शनिवार, 2 मई 2020

मेहा मांगळिया

महेन्द्रसिंह जी छायण 
द्वारा लिखित 
तथा शीघ्र ही प्रकाशित होने वाला
चर्चित प्रबन्ध-काव्य है
"मेहा मांगळिया "

इस प्रबन्ध-काव्य की
21 वीं कविता है -

              "हीरादे"

जो भी मायङ-भाषा में रूचि रखता है, वह इस कविता को जरूर पढें -
              
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हीरा! चंपै    वाळी   डाळ,
हीरा! विगसित समद-मराळ|
रूप री रति, हिंयै री हार,
विधाता घड़ी ज सांचै ढाळ||

अधर हा इमरतिया रस-कूप,
पुलकित  नीरज  दोनूं नैण|
नैह री  ऊंडी  नदियां  भौंह,
वाल्हा! जीव करण बेचैण||

कड़ियां  तांई  काळा  केस,
जांणै  नाग  व़ळाका  खाय|
गाल पर लटकंती   इक   लट,
मांणस-हिंय नै दै हिलकाय||

जांणै  हिमगिर  रा  हा अंस,
धवळा धट ऊजळिया दांत|
मोहक विधु-मुख रौ रूपास,
उडगण वाळी आगळ पांत||

ग्रीवा   डीगी  तीखौ   नाक,
चुतरपण घड़िया थकां कपोल|
सिरज्यौ  मानसरोवर   हंस, 
मरूथळ हीरा-सौ अणमोल़||

कंवळा-कुसुम हीर रा हाथ,
पगां री धीमी गज-सी चाल|
आछी आंगळियां  री  ओप,
गळै में सोहै मुक्तक  माल़||

हिलकतौ  वा़यरियै  में चीर,
अलेखूं हिंवड़ा दे  धड़काय|
वदन सूं नीकळिया मृदु बैण,
मही रौ कण-कण दै मुळकाय||

हीरा! सुणै ज कोयल कूक,
चुगावै चिड़कलियां  नै चूंण|
न्हावै निरमळ  सरवर  नीर,
जीवै  सतरंगी   भल  जूंण||

हींडै हरियल़  तरूवर  डाळ,
लफणां  छू  छू  वा  इतराय|
उतरती निरखै ऊजळ आभ,
नीलौ  आंख्यां  रंग  समाय||

रमै वौ  साथणियां  रै  साथ,
करै वौ हँसती थकी किलोळ|
पलकां झुकियौड़ी लै लाज,
हियै में जोबन भरै हिलोळ||

--महेंद्रसिंह सिसोदिया 'छायण'
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अनुज छायण की यह कविता श्रृंगार विधा में मिलेनियम-काव्य के रूप में उल्लेखित की जाएगी।
मैं इसे हिन्दी में पद्यबद्ध कर राजस्थानी भाषा की अपार क्षमता को सादर प्रणाम करता हूं !

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"मेहा" की प्रीतम वह "हीरा",
            चम्पा-की-शाखा थी सचमुच !
कहने को "आदम" थी लेकिन,
              सौंदर्य-मूर्तिका थी सचमुच !!
 
वह हीरा ऐसी थी मानो,
           तम रौंद रही इक "दक्ष-तङा" !
हद रूप, सुगन्ध, पल्लवन ले,
              सागर में चन्दन-वृक्ष खङा !!

था रूप "रति" सा हीरा का,
          वह हृदय-हार ! वह मतवाली !
मानो अपने ही हाथों से,
                     ईश्वर ने संचे में ढाली !!

सृष्टि में सुख के संचारक,
                 अमृत से भीगे दोनों लब !
मानो दो कूप भरे "रस" से,
               मानो आतुर हैं पृथ्वी-नभ !!

दो आंखें नीरजवन्त-दीप,
              जिनमें सारी सृष्टि का हित !
हद पुलकित, भाव-प्रधान, गहन,
        हद आब लिए, हद उल्लासित !!

भौंहें हीरा की यूं दिपदिप,
              मानो "कंदाल" लिए प्रहरी !
कर स्नेह-धार को आत्मसात,
                मानो दो नदियां है गहरी !!

वह हीरा सचमुच हीरा थी,
      नख-नख था उसका नवल, नूप !
बिखराता अदभुत बेचैनी,
          उस अनुपमा का धवल-रूप !!

कटि चूम रहे यूं कृष्ण-केश,
         ज्यूं "गुंजित-यौवन" लिए राग !
माया का प्रस्फुटन करता,
              मानो बल खाता महानाग !!

उसके गालों पर लटक रही,
       इक काली-लट क्योंकर अक्षम ?
कोई भी मन को वह अदनी,
             झकझोर डालने में सक्षम !!

मानो हिमगिर का अंश लिए,
          अत्यन्त उज्ज्वल, धवल दंत !
मानो विधु-मुख का रूप धार,
          उङते खग-दल के अग्र-कंत !!

लम्बी गर्दन पर शोभित मुख,
  उस मुख पर शोभित तिखन-नाक !
तब भव्य-रूप को निरख भुवन,
             आशाएं थामे आक-वाक !!

उन रक्तिम गालों को रब ने,
                 चतुराई लिए बनाया है !
मानो इक मानसरोवर-खग,
      हिम-आलय को तज आया है !!
     
वह खग परदेशी है फिर भी,
           पारंगत विविध विधाओं में !
अनमोल जवाहर मरुथल का,
           दीपित है दसों दिशाओं में !!

पुष्पों से कोमल उसके "कर",
       इक अदभुत सा आभास लिए !
अत्यन्त मुलायम अंगुलियां,
          इक वीरोचित विन्यास लिए !!

उस हीरा के दो चपल-चरण,
         गज जैसी मोहक चाल लिए !
रुनझुन करती दो पायल तब,
         अपनी ही मोहक-ताल लिए !!

उसके कंठों में खुद सोभित,
        अरु धन्य-धन्य मुक्तक-माला !
इक-इक मोती में उठउठती
        मानो इक शीतल सी ज्वाला !!

जब उङता आंचल अनायास,
           पवनों की मधुर-शरारत से !
उस वक्त हजारों हृदय-यंत्र,
       रुक-रुककर चलते आहत से !!

