रविवार, 27 नवंबर 2016

संकलित दोहे

संकलित
पाडा बकरा बांदरा चौथी चंचल नार।
इतरा तो भूखा भला धाया करे बोबाङ

भला मिनख ने भलो सूझे कबूतर ने कुओं
अमलदार ने एक ही सूझे किण गाँव मे मुओl

गरज गैली बावली. जिण घर मांदा पूत।
सावन घाले नी छाछङी जेठां घाले दूध।

बाग बिगाङे बांदरो. सभा बिगाङे फूहङ।
लालच बिगाङे दोस्ती. करे केशर री धूङ।

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1 टिप्पणी:

  1. डाक्टर साहब, कुछ कुछ तो समझ में आता है (बन्दर बगीचे को ख़राब करता है, मूरख सभा को ख़राब करता है, लालच दोस्ती को ख़राब करती है, केशर को धुल में मिला देती है, ....) लेकिन सर पूरी कविता का अर्थ भी समझा देते तो अच्छा होता. धन्यवाद.

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