड़े मन रा तार।
राजस्थान में शादी में बच्चों से काम कराने का सबसे तगड़ा
डायलॉग........
यूँ ढीलो ढीलो काँई काम करे हैं ,
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थने कुण छोरी देई रे ......
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थोड़ी फुर्ती राख ...पचे थारे भी लुगाई लावाँ।।।।।
रंग पाबू राठौड़ .....
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जस रा मारग झेल कर ठावी कीनी ठौड़
पिछम धरा रो पाटवी रंग पाबू राठौड़
केसर घोड़ी काळवी जुडै न जिणरी जोड़
अमर नाम इळ ऊपरां रंग पाबू राठौड़
जिन्दराज सूं झूंझियो जायल हन्दी जौड
ऊजळ दूध उजाळियौ रंग पाबू राठौड़
चाँदो डेमौ चाव सूं किया घणैरा कोड
गूंजै घर घर गीतड़ा रंग पाबू राठौड़
अमरकोट रै आँगणै सोढी रौ सिरमौड़
चौथे फेरै चाल्यो रंग पाबू राठौड़
सोढी छोडी सोवणी तंतु कांकण तोड़
निवत मरण निवारियो रंग पाबू राठौड़
भालाळो भल भळकियो कोळूमंड किरोड़
अनमी अवर न आप सम रंग पाबू राठौड
अमराणे में आय़ कर बीखो बहुत बिछौड़
व्हाली छोड़ी वाहरू रंग पाबू राठौड़
देवलदे दीन्ही दखल खींची कीन्ही खौड़
वचन रुखाळु वीरवर रंग पाबू राठौड़
पत राखण पालण परण हुवै न थांरी हौड़
पिरथी पर पिछाणियो रंग पाबू राठौड़
माथौ दे मनवारियौ दुसमी आयो दौड़
रगत रंग रंग दी धरा रंग पाबू राठौड़
भोपा गावे भाव भर जस थारा कर जोड़
रावणहथा राग रस रंग पाबू राठौड़
दिस दिस थांरा देवरा पडवांडां री पौड़
अवल पीरजी आप हो रंग पाबू राठौड़
@©® रतन सिंह चंपावत रणसी गांव कृत
हल्दीघाटी के अदम्य योद्धा रामशाह तंवर
18 जून. 1576 को हल्दीघाटी में महाराणा प्रताप और अकबर की सेनाओं के मध्य घमासान युद्ध मचा हुआ था| युद्ध जीतने को जान की बाजी लगी हुई. वीरों की तलवारों के वार से सैनिकों के कटे सिर से खून बहकर हल्दीघाटी रक्त तलैया में तब्दील हो गई| घाटी की माटी का रंग आज हल्दी नहीं लाल नजर आ रहा था| इस युद्ध में एक वृद्ध वीर अपने तीन पुत्रों व अपने निकट वंशी भाइयों के साथ हरावल (अग्रिम पंक्ति) में दुश्मन के छक्के छुड़ाता नजर आ रहा था| युद्ध में जिस तल्लीन भाव से यह योद्धा तलवार चलाते हुए दुश्मन के सिपाहियों के सिर कलम करता आगे बढ़ रहा था, उस समय उस बड़ी उम्र में भी उसकी वीरता, शौर्य और चेहरे पर उभरे भाव देखकर लग रहा था कि यह वृद्ध योद्धा शायद आज मेवाड़ का कोई कर्ज चुकाने को इस आराम करने वाली उम्र में भी भयंकर युद्ध कर रहा है| इस योद्धा को अपूर्व रण कौशल का परिचय देते हुए मुगल सेना के छक्के छुड़ाते देख अकबर के दरबारी लेखक व योद्धा बदायूंनी ने दांतों तले अंगुली दबा ली| बदायूंनी ने देखा वह योद्धा दाहिनी