जब मृदुल-वचन झरते मुख से,
    तब धर का कण-कण मुस्काता !
संसार समूचा सचमुच ही,
          उस सम्मोहन में खो जाता !!

कोयल की कूकें सुनते ही,
            वह हीरा उपवन में आती !
अपनत्व भाव से करतल में,
         चिङियों को चुग्गा चुगवाती !!

सखियों के संग उतर जाती,
             निर्मल नाडों में वह नारी !
यूं सतरंगा-जीवन जीती,
        खुशियों को लेकर वह सारी !!

हर एक पैंग चढ वह हीरा,
       तरवर के शिखर को छू लेती !
तब भर-भर गुंजित-किलकारी,
       हरियल-जीवन को जी लेती !!

आकाश निरखती वह हीरा,
           जब वह झूला नीचे आता !
तब नभ का सारा नील-रंग,
        उसकी आंखों में घुल जाता !!

सखियों से सज्जित वह हीरा,
 कभी हांस चली, कभी रुक जाती !
क्रीङाएं करती विविध-विविध,
     आखिर में खुद भी थक जाती !!

और, तभी न जाने क्यूं,
          हीरा की पलकें झुक जाती !
हिल्लोल हजारों यौवन की,
          उसके अंतस में उठ जाती !!
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शुक्रवार, 17 अप्रैल 2020

दारू दुरगुण -दसक

दारू दुरगुण -दसक

पांच पैग लीधां पछै,
 पयड़ज्या जाडा पग्ग।
चलणो घर दिसियै चहै,
   मन ना  मानै मग्ग।।

 पांच पैग लीधां पछै,
धींगामसती धार।
गिण गिण देवै गाल़ियां,
सुद्ध बुद्ध री नी सार।।

 प्याला भर पीधा प्रतख ,
अणडर  अंधाधुंध।
राघड़ लड़ियो राम सूं,
दारू में दसकंध।।

 पी मद खुद री पांतर्यो,
मत निज री मतिमंद।
सुन में हरली सीत नै,
दारू में दसकंध।।

पी दारू परवारियो,
छता किया छल़छंद।
ठगली उण ठिठकारियै,
देख सीत दसकंध।।

बिनां पियां बजरंग वर,
सधरो तिर्यो समंद।
विलल़ै लंका बोड़दी,
दारू में दसकंध।।

 गी किडनी घर ई  गयो,
खिंड ग्या सकल़ खवाब।
भमियो इणविध भोगनो
सखा न तजी शराब।।
सुबह सांझ दोनां समै,
रीझ आध्योड़ी रात।
दारू !दारू!दोसतां,
बाचो आ की बात।।
            कवत्त
दारू री दिन रात,
विदग्ग की बातां बाचो।
व्हालां दो बतल़ाय,
 एक गुण इणमें आछो।
सूखै कंठ सदाय, 
घूंट इक भरियां गैरो।
जाडी पड़ज्या जीब,
चरित नै बदल़ै चैरो।
उदर में जल़न आंतड़ सड़ै,
पड़ै नही पग पाधरो।
किण काज आज सैणां कहो,
इण हाला नैं आदरो।।1

आय प्रथम आवेस,
केय फिर कल़हगारी।
मुर उर चिंता मांह,
  चतुर्थ फिर स्वच्छाचारी।
पाचन बिगड़ै पांच,
बदन में छठी बीमारी।
सप्तम हरलै सा'स,
बुद्धि आठमे बिगारी।
विटल़ नवम नर कुलल़ो बकै,
प्यालो ज्यां कर पेखियो।
कवि गीध दसम कहिये गुणी,
दारू पातक देखियो।।2

काढी चतुर कलाल़,
कहण री बातां कूड़ी।
सूगलवाडो साफ,
दखां जिथ उपज दारूड़ी।
नीच चीज मँझ नांख,
आसव रो घड़ो अणावै।
गुणियण बिनां गिलाण,
विटल़ नैं पैक बणावै।
तर तर बखाण दारू तणा,
नरां वडां मुख न्हाल़िया।
झूठ री नहीं इक जाणजो,
खोटी के घर खाल़िया।।3

पीधां सूं उतपात,
मिनख के वडा मचावै।
निबल़ो पड़झ्या निजर,
 नीच संग नाच नचावै।
ओछी बातां आख,
लाख री ईजत लेवै।
सदा गमावै साख, 
वाट पण ऊंधी बेवै।
सैण नैं गिणै अरियण समो, 
रेस देवण नैं रीसवै।
गुण एक इसो मानां गहर, 
दारू में नहीं दीसवै।।4

घूंट एक घट ढाल़,
बोलै फिर देखो बाड़ो।
नीच ऊंच डर नाय,
 करै फिर कोय कबाड़ो।
भलपण सारी भूल,
बिरड़ के काज बिगाड़ै।
दिल ढाकी सह दाख,
 असँक फिर जबर उगाड़ै।
आपनै सदा साचो अखै,
(पण)कैवै बसती कूड़ियो।
सैण री सान लेवै सदा,
 दूठ मिनख दारूड़ियो।।5

निज नारी पर रोस,
खीझियो नितरो खावै।
जिण रो हर कज जोय, 
विदक दिन रात विगोवै।
आवै ओ अधरात,
सदन तूफांन सरीखो।
बटका भरतो बोल,
तोत में रैवत तीखो।
कांमणी डरप कांनै रहै, 
बीहा रहे बाकोटिया।
सुरा री बात किण कज सही,
खंच खंच भाखै खोटिया।।6

दरद गमावण दवा,
केक नर दाना कैवै।
इण सारू ई आप,
 लुकी नै हाला लैवै।
गमै पैल तो गरथ,
 दूसरी सुध बुध देखो।
सोल़ो लगै सरीर,
छेद फिर काल़ज छेको।
रोग रो जोग जुड़ियो रहै,
सुरापांन रै स्वाद में।
 साम रै दिया नाही सरै ,
मरै बिनां ई म्याद में।।7
करण हथाई काज,
भाव सूं बैठै भेल़ा।
तण तण ऊंची तांण,
सज्जन मन करण समेल़ा।
बण यारां रा यार,
जांण घण हेत जतावै।
पुरसै कर कर प्यार,
खार पण ढकियो खावै।
ऊठसी जदै करसी अवस, 
धन लारै झट धूड़िया।
छीपिया नहीं रहसी छता,
देखो नर दारूड़िया।।8


