‘माला रा मड्ढै नै वीरम रा गड्ढै’
राव वीरमदे राव सलखा के चार बेटों में तीसरे बेटे थे | बड़े बेटे रावल माला अथवा मल्लीनाथ थे | रावल माला खेड़ के शासक थे | राव वीरमदे भिरड़कोट के मालिक थे, जिनके अधिकार में 6-7 गाँव थे |
एक बार दला जोहिया ( योद्धेय ) रावल माला से शरण माँगने आया | कुँवर जगमाल ( रावल माला का बड़ा बेटा ) ने दला जोहिया से उसकी घोड़ी ‘समाध’ मांगी | दला ने घोड़ी देने से इन्कार कर दिया | वह राव वीरमदे के पास पहुंचा | वीरमदे ने उसे बिना शर्त शरण दे दी | तब दला जोहिया ने वह ‘समाध’ घोड़ी सहर्ष वीरमदे को भेंट कर दी | इससे रावल माला वीरम से नाराज रहने लगे |
इसी तरह की एक और घटना घटी | वीरम ने गुजरात के बादशाह की घोड़ों की कतार लूट ली | बादशाह खेड़ पर चढ़ाई करने की तैयारी करने लगा | रावल माला ने वीरम को भिरड़कोट त्यागने पर मजबूर किया और खेड़ पर आई आफत टाली | वीरम की सहायता जांगलू के शासक सांखला ऊदा सूजावत ने की | उसकी सहायता से वे वहां से भाग गए | दला जोहिया ने उसे शरण दी | दला ने वीरम की बहुत मदद की | उनकी आय के साधन बढे और लोग उनके पास आ जुड़े | बस यहीं वीरमदे से एक गलती हो गई | उन्होंने जोहियों का पवित्र फरास का वृक्ष ढोल बनवाने के लिए कटवा दिया | जोहियों ने इसे सहन नहीं किया और गायों के बहाने उनमें विग्रह हुआ ओए वहीं वीरमदे काम आये | इस युद्ध का वृतांत ‘वीरमायण’ अथवा ‘वीरबाण’ नामक डिंगल महाकाव्य में मिलता है | इस कृति का रचयिता जोहियों का ढ़ाढ़ी ( गायक ) था जो इतिहास में ढ़ाढ़ी बादर ( बहादुर ) के नाम से विश्रुत है | इस ग्रन्थ में महाकाव्य के सारे गुणों का समावेश है | मुसलमान कवि ने गणेश-वंदना से लेकर सारी भारतीय काव्य परम्परा को निभाया है | यहाँ यह महत्वपूर्ण है कि जोहिया पहले हिन्दू थे, फिर इस्लाम धर्म अपनाया| इसलिए उनके नाम दला, मधु आदि आते हैं |
राव चूंडा वीरम का उत्तराधिकारी हुआ | मुहता नैणसी और अन्य साक्षस्यों के अनुसार उनके चार रानियाँ थी |
1 – राणादे जसहड़ भटियाणी रावल दूदा के पुत्र बीसा अथवा बीसलदे की पुत्री | पुत्र- चून्डा |
2 – माँगळियाणी लालां कान्ह केलणोत की पुत्री | पुत्र – जयसिंह |
3 – चांदणदे आसराव रिड़मलोत की पुत्री | पुत्र – गोगादे |
4 – लाछांदे उगमणसी सिखरावत इंदा की बेटी | पुत्र – देवराज | इसे पिता ने सेतरावा दिया था |
इसके अतिरिक्त वीरमदे के पुत्रों बीजा, हमीर, नृपत और नारायण नाम भी मिलते हैं |
जब वीरमदे काम आये तब चूंडा की उम्र मात्र 6 बरस थी | राणादे जसहड़ भटियाणी का एक धर्म भाई आल्हा चारण काळाऊ गाँव का था | राणादे ने अपने अंतिम समय में चूंडा को धाय को सौंपते हुए कहा था कि वह काळाऊ धर्म भाई आल्हा चारण के पास चली जाए | धाय ने ऐसा ही किया | आल्हा ने भी धर्म निभाया और उसको गोपनीय तरीके से रखा |
चूंडा काळाऊ गाँव में आल्हा चारण के बछड़े चराता था और गाँव के लोगों के लिए सामान्य जन था | एक दिन आल्हा ने देखा कि चूंडा बछड़े चराता एक पेड़ की छाया में सोया है और एक काला सांप उस पर छत्र ताने बैठा है | आल्हा को बालक का राजसीपन याद आया और उसे रावल माला के प्रधान भोपत तक पहुंचाया | रावल माला ने चूंडा को सालोड़ी थाणे पर लगाया और कुछ समय बाद उसे सालोड़ी की जागीर भी सौंप दी |
चूंडा ने सालोड़ी में रह कर घोड़ों व राजपूतों को एकत्र कर अपना बल बढाया | एक बार चूंडा के सैनिकों ने एक अरब व्यापारी के घोड़े लूट लिए इससे रावल माला नाराज हुए, पर चूंडा की सैनिक ताकत बढ़ गई थी |