तरफ हाथियों की लड़ाई को बायें छोड़ते हुए मुग़ल सेना के मुख्य भाग में पहुँच गया और वहां मारकाट मचा दी| अल बदायूंनी लिखता है- “ग्वालियर के प्रसिद्ध राजा मान के पोते रामशाह ने हमेशा राणा की हरावल (अग्रिम पंक्ति) में रहता था, ऐसी वीरता दिखलाई जिसका वर्णन करना लेखनी की शक्ति के बाहर है| उसके तेज हमले के कारण हरावल में वाम पार्श्व में मानसिंह के राजपूतों को भागकर दाहिने पार्श्व के सैयदों की शरण लेनी पड़ी जिससे आसफखां को भी भागना पड़ा| यदि इस समय सैयद लोग टिके नहीं रहते तो हरावल के भागे हुए सैन्य ने ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी थी कि बदनामी के साथ हमारी हार हो जाती|"
राजपूती शौर्य और बलिदान का ऐसा दृश्य अपनी आँखों से देख अकबर के एक नवरत्न दरबारी अबुल फजल ने लिखा- "ये दोनों लश्कर लड़ाई के दोस्त और जिन्दगी के दुश्मन थे, जिन्होंने जान तो सस्ती और इज्जत महंगी करदी|"
हल्दीघाटी के युद्ध में मुग़ल सेना के हृदय में खौफ पैदा कर तहलका मचा देने वाला यह वृद्ध वीर कोई और नहीं ग्वालियर का अंतिम तोमर राजा विक्रमादित्य का पुत्र रामशाह तंवर था| 1526 ई. पानीपत के युद्ध में राजा विक्रमादित्य के मारे जाने के समय रामशाह तंवर मात्र 10 वर्ष की आयु के थे| पानीपत युद्ध के बाद पूरा परिवार खानाबदोश हो गया और इधर उधर भटकता रहा| युवा रामशाह ने अपना पेतृक़ राज्य राज्य पाने की कई कोशिशें की पर सब नाकामयाब हुई| आखिर 1558 ई. में ग्वालियर पाने का आखिरी प्रयास असफल होने के बाद रामशाह चम्बल के बीहड़ छोड़ वीरों के स्वर्ग व शरणस्थली चितौड़ की ओर चल पड़े|
मेवाड़ की वीरप्रसूता भूमि जो उस वक्त वीरों की शरणस्थली ही नहीं तीर्थस्थली भी थी पर कदम रखते ही रामशाह तंवर का मेवाड़ के महाराणा उदयसिंह ने अतिथि परम्परा के अनुकूल स्वागत सत्कार किया. यही नहीं महाराणा उदयसिंह ने अपनी एक राजकुमारी का विवाह रामशाह तंवर के पुत्र शालिवाहन के साथ कर आपसी सम्बन्धों को और प्रगाढ़ता प्रदान की| कर्नल टॉड व वीर विनोद के अनुसार उन्हें मेवाड़ में जागीर भी दी गई थी| इन्हीं सम्बन्धों के चलते रामशाह तंवर मेवाड़ में रहे और वहां मिले सम्मान के बदले मेवाड़ के लिए हरदम अपना सब कुछ बलिदान देने को तत्पर रहते थे|
कर्नल टॉड ने हल्दीघाटी के युद्ध में रामशाह तोमर, उसके पुत्र व 350 तंवर राजपूतों का मरना लिखा है| टॉड ने लिखा- "तंवरों ने अपने प्राणों से ऋण (मेवाड़ का) चूका दिया|" तोमरों का इतिहास में इस घटना पर लिखा है कि- "गत पचास वर्षों से हृदय में निरंतर प्रज्ज्वलित अग्नि शिखा का अंतिम प्रकाश-पुंज दिखकर, अनेक शत्रुओं के उष्ण रक्त से रक्तताल को