मद पिवै कर मोद,
जिकै रद करै जवानी।
मद पियै कर मोद,
जिकै हद लड़ै जबानी।
मद पियै कर मोद,
सुद्ध नुं साव शरीरां।
मद पियै कर मोद,
फेर पद पाय फकीरां।
मद मांय होस पूरो मिटै,
 मरट पिटै फिर मानजो।
सैण सूं कटै सिटल़ाय तन,
सदन घटै नित शान जो।।9

दारू हंदा दोस ,
जोस में नहीं जणाया।
मोटै कवियां मांड,
  सधर भर भाव सुणाया।
करण कविता काट,
जुगत सूं भाव जगाया
ज्यूं रा ज्यू ई जोड़,
 प्रेम सूं कवी पुगाया।
रीस करो भल ,भल रीझ अब, 
गढवियां सुणजो गुणी।
हर जात तणो हित जाण हिव, 
भाल़ गिरधरै आ भणी।।10

गिरधरदान रतनू दासोड़ी

बुधवार, 15 अप्रैल 2020

समय बड़ो बलवान



समय बड़ो बलवान
 जाने जहान सारो,
अवनी बड़े विद्वान कही गए ध्यान ते।
सूर की छिंयारी  भाई तीन वेर फिरि जात,
चंद्र भी गुजारे दीह सुन्यो अपमान ते।
मुरलोक नाथ हूं की लुटी घर नारी सारी ,
रुकी नहीं देखो जरा पाथ हूं के बान ते।
गिरधरदान 
सुन सावधान  होय बात
 केते केते बली कटे समय की कृपान ते।।

 समय  की मार झेली  
राजा हरिचंद जोवो,
सत्य को पूजारी भाई नेक थररायो नीं।
समय की झाट पंडव के थाटबाट गए,
सत्य हूं की वाट हों से मन विचलायो नीं।
समय भार  रंतिदेव अन्न को बिख्यो भोग्यो
सत पे अडग रह्यो  दिलगीरी लायो नीं।
समय की चोट झेल हुए जमीदोट जो तो,
वांको आज तांई जग नाम बतरायो नीं।।

 पलटि गयो समै जान महारान पत्ता  को,
दुख में अडग वो  रखन चख पानी को।
 उलटि समै  अटल दुर्गादास प्रण हूं पे,
रह्यो वीर थिर वो  रक्षक रजधानी को।
चिकनी रोटी को देख शिवो ललचायो नहीं,
समै विपरीत भयो रूप  हिंदवानी को।
कहै गिरधरदान सुनिए सुजान प्यारे,
 मुढ मैं सुनाऊं सुनी पूनि ग्यानी ध्यानी को।।

वक्त के तकाजे  खाए साक पात देख पता,
आजादी विसारी नहीं झेल सेल छाती पे। 
अस हूं की पीठ बजा रीठ दुर्ग स्वामी काज,
समय को बताय धत्ता चखन राती पे।
शिवा सो सपूत रह्यो रण मजबूत मन ,
समय  को खेल मान धार वार घाती पे।
 गीध मुर नरन के चरन बलिहार ले,
धरन पे अमर  गौरव निज जाती के।।
गिरधरदान रतनू दासोड़ी