मंडोर पर उस वक्त मांडू के बादशाह का सूबेदार ऐबक नियुक्त था | उस समय पडिहारों (इन्दों) के साथ ही यहाँ बालेसों, आसायचों, सीन्धलों आदि के 84-84 गाँव तथा मांगळियों के 55 और कोटेचों के पैंतीस गाँवों पर ऐबक का कब्जा था | इन्दों के मुखिया राणा उगमसी ने अन्य राजपूतों के साथ मिलकर मंडोर पर कब्जा कर लिया | पर निरंतर होने वाले संघर्ष से बचने के लिए राणा उगमसी ने अपने बेटे गंगदेव की बेटी लीलादे का विवाह चूंडा से करके मंडोर दहेज़ में दे दिया | इन्दों के मुखिया टोहोजी ने शर्त रखी कि हमारे 84 गाँवों में आप दखल नहीं देंगे | तभी से यह मशहूर है –
‘ईंदा रो उपकार, कमधज कदै न बीसरै |
चूंडो चँवरी चाड, दियो मंडोवर दायजै ||’
जब चूंडा के पास मंडोर का शासन आया तब एक बार कहते हैं कि काळाऊ से आल्हा चारण मिलने आया था | उसने मिलने के प्रयत्न किये किन्तु कामदारों ने उसके प्रयत्न असफल कर दिए | हताश, निराश और परेशान आल्हा ने तब कहा –
‘चूंडा आवज चीत, काचर काळाऊ तणा |
भूप भयो वैभीत , मंडोवर रै माळियै ||’
( हे चूंडा काळाऊ गाँव के काचर याद करो | अब वैभवशाली होकर मंडोर के महलों में उन दिनों को क्यों भूल गए हो ? )
राठौड़ों की राज्य-प्रसार की नीति के कारण दूसरे थार के ठिकाने उनसे नाराज चल रहे थे | भाटी तो वीरमदे के काल से ही राठौड़ों के विरुद्ध थे | यह विरोध अरङकमल ( चूंडा का बेटा ) के कारण और बढ़ा | पूगल जो भाटियों का जैसलमेर से अलग स्वतंत्र राज्य था, वहां के राजकुमार सादा अथवा सार्दूल ने कोडमदे से शादी कर ली| यह कोडमदे द्रोणपुर-छापर ( वर्तमान में चुरू में ) की मोहिल (चौहान) राजकुमारी थी ,जिसने राठौड़ अरङकमल (चूंडा का बेटा) से हुई सगाई को उसकी कुरूपता के कारण नकार दिया था | पूगल के राजकुमार सादा की सुन्दरता पर रीझ कर उसने माँ-बाप को सादा से विवाह के लिए मनाया | सो राठौड़ और भाटियों में संघर्ष होना लाजमी था | युद्ध में राजकुमार सादा व उसके पिता राणगदे मारे गये | पूगल का सिंहासन खाली हो गया | (यह अत्यंत लोकप्रिय प्रेम कथा है | कोडमदे नाम से राजस्थानी – मंचीय कविता भी है मेघराज मुकुल की |)इसी बीच जैसलमेर के पाटवी राजकुमार केल्हण (केलण) को महेचवों में शादी करने के कारण उसके पिता रावल केहर ने उसे राज्य से निकाल दिया | केल्हण अपनी सम्पूर्ण बस्ती के साथ बीकमपुर आ गया | वहीं उसे पूगल की सोढ़ी रानी का सन्देश मिला कि ‘आप मेरे पति व पुत्र की मौत का बदला राठौड़ों से लें तो मैं पूगल की राजगद्दी उन्हें सौंप दूँगी|’
भाटी केल्हण ने इसे मंजूर कर लिया | मुल्तान के जलाल खोखर और भाटी केल्हण ने नागौर के पास चूंडा को जा घेरा | राव चूंडा मारे गए | भाटी केल्हण की विजय हुई | यहाँ यह उल्लेखनीय है कि भाटी केल्हण की बेटी कोडमदे का विवाह चूंडा के कुंवर रणमल से हुआ था(यही भटियाणी जोधा की माँ थी) और इस तरह वे सम्बन्धी भी थे| कहते हैं कि युद्ध खत्म होने के बाद में चून्डाजी के मस्तक को केल्हण ने भाले में पिरोकर भाला गाड़ा और भाटी केल्हण ने ‘सगाजी ! लटक जुहार’ कहते हुए उन्हें सलामी दी | पास खड़े एक समझदार ने कहा कि –‘ केल्हणजी यह आपने ठीक नहीं किया ? आगे से भाटी ही अब सलामी में रहेंगे |’ इस तरह केल्हणजी ने तो पूगल का सिंहासन प्राप्त किया पर भाटियों को अभिशापित कर गये |
भावी अपना खेल खेलती है | छोटे भाई राव वीरम के वंशज आगे चलकर गढ़ों के स्वामी बने और रावल माला के वंशज छोटी छोटी इकाइयों में बाँट कर शक्तिहीन हो गए | तब से यह कहावत प्रचलित है –
‘माले रा मड्ढै नै वीरम रा गड्ढै’ |
(अर्थात –बड़े भाई रावल माला के मढ़ों में और छोटे भाई वीरम के गढ़-किलों में|)
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