रंजित करते हुए मेवाड़ की स्वतंत्रता की रक्षा के निमित्त धराशायी हुआ विक्रम सुत रामसिंह तोमर|" लेखक द्विवेदी लिखते है- "तोमरों ने राणाओं के प्रश्रय का मूल्य चुका दिया|" भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी व इतिहासकार सज्जन सिंह राणावत एक लेख में लिखते है- "यह तंवर वीर अपने तीन पुत्रों शालिवाहन, भवानीसिंह व प्रताप सिंह के साथ आज भी रक्त तलाई (जहाँ महाराणा व अकबर की सेना के मध्य युद्ध हुआ) में लेटा हल्दीघाटी को अमर तीर्थ बना रहा है| इनकी वीरता व कुर्बानी बेमिसाल है, इन चारों बाप-बेटों पर हजार परमवीर चक्र न्योछावर किये जाए तो भी कम है|"
तेजसिंह तरुण अपनी पुस्तक "राजस्थान के सूरमा" में लिखते है- "अपनों के लिए अपने को मरते तो प्राय: सर्वत्र सुना जाता है, लेकिन गैरों के लिए बलिदान होता देखने में कम ही आता है| रामशाह तंवर, जो राजस्थान अथवा मेवाड़ का न राजा था और न ही सामंत, लेकिन विश्व प्रसिद्ध हल्दीघाटी के युद्ध में इस वीर पुरुष ने जिस कौशल का परिचय देते हुए अपना और वीर पुत्रों का बलिदान दिया वह स्वर्ण अक्षरों में लिखे जाने योग्य है|"
जाने माने क्षत्रिय चिंतक देवीसिंह, महार ने एक सभा को संबोधित करते हुए कहा- "हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप यदि अनुभवी व वयोवृद्ध योद्धा रामशाह तंवर की सुझाई युद्ध नीति को पूरी तरह अमल में लेते तो हल्दीघाटी के युद्ध के निर्णय कुछ और होता| महार साहब के अनुसार रामशाह तंवर का अनुभव और महाराणा की ऊर्जा का यदि सही समन्वय होता तो आज इतिहास कुछ और होता|"
धन्य है यह भारत भूमि जहाँ रामशाह तंवर जिन्हें रामसिंह तोमर, रामसा तोमर आदि नामों से भी जाना जाता रहा है, जैसे वीरों ने जन्म लिया और मातृभूमि के लिए उच्चकोटि के बलिदान देने का उदाहरण पेश कर आने वाली पीढ़ियों के लिए एक आदर्श प्रेरक पैमाना पेश किया।।।।
(आसोप के राजा फतैसिंह द्वारा रचित सजनसी को संबोधित सोरठे)
पायौ पुन परताप, मानुष तन महँगौ मिल्यौ ।
पोचा खोटा पाप, सो मत करजे सजनसी ।।
मीठा बोल म्रजाद, कदै न कहणौ कटु वचन ।
यां बातां ने याद, सदा राखजे सजनसी ।।
सावण रा दिन चार है,आवण री नी बात।
दिव्लो जोऊं प्रेम रो,आँख्या जागे रात।। (६१)
सूक्या समदर प्रीत रा,सूकी हिवड़े प्रीत।
पाळ टूटगी प्रेम री, हार गयो जग जीत।।(६२)
मलसीसर झुंझुनू के गजराज सिंह कारगिल युद्ध में शहीद हुए..
हर रक्षाबंधन पर उनकी बहन की यह तस्वीर वायरल हो जाती है और मन में अनेक करुण भाव भऱ जाती है
इस बार श्री गजराज सिंह जी के दिव्य बलिदान को और उनकी बहन के अपने भाई के प्रति प्रेम को शब्द देने का प्रयास किया है...