शनिवार, 4 अप्रैल 2020

राठौड वंश की कुल देवी माँ नागणेची जी का इतिहास

राठौड वंश की कुल देवी माँ नागणेची जी का इतिहास

एक बार बचपन में राव धुहड जी ननिहाल गए , तो वहां उन्होने अपने मामा का बहुत बडा पेट देखा ।बेडोल पेट देखकर वे अपनी हँसी रोक नही पाएं ।और जोर जोर से हस पडे ।तब उनके मामा को गुस्सा आ गया और उन्होने राव धुहडजी से कहा की सुन भांनजे । तुम तो मेरा बडा पेट देखकर हँस रहे होकिन्तु तुम्हारे परिवार को बिनाकुलदेवी देखकर सारी दुनिया हंसती हैतुम्हारे दादाजी तो कुलदेवी की मूर्ति भी साथ लेकर नही आ सकेतभी तो तुम्हारा कही स्थाई ठोड-ठिकाना नही बन पा रहा हैमामा के ये कडवे बोल राव धुहडजी के ह्रदय में चुभ गयेउन्होने उसी समय मन ही मन निश्चयकिया की मैं अपनी कूलदेवी की मूर्ति अवश्य लाऊगां ।और वे अपने पिताजी राव आस्थानजी के पास खेड लोट आएकिन्तु बाल धुहडजी को यह पता नहीथा कि कुलदेवी कौन हैउनकी मूर्ति कहा है ।और वह केसे लाई जा सकती है ।आखिर कार उन्होने सोचा की क्यो नतपस्या करके देवी को प्रसन्न करूं ।वे प्रगट हो कर मुझे सब कुछ बता देगी ।और एक दिन बालक राव धुहडजी चुपचाप घर से निकल गये ।और जंगल मे जा पहुंचे ।वहा अन्नजल त्याग कर तपस्या करने लगे ।बालहट के कारण आखिर देवी का ह्रदय पसीजा ।उन्हे तपस्या करते देख देवी प्रकट हुई ।तब बालक राव धुहडजी ने देवी को आप बीती बताकर कहा की हे माता ! मेरी कुलदेवी कौन है ।और उनकी मूर्ति कहा है ।और वह केसे लाई जा सकती है ।देवी ने स्नेह पूर्वक उनसे कहा की सून बालक !तुम्हारी कुलदेवी का नाम चक्रेश्वरी है ।और उनकी मूर्ति कन्नौज मे है ।तुम अभी छोटे हो ,बडे होने पर जा पाओगें ।तुम्हारी आस्था देखकर मेरा यही कहना है । की एक दिन अवश्य तुम हीउसे लेकर आओगे ।किन्तु तुम्हे प्रतीक्षा करनी होगी ।कलांतर में राव आस्थानजी का सवर्गवास हुआ ।और राव धुहडजी खेड के शासक बनें ।तब एक दिन !राजपूरोहित पीथडजी को साथ लेकर राव धूहडजी कन्नौज रवाना हुए ।कन्नौज में उन्हें गुरू लुंम्ब रिषि मिले ।उन्होने उन्हे माता चक्रेश्वरी की मूर्ति के दर्शन कराएं और कहाकी यही तुम्हारी कुलदेवी है ।इसे तुम अपने साथ ले जा सकते हो ।जब राव धुहडजी ने कुलदेवी की मूर्ति को विधिवत् साथ लेने का उपक्रम किया तो अचानक कुलदेवी की वाणी गुंजी - ठहरो पूत्र !में ऐसे तुम्हारे साथ नही चलूंगी ! में पंखिनी ( पक्षिनी )के रूप में तुम्हारे साथ चलूंगीतब राव धुहडजी ने कहा हे माँ मुझे विश्वास केसे होगा की आप मेरे साथ चल रही है ।तब माँ कुलदेवी ने कहा जब तक तुम्हें पंखिणी के रूप में तुम्हारे साथ चलती दिखूं तुम यह समझना की तुम्हारी कुलदेवी तुम्हारे साथ है ।लेकिन एक बात का ध्यान रहे , बीच में कही रूकना मत ।राव धुहडजी ने कुलदेवी का आदेश मान कर वैसे ही किया ।राव धुहडजीकन्नौज से रवाना होकर नागाणा ( आत्मरक्षा ) पर्वत के पास पहुंचते पहुंचते थक चुके थे ।तब विश्राम के लिए एक नीम के नीचे तनिक रूके ।अत्यधिक थकावट के कारण उन्हें वहा नीदं आ गई ।जब आँख खुली तो देखा की पंखिनी नीम वृक्ष पर बैठी है ।राव धुहडजी हडबडाकर उठें और आगे चलने को तैयार हुए तो कुलदेवी बोली पुत्र , मैनें पहले ही कहा था कि जहां तुम रूकोगें वही मैं भी रूक जाऊंगी और फिर आगे नही चलूंगी ।अब मैं आगे नही चलूंगी ।तब राव धूहडजी ने कहा की हें माँ अब मेरे लिए क्या आदेश है ।कुलदेवी बोली की तुम ऐसा करना की कल सुबह सवा प्रहर दिन चढने से पहले - पहले अपना घोडा जहाॅ तकसंभव हो वहा तक घुमाना यही क्षैत्र अब मेरा ओरण होगा और यहां मै मूर्ति रूप में प्रकट होऊंगी ।तब राव धुहडजी ने पूछा कीहे माँ इस बात का पता कैसे चलेगा की आप प्रकट हो चूकी है । तब कुलदेवी ने कहा कि पर्वत पर जोरदार गर्जना होगी बिजलियां चमकेगी और पर्वत से पत्थर दूर दूर तक गिरने लगेंगे उस समय । मैं मूर्ति रूप में प्रकट होऊंगी ।किन्तु एक बात का ध्यान रहे , मैंजब प्रकट होऊंगी तब तुम ग्वालिये से कह देना कि वह गायोंको हाक न करे , अन्यथा मेरी मूर्ति प्रकट होते होते रूक जाएगी ।अगले दिन सुबह जल्दी उठकर राव धुहडजी ने माता के कहने के अनुसार अपना घोडा चारों दिशाओं में दौडाया और वहां के ग्वालिये से कहा की गायों को रोकने के लिए आवाज मत करना , चुप रहना , तुम्हारी गाये जहां भी जाएगी ,मैवहां से लाकर दूंगा ।कुछ ही समय बाद अचानक पर्वत पर जोरदार गर्जना होने लगी , बिजलियां चमकने लगी और ऐसा लगने लगा जैसे प्रलय मचने वाला हो ।डर के मारे ग्वालिये की गाय इधर -उधर भागने लगी ग्वालियां भी कापने लगा ।इसके साथ ही भूमि से कुलदेवी की मूर्ति प्रकट होने लगी । तभी स्वभाव वश ग्वालिये के मुह से गायों को रोकने के लिए हाक की आवाज निकल गई । बस, ग्वालिये के मुह से आवाज निकलनी थी की प्रकट होती होती मुर्ति वही थम गई ।केवल कटि तक ही भूमि से मूर्ति बाहर आ सकी ।देवी का वचन था । वह भला असत्य कैसे होता ।राव धुहडजी ने होनी को नमस्कार किया । और उसी अर्ध प्रकट मूर्तिके लिए सन् 1305, माघ वदी दशम सवत् 1362 ई. में मन्दिर का निर्माण करवाया ,क्योकि " चक्रेश्वरी " नागाणा में मूर्ति रूप में प्रकटी ,अतः वह चारों और " नागणेची " रूप में प्रसिध्ध हुई ।इस प्रकार मारवाड में राठौडों की कुलदेवी नागणेची कहलाई ।    जय माँ नागणेश्वरी 

शुक्रवार, 27 सितंबर 2019

लोगो री पंचायती

लोगो री पंचायती ,      करता रह दिन रात ।
खुद री बाता निपटे न , धिन पंचो री न्यात ।।

खाज खिणता खुंजा भरे , कर अणहुती बात
निर्दोषी ने दोषी करै ,   धिन पंचो री न्यात ।।

ओंटा बेङी करता रहे ,   करै भायप री बात ।
मोको पङिया बट काढे , धिन पंचो री न्यात ।

नारेळा सु न्याय करै ,       करै घणो मे घात ।
झूठा ब्यान साचा करे ,  धिन पंचो री न्यात ।।

लखपतियो रै लागु नही ,    दे गरीब ने लात ।
पोल माही ढोल घुरावे , धिन पंचो री न्यात ।।

बहु बींदणी बेटा बेटी ,        घरै न माने बात ।
ओरो घर हुक्म चलावे , धिन पंचो री न्यात ।।

अपणो ठरको राखण सारु , दिन गिणे न रात
तालर माही तंबू ताणे ,  धिन पंचो री न्यात ।।

जर्दा बीङी अमल तंबाकु ,  डोडा.री जमात ।
खेंगारा कर करै हथाई , धिन पंचो री न्यात ।।

माल ठोके मोकळो ,  वे    फेर पेट पर हाथ ।
मृत्युभोज करावे देखो , धिन पंचो री न्यात ।।

खेत बिको चाहे घर बिको , राखे अपणी बात
बहियो माही ऊंठ मंडावे ,  धिन पंचो री न्यात   

सांची कहुं तो दोरी लागे , आ म्हारोङी बात ।
कहे मेघ रिख रामचंद्र , धिन पंचो री न्यात ।।

मंगलवार, 10 सितंबर 2019

गोदड खवड पच्चीसी

ll गोदड खवड पच्चीसी  l

ll कथा ll

*(छंद प्रकार:- दोहरो)*

दाबी तै बाबी दिधा, गोदड कीधी गल्ल
जित्यो कैसन जंगही, सामा छता सबल्ल *(१)*

अर्थ:-
हे गोदड खवड, तुने बाबीयो को दबा दिया है और उनको हास्य के पात्र रख दिया है, शत्रुसेना सबल होने पर भी तुं युद्ध कैसे जिता ?

*(छंद प्रकार:- पद्धरी)*

लहिकै सुफौज हामद नवाब, आवत धांधलपुर करन ताब
विक्रम सवंत इकअष्टपांच, ता परै षष्ट कुल अंक जांच *(२)*

अर्थ:-
हामद नवाब चंगी फौज लेकर धांधलपुर पर अपने नेजा फरकाने आए थे, विक्रम संवत की इकअष्टपांच (१८५) और उसके उपर षष्ट(६) बराबर १८५६ की साल।

खग गगन लगै करनै विहार, रहिया नाहर भगिया सिहार
हांकल धांधलपुर हेर हेर, करजो बैरी पर जोध कैर *(३)*

अर्थ:-
आकाशमे गीध उडने लगे, सिंह मैदानमे रहे और सियार भागने लगे, धांधलपुर के घर घरमे हांक हुई, सबको एक ही बात कही गई के "हे वीरो, बैरियो पर कहर बरसा देना।"

मखवान वंस झाला प्रसाख, काठी सुपंथमै खवड दाख
सो ब्रक्ख बडो पर छोटि डाल, और डाल मही कछु पर्ण हाल *(४)*

अर्थ:-
मखवान वंश मै झाला प्रशाखा और झाला प्रशाखामे काठी पंथिय खवड वंश ऐसा है जैसा बडे वृक्षमे छोटीसी डाल और युद्ध की स्थितीमे तो उस डाल के कुछ पर्ण ही हाजिर रह पाए थे।

हाजर हताह सो लरन काज, ललकार पुरन कुळ रखन लाज
बाबी बैरी सै बाजवाह, जुड्या जोधारा जुद्ध माह *(५)*

अर्थ:-
जो हाजिर थे वह लडने के लिए, ललकार की पादपूर्ती करने के लिए, बाबीयोसे भिडने के लिए युद्धमे जुड गए।

हा आमसामनै पडी हांक, तरवार वार बजि ताक ताक
धड धांकधांक हामद धडक्क, पड थांक थांक लाग्यो थडक्क *(६)*

अर्थ:-
आमसामने हांक हुई, तरवारो का नाद सुनाई देने लगा, हामद नवाब की धडकने बढ गई, धरती थडक उथडक होने लगी।

जूनागढ पति री जित जंग, बाधा बिचार करता बरंग
जय पराजय खवड त्याग जाल, आखो अफीम रो गटक प्याल *(७)*

अर्थ:-
'जूनागढ ही युद्ध जितेगा' ऐसा विचार सर्व मस्तिष्क कर रहे थे, लेकिन ऐसी स्थिती मे विजय या पराजय की चिंता छोड कंठ को कसुंबल रंगसे तरबतर कर के गोदड खवड युद्धमे आ रहा है।

फिर चडी जुद्ध करियाह वार, अरि अंग अंग गिय आरपार
पागल करिया प्रेतह पिशाच, मंडाय गियो हर करन नाच *(८)*

अर्थ:-
गोदड खवड युद्धमे उतरा, दुश्मनो के अंग अंगसे शस्त्र आरपार हो गए, प्रेत और पिशाच मौजमे आ गए, शिव तांडव नृत्य करने लगा।

खनमै निहार गोदड खवड्ड, बाबी भगिया पदि बड्ड बड्ड
चारन सुकाव्य पाया सुपाव्य, मरदामरद्द द्रस मनोभाव्य *(९)*

अर्थ:-
क्षणभरमे गोदड खवड को देख बाबी के बडे बडे होदेदार भागने लगे, चारणो ने वीरकाव्यो को पिरसना शुरू कर दिया, वह द्रश्य मर्दो के काज मनमोहक था।

हुय गी अछ री लंबी कतार, वरमाळ हत्थ गहि वार वार
बाबी अगम्य हा हा हरेक, जोधार गम्य गोदड हि हेक *(१०)*

अर्थ:-
अप्सराओकी लंबी कतार लग गई, वह वरमाळ हाथ लेकर योद्धाओ पर वारी जा रही है, बाबी सारे उनकोे अगम्य है और फक्त एक गोदड खवड ही प्रिय है।

पर गोदड मरतो जी नथीह, पाछी स्वर्गारी थी पथीह
हामद गुमान पर ठोक हल्ल, गिरनारी केरी कही गल्ल *(११)*

अर्थ:-
लेकिन गोदड की मृत्यु हे नही रही है, अप्सरा स्वर्ग की और वापिस लौट चली, हामद नवाब के अभिमान पर हल का प्रहार लगा, गिरनार का नृपती हास्यपात्र बना।

वावड करिया काठी विजैह, सरस
तर सरप्प घा देह देह
उपचार करिकै थकिया हकीम, धरती सुकाहती धीम धीम *(१२)*

अर्थ:-
काठी विजयके समाचार फैलाए गए, शस्त्रो रूपी सर्प के घाव देह पर लगे हुए है, उपचार कर करके हाकिम थक चुके है और रक्तरंजित धरती धीरे धीरे सुख रही है।

सो विजय अत्ति दैवत्त पत्त, सूरज ससीह सूधी जगत्त
मै नाम सह रहिसै सुमाम, दरसै मयूख कुळ बडो दाम *(१३)*

अर्थ:-
वह विजय गाथाओमे वृद्धी करने वाला था, यावच्चचंद्रदिवाकरौ था, कवि मयूख ईस विजय को खवड कुळ को ईश्वरका दिया बडा ईनाम कहते है।