सादर शाब्दिक श्रद्धांजलि
बैनड़ निरखै सगोड़ो बीर , आँखड़ल्या में नीर भरयो l
उमगी काळजिये में पीर , अर भाईडा ने बाथां भरियो ll
टूटी धीरजड़ै री डोर , नैणां सूं मोती रळक पड़िया l
होग्यो हिवड़ो दो छोर , आँसूड़ा आंगण बरस पड़िया ll
कूकी कातर मन कुरळाय , बीरो सा म्हारा कठौड़े गिया l
लागी काळजियै मे लाय , अंतस रा आलम चौड़े व्हिया ll
एकर देखो थैं आंखियां खोल , बैनड़ कैवे खड़ी रे खड़ी l
सुण लो बाईसा रा बोल , मनवारूं थाने घड़ी रे घड़ी ll
करस्यूं किण रा मैं कोड , लडास्यूं किणने लाडलड़ा l
चालिया एकलडी ने छोड़ , लारे जी राखी लाडलड़ा ll
कुंण करेला औळूं इण बार , पीहर पोळियां सूनी पड़ी l
भावज़ बिलखै हैं बारम्बार , मावड म्हारी मगसी पड़ी ll
मुळकै मन मे ही मनडै ने मार , बाबोसा बोले बात नहीं l
आँखियां पोंछे मूंडो लु'कार , धीजै दिन और रात नहीं ll
दिखासी कुण पीवरिया री पाळ , कुण मिलवा आवसी l
भरसी कुण मायरिये रो थाळ , चुन्दड़ कुण औढावसी ll
करसी कुण जीजोसा स्यूं रोळ , भाणेजां कुण पाट उतारसी l
करसी कुण सगां स्यूं ठिठोळ , मनवारां कर प्याला पावसी ll
अावे क्यों अब तीज तींवार , किणरे बाँथू आ राखडली l
वीरा एक बार हाथ पसार , बंधवाले म्हारी आ राखड़ली ll
रतनसिंह चाँपावत रणसीगाँव कृत
#महाराणा_सांगा - सनातन की रक्षा करने वाला हिन्दू राजपूत क्षत्रिय
महाराणा सांगा - मंझला कद , मोटा चेहरा, बड़ी आंखे, लंबे हाथ, ओर गेंहुआ रंग था । दिल के इतने मजबूत थे, की इनके जोड़ का वीर शायद आज तक पैदा ना हुए हो ।
27 वर्ष की अवस्था मे राणा सांगा गद्दी पर बैठे, ओर 20 वर्ष शाशन करने के बाद उनका देहांत हो गया । राणा सांगा के काल मे मेवाड़ की स्तिथि शिखर पर पहुंच गई थी, उनकी सेना में 1 लाख सैनिक ओर 500 हाथी थे । 7 बड़े राजा 9 राव ओर 108 रावत उनके अधीन थे । जोधपुर ओर आमेर के राजा उनका बड़ा सम्मान करते थे । बाबर के आक्रमण का सामना करने से पहले भी उन्होंने 18 बार बड़ी बड़ी लड़ाइयां मालवा के मुसलमान सुल्तानों से लड़ी थी ।
राणा सांगा अपने समय के पराक्रमी राजा थे, उनके समय मे उनके जैसा पराक्रमी ओर वीर राजा पूरे भारत मे नही था । भारत का कोई ऐसा राजा नही था, जो उस समय राणा सांगा कर सामने सिर उठाने का साहस करता ।
100 मैदानों के विजेता ने दिल्ली के पतन के बाद हिन्दू राज स्थापित करने के लिए गुजरात ओर दिल्ली को भी पराजित किया । अगर राणा सांगा बाबर के विरुद्ध सफल हो जाता, तो पूरा भारत उसके कब्जे में होता, ओर आज इस्लाम का नामोनिशान यहां नही होता ।
राणा सांगा को केवल बाहर से ही नही, अंदर से भी बहुत विरोध झेलना पड़ा था, कई जातीया हमेशा विरोध ही करती रही थी, राणा सांगा के ही काल मे मीणो का विद्रोह हो गया था । एक ओर विदेशी आक्रमण तो दूसरी ओर घर मे फुट, कोई सफल हो तो कैसे हो ?? बाद में आज कुछ लोग राजपूतो पर लांछन लगाते है, इतिहास को पढ़कर देखना चाहिए, तुमने राजपूतो का साथ दिया कब ??