*ll प्रशस्ति ll*

*(छंद प्रकार:- छप्पय)*

बाबी फौजा बडी, चडी हठ कडी सुचंगी
राज रणांगण रंग, कंग सा सर्व कुरंगी
बैरी सत्थे बत्थ, लथोबथ भारथ लरिकै
अर्क कियो नव अत्थ, हत्थ राखी धर हरिकै
बिग्रह मयूख होयो बिकट, भिड्या धांधलनगर भड
कायर अनेक तजि टेक पर, खस्यो ना गोदड खवड *(१४)*

अर्थ:-
बाबीयोकी बडी और चंगी फौज हठ लेकर आई, उनके साथ अश्वस्वार अन्य कई राज्य मिले, बैरीयोसे बथ भिरी, युद्ध लथोबथ हुआ, सूर्य अस्त नही हुआ, दुसरी धरको हरना लेकिन अपनी धरती नही देने के निचार से यह विग्रह हुआ, धांधलनगरमे भड भिडे, कायरो ने टेक त्यागी लेकिन गोदड खवड अचळ रहा।

बाबी रा बच्चाह, दाह दीधा जग डंका
कथे गत्थ कविराज, सौर्यमै हौत न संका
भोम डुलावी भीड, रुलावी नार अरंदी
हाक बुलावी हठी, सूम सम करी न संधी
विधवा मयूख नारी वधी, परी वधी मयदान पड
ऐसो बरंगमै अति अकड, खदडे अरि गोदड खवड *(१५)*

अर्थ:-
बाबी वंशको दाहकर तुने डंका बजा दिया। कविराज तेरी गाथा बना रहा है उसे तेरी शूरवीरता पर कोई शंका नही, तुने भूमी डुलादी, शत्रुकी स्त्री रुलादी, हठसे हाक बुलादी लेकिन संधी नही की, विधवा नारी और परी दोनो की संख्या बढ गई, है गोदड खवड तुने क्रोधमे आकर शत्रुओको खदेड दिए।

धांधलनगर मै धक्क, हक्कबक हौत तरक्का
चल काठी करि चक्क, हक्क हौवै धर हरका
गोरस करन गरक्क, थक्कसै पुगैहि थल्लम्
मक्कवान धर मध्य, दक्ख जूनागढ दल्लम्
हल्ला विराट विकराल हुय, जामी जड राखी जकड
बाबी मयूख हार्या बुरा, खुंखारा गोदड खवड *(१६)*

अर्थ:-
धांधरपुरमे धाक पडी, तुर्क हक्काबक्का हो गए, काठीयोने धरा को चल करदी, धरा पर अपना हक बनाए रखा, बाबी ग्रास को खाने के लिए थके हुए मयदान पर पहुचे, मखवानो की मध्य घरा पर दक्षिणसे दल आया, विकराल और विराट युद्ध मचने पर काठीयोने अपनी धरती जकड रखी, बाबीयो को गोदड खवडसे बुरी तरह पराजय मिली।

नत्थे धांधलनेर, तै बुरौ बैर हारकै
नेर हेर गिरनार, पैर वच छुपै नारकै
तीखा लग्गे तार, मिठो लिय मारमारकै
भिटे तुटे भेंकार, भूप सो भोम भारकै
भेचक्क भयंकर दर भई, बाबी पासा ग्या बिगड
ततही मयूख अरि तगडिया, खेखटिया गोदड खवड *(१७)*

अर्थ:-
धांधलपुरसे बेरी बुरे हारके भागे, निज घर गिरनारमे बेगमो के पास छुप गए, हार के तीखे तार उन्हे मिले, मिठी मौज मार पडने की वजहसे चली गई है, खवडो से भिडने पर वह तुट चुके है और भूमी पर भार बनके रह गए है, खवडकी धरा पर बाबीयोके पासे बिगड गए, गोदड खवडने दुश्मनो को खेखटिया भगा दिया।

राणावत रावत्त, अत्ति बळसू आथडियो
राणावत रावत्त, पत्त रख पांव न पडियो
राणावत रावत्त, सत्त मै हुयो सत्थ ही
राणावत रावत्त, हरी नव करी हत्थ ही
दुसमन मयूख आवत दरै, भौम हरन काजै भिरै
मखवान हान कीधी महा, गोदड सत्रारा सिरै *(१८)*

अर्थ:-
है राणा खवडके पुत्र, तु पुरे जोर से दुश्मनो से लडा लेकिन उनके पांव न पडा  तुं सत्य के साथ रहा तुने किसी की धरती नही छिनी फक्त अपनी धरा की रक्षा की, है मखवान जाती के गोदड खवड तेरे दर पर शत्रुओके आने पर तुने उसे बहोत बडी हीनी दी।

सिंहण जणिजै सिंह, कदी जणिजै नव कुक्कर
सिंहण जणिजै सिंह, दिजै जगनै नव डुक्कर
सिंहण जणिजै सिंह, मारिकै खाय महाभड
सिंहण जणिजै सिंह, सत्र रो बनै सत्र कड
नाहर मयूख हा खाय नव, खेतर रो को दिवस खड
ताके समान , खास खास गोदड खवड *(१९)*

अर्थ:-
है सिंहण, तुह्जे जन्म देना हो तो सिंह को देना, कदी डुक्कर या कुक्करको जन्म मत देना, तुह्जे जन्म देना हो तो सिंह को देना, जो शिकार कर खा सकती हो और शत्रु का शत्रु बन सकता हो, कवि मयूख कहता है की सिंह कभी घास नही खाता उसे उसके सारे गुण गोदड खवडमे दिख रहे है।

हरखत अति हरपाल, निहालत बिग्रह नभपै
हरखत अति हरपाल, सूत दरसावत सभपै
हरखत अति हरपाल, खवड देखी खुंखारा
हरखत अति हरपाल, अहो बाबीह बिचारा
हरखत मयूख हरपाल रो, आतमाह ऐसोहजी
देखिकै राम दसरथ दिए, जसी भाव जैसोहजी *(२०)*

अर्थ:-
हरपालदेव का हर्ष बढ रहा है, वह विग्रह को नभ पर देख रहा है, अपने पुत्र को वह ईंद्रकी सभा पर दर्शा रहा है, अपने खुंखार पुत्र और बिचारे बाबीयो को देख हरपालदेवको ऐसा हर्ष हो रहा है जैसा यशमयी हर्ष राम को देख कर दशरथ को होता है।

वोकर कर्नल वखत, आविया सब इलापत
करनै काज करार, तजन काठियावाड तत
पडदो आडो पाड, बिठो अंदर वोकर बड
झूंक झूंक सब गिया, परापर भूप पडापड
तद खाग काढ फाडी दिधौ, पडदो करियो पार भड
अणनम मयूख काठी इजत , खौवत ना गोदड खवड *(२१)*

अर्थ:-
कर्नल वोकर के समय सब भूप जब करार काज ईकठ्ठे होकर अपना राज देने के लिए आए तब वोकर अपने तक पहुचने के लिए बिचमे पडदा रख के बैठा हुआ था, वोकर के मान को ध्यानमे रखते हुए सब भूप उस पडसे से झूक कर उस पार गए और जब गोदड खवडकी बारी आई तब उसने अपने शस्त्रसे पडदे को फाड कर उस पार जाना पसंद किया, है गोदड खवड, तुने काठियो की इज्जत रखली उसे खोया नही।

करियो जिरण कोट, समय री खोट कुसत्थी
करियो जिरण कोट, नास रो इलाज नत्थी
करियो जिरण कोट, होवणो रेसे होई
करियो जिरण कोट, सरब धांधलपुर सोई
हो ठसक ठाठ पत ठाकुरा, बीच कोट रो थान बड
जीरण मयूख दैवे कुजस, खडो कियो नव गढ खवड *(२२)*

अर्थ:-
धांधलपुर का गढ जिर्ण हो चुका है, उसका दोषी समय है, नाश का कोई इलाज नही है, होना हे वह होके रहता है, उसमे धांधलपुरभी आ जाता है, है ठाकुरो, ठसक और ठाठमाठमे गढका महत्वका स्थान है, जिर्ण गढ कुळको लजा सकता है ईसलिए गोदड खवडने धांधलपुरमे नया गढ खडा किया।

सोना री कर सांग, सोहती भीम गदा जिम
सोना री कर सांग, सोहती मर्दकू असिम
सोना री कर सांग, इंद सत्थे ज्यौ ससतर
सोना री कर सांग, सटाकै फुटै बैरि सर
धारी कर सांग सुवर्ण री, सोहती रती तव हती
खत्रिय मयूख गोदड खवड, नरापार ही निकरती *(२३)*

अर्थ:-
गोदड खवड के हाखमे सोने की सांग, जैसे भीम के हाथमे गदा, सोनेकी सांग मर्दको सोहती है, जैसे इंद्र के हाथमे शस्त्र जिसके एक वार से बैरीयोके सर फूट सकते है, है गोदड खवड, तेरे हाथमे सोने की सांग अति किंमती लग रही है, कवि मयूखके अनुमानसे वह पुरूषदेह को आरपार करने वाली रही होगी।

*(छंद प्रकार:- दोहरो)*

खासी कीधी खवडरी, किरत विरत कवियाह
ठाठमाठ तज ठाकुरा, गोदड जुद्ध गियाह *(२४)*

अर्थ:-
कवि मयूखने गोदड खवडकी किर्ती वृद्धीमे अपना योगदान दिया है क्युकी गोदड खवडने ठाठमाठ त्याग कर युद्ध किया, विरत्वका बखांन करना ही चाहिए।

पूनम दिवस प्रभातमै, कीधी कब कबताह
बरस बीससतचत्रहुं, मयूख महिनो माह *(२५)*

अर्थ:-
विक्रमसंवतके २०७४ के माह महिनेमे पूनम के दिवस प्रभातमे कवि मयूखने यह रचना की।

रविवार, 2 जून 2019

तीनो तुक मिलाई हे साव साँची पाई हे ......!

राजस्थानी कविता हे ....
तीनो तुक मिलाई हे साव साँची पाई हे ......!
१ ; नाता की लुगाई खोटी,गाँव की उगाई खोटी,
आटे साटे सगाई खोटी . तीनो तुक मिलाई हे .......!
२ ; घर जंवाई रियोड़ो खोटो,दारु घणो पियोड़ो खोटो,
गहनो उधारो लियोड़ो खोटो. तीनो तुक मिलाई हे....!
३ ; मारण वालो पाडो खोटो, बिना पाळ को नाडो खोटो,
उललयिड़ो गाडो खोटो , तीनो तुक मिलाई हे....!
४ ; लेणों घणो लियोड़ो खोटो, कड्वो बोल कियोड़ो खोटो,
जाव घणो पियोड़ो खोटो,तीनो तुक मिलाई हे.........!
५ ; खान में सेली खोटो, गुरु माराज के चेली खोटी,
खेत माइने गेली खोटी, तीनो तुक मिलाई हे.....!
६ ; माड़ो करियोड़ो भोरो खोटो,बिगड़ीयोड़ो छोरो खोटो,
पागल ने आयोड़ो लोरो खोटो ,तीनो तुक मिलाई हे साव साँची पाई हे !

रविवार, 14 अप्रैल 2019

बेशकीमती बोट

प्रिय साथियों!
सादर अभिवादन।
            दिनांक 29 अप्रेल2019 को लोकतंत्र का महापर्व है। आपसे अपील है कि इस दिन मतदान अवश्य ही करें साथ ही आपके पडोसियों,परिजनों,परिचितों,परिवारवालों व सगा- संबंधियो को भी मतदान हेतु प्रेरित करें।पांच वर्ष पश्चात आने वाले इस मताधिकार का प्रयोग  विवेक के साथ,सोच समझकर करें ताकि किसी गलत आदमी का चयन रोका जा सके।
आज जिस तरह भाई-भतीजावाद व जातिवाद के नाम पर समाज की सामूहिकता के भाव व समरसता को चोट पहुंचाई जा रही है, उससे लोकतांत्रिक व्यवस्था को चोट पहुंचने की संभावनाएं बढ़ती जा रही है।
आज आम आदमी के समक्ष यह यक्ष प्रश्न खड़ा दिखाई देता है कि ऐसे में किसको अपना प्रतिनिधि चुने?
मैंने आपकी इसी  शंका व संशय के समाधान हेतु कतिपय दोहे लिखे हैं ।जो शायद आपका कुछ मार्ग प्रसस्त कर सकें। सादर अवलोकनार्थ पेश है--
       बेशकीमती बोट
दिल मे चिंता देश री,
मन मे हिंद मठोठ।
भारत री सोचे भली, बिणनै दीजो बोट।।