इब्राहिम लौदी से युद्ध के बाद एक हाथ कट जाने पर , ओर पांव में तीर लग जाने पर, राणा सांगा ने दरबारियों से आग्रह किया, की सिहांसन पर किसी योग्य व्यक्तियों को बिठा दे । उनकी घोषणा कुछ इस प्रकार थी ।
" जिस प्रकार टूटी मूर्ति प्रतिष्ठा पूजने योग्य नही रहती, उसी प्रकार मेरी आँख , भुजा ओर पांव निकम्मे हो गए है । इसलिए में सिंहासन पर ना बैठकर जमीन पर ही बैठूंगा । इस स्थान पर जिसे उचित समझे बिठावे । "
इस विनती भाव से दरबारी बहुत प्रभावित हुए सब बोले " रण क्षेत्र में अंग भंग होने से राजा का गौरव बढ़ता है, ना कि घटता " सबने मिलकर उन्हें गद्दी पर बिठा दिया ।।
यह राणा सांगा की योग्यता व नीति की पराकाष्ठा थी ।
पृथ्वीराज चौहान के पतन के बाद हिन्दुओ पर लगातार अत्याचार हो रहे थे, सारा भारत ही इस्लाम की गर्त में जाता नजर आ रहा था । मंदिरो को तोड़कर मस्जिद बनाया जा रहा था, बड़ी बड़ी जागीरे देकर लोगो का धर्म परिवर्तन किया जा रहा था । हिन्दू इस आशंका से ग्रसित हो गए कि इसी गति से ही यह सब होता रहा तो सारा का सारा देश इस्लामिक हो जाएगा ।
ऐसे समय मे हिन्दुओ के उगते राजपूत सूरज ने गुजरात के सुल्तानों ओर दिल्ली के बादशाहो पर आक्रमण कर हिन्दू विजय का डंका बजा दिया । पूरे भारत के हिन्दू यह जानकर खुश होते, आशा भरी निगाहों से देखते, की मेवाड़ की दुर्गम घाटी में इस धरती का ही एक लाल है, जो हिन्दू शाशन स्थपित करना चाहता है ।
130 साल से चले आ रहे मालवा में इस्लामिक शाशन को महाराणा सांगा ने ही उखाड़ के फेंका था । गुजरात का जफर खा, जो पूरे गुजरात पर इस्लाम का कहर ढा रहा था, उसे भी राणा सांगा ने ही जड़ से उखाड़ फेंका था । अहमद नगर के युद्ध मे तो राणा सांगा ओर राजपूत दुर्ग का फाटक तोड़कर मुसलमानो के दुर्ग में घुस गए थे । वहां से सारा धन लुटा ओर चितौड़ आ गए ।
राणा सांगा इब्राहिम लौदी और बाबर
यह बिल्कुल गलत बात है कि बाबर को राणा सांगा ने बुलाया था । इब्राहिम लोदी को तो राणा सांगा खुद दो बार युद्ध मे पराजित कर चुके थे, ओर दिल्ली से इसलिए उसे उखाड़ नही पाए, उसके पीछे कारण उनके सेनिको द्वारा आम हिन्दू जनता को बंदी बनाकर अत्याचार की धमकी देना था ।
बाबर की औकात नही थी, की वो राणा सांगा से लड़ पाए ! लेकिन इब्राहिम लौदी कि हर के बाद अनेक पठान सरदार राणा सांगा से आ मिले थे । खानवा का युद्ध बाबर की ओर से जिहाद के नाम पर लड़ा गया, इस्लाम के नाम पर लड़ा गया, मुसलमान के नाम पर लड़ा गया ।
इसका परिणाम क्या होना था ? राणा सांगा ने मुसलमानो पर भरोसा कर लिया, अपने ही सैनिक राणा सांगा की सेना पर वार करने लगे । राणा सांगा का नेतृत्व पहली वार हार गया, वो करें तो क्या करें, जिस सेना को वह साथ लड़ने लाया था, इस्लाम के नाम पर उसी ने उस पर आक्रमण कर दिया ! मुसलमानो ने अपनी जात दिखा दी ।
इन युद्ध की हार का राणा सांगा को ऐसा सदमा पहुंचा उसके बाद वो कभी उठ ही नही पाए, इसी शोक में 1 वर्ष के पश्चात वो स्वर्ग सिधार गए ।