कुटल़ाई जी में करे,
खल़ जिणरै दिल खोट।
नह दीजो बी निलज नै,
बहुत कीमती बोट।।

कुटल़ा कपटी कूडछा,
ठाला अनपढ ठोठ।
घर भरवाल़ा क्रतघणी,
भूल न दीजो बोट।।

बुध हीणा,गत बायरा,
पाप कमाणा पोट।
विस कटूता री विसतरै,
कदैन दैणा बोट।।

दशा बिगाडै दैश री,
कर हिंसा विस्फोट।
मोहन कहै दीजो मति,
बां मिनखां नै बोट।।

आयां घर आदर करै, सहविध करै सपोट।
मोहन कहै बि मिनख नै,
बेसक दीजो बोट।।

जात -पांत नह जोवणी,
नह बिकणो ले नोट।
भासा रै खातिर भिड़ै,
बिणनै दैणां बोट।।

सर्वधर्म सदभावना, सबजन लेय परोट।
हिल़मिल़ चालै हेत सू,
बी ने दीजो बोट।।

करड़ाई अड़चन करै,
सागै रखणो सोट।
निरभय,निडर,निसंक व्है,
बे हिचक दो बोट।।

पांच बरस बित्यां पछै, आयो परब अबोट।
चित उजवल़ नह चूकणो,
बढ चढ दीजो बोट।।

इण अवसर दारू अमल,
हिलणो नीं धर होठ।
जगां जगां नी जीमणो,
देख चीकणां रोट।।

प्रात काल न्हायां पछै,
हरि सुमरण कर होठ।
देणो बटण दबाय कर,
अवस आंपणो बोट।।

कल़ै कराणा कुटंब में,
कूड़ तणा रच कोट।
दुसटां नै नह देवणो,
बिलकुल अपणो बोट।।

अतंस तणी अवाज सुण,
सुध हृदय मन मोट।
विध विध सोच विचार ने,
बेसक दीजो बोट।।

रचियता
मोहन सिह रतनू,से.नि
आर.पी.एस ,जोधपुर

सोमवार, 8 अप्रैल 2019

जै  ना खायो  चूरमा....

*राजस्थान का भोजन

जै  ना खायो  चूरमा,किया बनसी सूरमा
जै  ना  खायो नुक्ती,किया मिलसी मुक्ति
जै  ना खायो  थूली,दुनिया बीने ही भूली
जै ना खाई लापसी,आत्मा किया धापसी
जै  ना  खायो  सीरो,बण  के  रेग्यो  जीरो
जै ना खायो सोगरो,दास  बणग्यो रोग रो
जै  ना खाई  राबड़ी,सकल  होगी छाबड़ी
जै   ना  खाई  कड्डी,कमजोर होयगी हड्डी
जै ना खायो मिर्ची बडा, विचार  रेवे कड़ा
जै  ना  खायो दाल बाटी, जिंदगी है माटी
जै ना खायो खांकरा, कर्मा में है  कांकरा
जै  ना  खायो पीटलो, है बो सेउं फीटलो
जै ना खाया केर, कोनी बिकी कोई  खैर
जै ना खाई गंवार फली,नसा बिकी गली
जै  ना  खायो  घेवर,ठंडा  पड़ग्या  तेवर
जै ना खाई फीणी, केंकी  जिंदगी जीणी

शनिवार, 6 अप्रैल 2019

ओ देस कठीनैं जार्यो है  !

ओ देस कठी'नैं जार्'यो है  !
                   ___________________________
           रचना  : मानसिंह शेखावत 'मऊ'
ओ देस कठी'नै जार्'यो है !
नहीं भेद रामजी पार्'यो है !!
          बोलण-चालण का सू'र नहीं !
          तन ऊपर ढंग का पू'र नहीं !!
          आ होठां सूं रंगरेजां सी !
          आ बोली सूं अंगरेजां सी !!
पण आँख्यां काजळ सार्'यो है !
ओ देस कठी'नैं जार्'यो है !!
          हाथां सुहाग की चूड़ी ना !
           पग मैं बाजै बिछूड़ी ना !!
           काळी नागणं सा बाळ कठै ?
           माथै सिंदूरी टाळ कठै ??
तन गाबाँ बारैं आर्'यो है !
ओ देस कठी'नैं जार्'यो है !!
           आ धक्का-मुक्की गाड्यां की !
           आ खिंची लूगड़ी लाड्यां की !!
           अै लड़ै लुगायाँ टूँट्यां पर !
           अै सरम टाँक दी खूँट्याँ पर !!
घरधणी घूँघटो सार्'यो है !
ओ देस कठी'नैं जार्'यो है !!
           बा सीता की सी लाज कठै !
            बो रामराज सो राज कठै !!
            पन्ना धायण सो त्याग कठै !
            बा तानसेन सी राग कठै !!
ओ फिलमी गाणां गार्'यो है !
ओ देस कठी'नैं जार्'यो है !!
             अै दूंचै पूत जणीतां नैं !
             आ बाड़ चाटगी खेताँ नैं !!
             असमत लुट'री थाणै मैं !
              झै'र दवाई खाणै मैं !!
ओ हात,हात नैं खार्'यो है !
ओ देस कठी'नैं जार'यो है !!
               छोरा-छोर्'याँ को मिट्यो भेद !
                रद्दी कै सागै बिक्यो वेद !!
                डिसको को रोग चल्यो भारी !
                डिसको राजा अर दरबारी !!
आँख्यां पर जाळो छार्'यो है !
ओ देस कठी'नैं जार्'यो है !!
                 के हाल कहूँ गुरु-चेलै का !
                 लक्खण आँ मैं नहीं धेलै का !!
                 ऐ साथ मरै अर साथ जिवै !
                  बोतल अर बीड़ी साथ पिवै !!
खेताँ मैं तीतर मार्'यो है !
ओ देस कठी'नैं जार्'यो है !!
                   धोळै दोपारां डाको है !
                   ओ लूंठाई को हाको है !!
                   झूंठै कोलां को खाको है !
                    फाट्यै गा'बै मैं टाँको है !!
ओ मिनखपणै नैं खार्'यो है !
ओ देस कठी'नैं जार्'यो है !!
रचनाकार : मानसिंह शेखावत 'मऊ'